आनन्द की गगरी छलक छलक जायें,… २
शान्ति प्रभु के दरश जब पायें ॥टेक॥
सौम्य शान्त मुद्रा मनभावन, सुख सागर अन्तर लहराये।
तुव चरणों की पूजन का फल, निजपद प्राप्त होय जिनराय॥
मुक्तिरमा को पाये, जग में न आये… शान्ति प्रभु के दरश जब पायें… २ ॥१॥
सफल हुआ पुरुषार्थ आपका, निजबल से पाया निर्वाण ।
यही भावना मेरे उर भी, पाऊँ तुम सम शिव सुख धाम ॥
निजगुण रत्नों की झलक दिख जायें… शान्ति प्रभु के दरश जब पायें… २॥२॥
शिवपथ के दिग्दर्शक हो प्रभु, भव्यों के तुम ही आधार ।
ज्ञानहीन हम भक्ति करे क्या, जब गणधर न पावें पार ॥
श्रद्धा से शीश मेरा झुक झुक जायें… शान्ति प्रभु के दरश जब पायें… २ ॥३॥
द्रव्य गुण पर्ययपने से जो जाने जिनवर का रूप।
वो ही निज आतम को लखकर क्षय करते है मोह विरूप।
ज्ञायक स्वभाव ही उनके मन भाये… शान्ति प्रभु के दरश जब पायें… २ ॥४॥