अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे । Are Ho Jiyra Dharm me Chitt Lagaye Re

अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे

( राग प्रभाती )

अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे ।। टेक ||
विषय विषसम जान भोंदू, वृथा क्यों लुभायरे ।।
संग भार विषाद तोकौं, करत क्या नहि भाय रे ।
रोग - उरग - निवास - वामी, कहा नहिं यह काय रे ।। १ ।।
काल हरिकी गर्जना क्या, तोहि सुन न पराय रे ।
आपदा भर नित्य तोकौं, कहा नहीं दुःख दायरे ।। २ ।।
यदि तोहि कहा नहीं दुख, नरक के असहाय रे ।
नदी वैतरनी जहाँ जिय, पर अति बिललाय रे ।। ३ ।।
तन धनादिक घनपटल सम, छिनकमांहीं बिलाय रे ।
‘भागचन्द’ सुजान इमि जदु-कुल-तिलक गुन गाय रे ।।

रचयिता: कविवर श्री भागचंद जी जैन