अन्याय अनीति छोड़ा, परद्रव्यों से मुख मोड़ा,
उपयोग को निज से जोड़ा।
परम पद पर स्थित हो परमेष्ठियो,
तुम ही तो भगवन् हो।।टेक।।
तुमने है नाशा, घातिया कर्मों को।
प्रगटे चतुष्टय, धारा दस धर्मों को।।
समवशरण से हो प्रभु शोभित, प्रातिहार्य भी अष्ट हैं।
शुक्लध्यान के धारक जिनवर, श्री अरहंत भगवंत हैं।।
तुम ही सुख के कारण हो।।१।।
तुम हो अशरीरी, प्रभु ज्ञान शरीरी हो।
तुम को ध्याकर के, भावना ये पूरी हो।।
समकित दर्शन ज्ञान सहित है, अगुरुलघु अवगाहना।
सूक्ष्मत्व है वीर्य जिनेश्वर, निर्बाधित सुख वेदना।।
प्रभु जग के आदर्श हो।।२।।
शासक कहलाते, आचारज मुनिवर हैं।
संयम के हैं धारक, शान्ति के सागर हैं।।
ज्ञान ध्यान के हैं प्रभु धारक, मूलगुणों से शोभित हैं।
सहित मुनि हैं रत्नत्रय से, निज आतम पर मोहित हैं।।
प्रभु भावी सिद्ध हो।।३।।
करते हैं अध्ययन सारे मुनिवर तुमसे।।
पाया ज्ञानानंद, निज के ही अनुभव से।।
पाठी द्वादशांग के, लघु नंदन कहलावे सिद्ध के।
गुण पच्चीस हृदय से पाले, आतम बल की ऋद्धि से।।
हम पर उपकार करो।।४।।
षष्टम् अरु सप्तम्, गुण स्थानों में तुम झुलते।।
करते हो चर्चा, सिद्धों से भी तुम मिलते।।
आतम को ध्याकर के तुम, अरहंत दशा प्रगटाते हो।
निज में जम कर के फिर तुम भी, सिद्ध लोक को जाते हो।।
साधते हो ‘सर्वार्थ’ को।।५।।