अन्तर में उछले अवबोध सिन्धु।
आओ नहाओ, शीतलता पाओ।। टेक।।
अन्तर में दृष्टि से सम्यक्त्व प्रगटे
बाहर में चित्त भ्रमाओ नहीं।
अनुभव सुधारस पियो तृप्ति वर्ते,
विषयों में अब मन चलाओ नहीं।।1।।
निज के अनुभव से हो ज्ञान सम्यक्,
ज्ञेयों में मोह बढ़ाओ नहीं।
निज में ही थिरता से प्रभुता प्रगटती,
शंका हृदय में सु लाओ नहीं।। 2॥।
निश्चल हो एकाग्र हो ध्याओ निज पद,
शुद्धोपयोग बढ़ाओ सही।
अन्तर में उछले अवबोध सिन्धु,
निमग्न हो मुक्ति पाओ सही।। 3॥।
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: Swarup Smaran