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जैसे सूर्योदय से पहले सूर्य की प्रभा का विकास दिखता है । वैसे ही निश्चयाराधना से पहले व्यवहार की उज्जवलता, निर्मलता होती है ।
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विषय सुखों से विरक्त तत्त्वभावना के बल से आती है ।
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आत्मा से विमुख होकर पर चिन्ता में लगा जीव विराधक है ।
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अयोग्य का त्याग और योग्य का ग्रहण सन्यास है ।
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अपने परिणामों की समता और दृढ़ता ही समस्त विघ्नों को दूर करने में समर्थ है ।
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सत्पुरुष अपनी आराधना में दृढ़ रहते हैं । मूर्ख को सन्मार्ग का उपदेश भी नकटे को दर्पण दिखाने के समान क्रोध का कारण हो जाता है ।
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दुःख दूर करने का उपाय मोह दूर करना और मोह दूर करने का उपाय आत्मा को अनुभवना है ।
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वस्तु अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती । अतः वस्तु स्वभाव की मर्यादा को समझ कर भेदज्ञान पूर्वक अपनी ज्ञातारूप मर्यादा में रहना ही प्रतिक्रमण है ।
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भेदज्ञान ही परमार्थ प्रतिक्रमण का आधार है और सहज चैतन्यमय शुद्धात्मा के श्रद्धान ज्ञान पूर्वक उसी की भावना भाते हुए एकाग्र हो जाना, लीन हो जाना ही परमार्थ प्रतिक्रमण है ।
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भेदविज्ञान के अभ्यास से ही विषयाभिलाषा मिटती है ।
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ज्ञान सर्वोत्कृष्ट मंगल है । ज्ञानमयी आत्मा ही ध्रुव मंगल स्वरूप है । ज्ञानाभूति से समस्त पापों और पापों के फलस्वरूप होने वाले दुःखों का अभाव होता है और अक्षय निराकुल सुख की सिद्धि होती है ।
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प्रमुख कर्तव्य ज्ञानाभ्यास ही है ।
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मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान है । अतः मिथ्यादृष्टि ज्ञान का आराधक नहीं होता ।
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असंयमी का तप गजस्नान अथवा मन्थनचर्म पालिका (मथनी की रस्सी एक ओर से खुलती जाती है दूसरी ओर बंधती जाती है) के समान निष्फल है ।
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कर्तव्य का स्वीकार और अकर्तव्य का परिहार चारित्र है ।
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चारित्र में उद्योग (पुरुषार्थ) और उपयोग ही तप है । बाह्य तप से सुखशीलता (शरीर का सुखिया स्वभाव) छूटती है जिससे प्रतिकूलता में भी समता बनी रहती है ।
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सम्यक अर्थात श्रुतज्ञान के अनुसार चलने आदि में प्रवृत्ति करना समिति है ।
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सावद्य योगों (सदोष मन-वचन-काय की प्रवृत्ति) से आत्मा को गोपन अर्थात रक्षण करना गुप्ति है ।
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स्नेह असंयम का मूल और सन्मार्ग में बाधक है । अतः साधु लौकिक बन्धुजनों को महाशत्रु समान समझ कर उससे विरक्त होते हैं ।
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पाप के उदय बिना कोई किंचित भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।
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सर्वत्र समचित्तता ही श्रामण्य है ।
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जैसे समुद्रादि में तरंगें निरन्तर उठती रहती हैं । वैसे ही क्रम से आयु का उदय प्रति समय आता रहता है उसके उदय को ही अवीचि कहा है । आयु के अनुभवन को जीवन कहते हैं । उसका भंग ही मरण है । अतः जीवन की तरह मरण भी अवीचि है ।
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प्रत्यक्ष और प्रमाण से अविरुद्ध और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अनुसारी होना वचन की प्रकृष्टता है ।
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जिनसूत्र का जिसे एक भी अक्षर नहीं रुचता । शेष में रुचि होने पर भी वह मिथ्यादृष्टि है ।
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क्षयोपशम की न्यूनता से गुरु द्वारा बताये जाने पर कुछ विपरीत श्रद्धान करने पर भी जीव सम्यग्दृष्टि ही रहता है परन्तु किसी ज्ञानी द्वारा सम्यक् बताये जाने पर भी वह हठात् विपरीत ही मानता है तो उसी क्षण मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।
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मिथ्याज्ञान की सेवा का एक अर्थ है निरपेक्ष नयों का उपदेश देना ।
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रत्नत्रय अथवा रत्नत्रय धारकों का माहात्म्य प्रगट करना प्रभावना है ।
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प्रवचन का अर्थ रत्नत्रय भी है ।
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मन से श्रद्धान करने वाले, ‘यही उत्तम है’ ऐसा वचन से कहने वाले, संकेतादि से दर्शाने वाले और समस्त प्रवचन का अनुष्ठान करने वाले सभी सम्यक्त्व के आराधक हैं ।
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अज्ञान, अभिमान, विषयासक्ति आलस्यादि को छोड़ कर गुरु को जो हितकर एवं प्रिय हो उसी में परिणाम लगाना मानसिक विनय है ।
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साम्यभाव सर्वत्र पूज्य है ।
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परिग्रहवान ऐसा होता है मानो छाती पर पहाड़ रखा हो ।
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निपुण (जीवादि पदार्थों का प्रमाण और नय के अनुसार निरूपण करने वाला), विपुल, शुद्ध अर्थात पूर्वापर दोष रहित, अर्थपूर्ण, सर्वोत्कृष्ट और सर्व का हित करने वाले, कर्म-कालिमा नाशने वाले जिनवचन रात-दिन पढ़ना चाहिए ।
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स्वाध्याय से हिताहित का ज्ञान, नवीन-नवीन, संवेग, रत्नत्रय में निश्चलता होती है - “स्वाध्याय सदृशं तपो नेति ।”
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लौकिक कार्यों में फँसे रहने से तप की हानि होती है ।
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जाने हुए अर्थ का मन से अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है ।
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स्वाध्याय से रहित अज्ञानी दूसरों का क्या उपकार करेगा ?
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संयम (जितेन्द्रियता) और समता बिना तप सार्थक नहीं होता ।
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विनय से ही श्रुत और चारित्र की आराधना होती है ।
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जिनका हेतु और स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है, वे एक नहीं हो सकते ।
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मुख की प्रसन्नता से प्रगट होने वाले आन्तरिक अनुराग को भक्ति कहते हैं ।
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शास्त्रानुसार आचरण को ऋजु कहते हैं और ऋजुमार्ग पर चलना आर्जव है ।
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जैसे स्वामी के अनुसार न चलने वाला सेवक दुष्ट कहलाता है उसी प्रकार आत्मकार्य से विमुख मन दुष्ट कहलाता है ।
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ज्ञानभावना से उपयोग प्रतिज्ञा को बिना क्लेश के अचल होकर पूर्ण करता है ।
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काम अर्थात अपनी इच्छा से जो भोगे जाते हैं, वे काम-भोग हैं ।
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जिससे मन पापों में न जाए, अन्तरंग तपों में श्रद्धा उत्पन्न हो, गृहीत योग व्रतादि हीन न हो, उस प्रकार बाह्य तप करना चाहिए ।
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एकान्त में रहने वाला व्याकुलता रहित स्वाध्याय करता है ।
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बाह्य तप से आत्मा, अपना कुल, गण, परम्परा शोभित होती है । मुक्ति का मार्ग प्रकाशित होता है ।
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संक्षिप्त, सारभूत, निर्दोष, प्रमाणिक कथन सूत्र है ।
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इन्द्रियों का निग्रह, रत्नत्रय में एकाग्रता, निर्दोष चेष्टाएँ, सत्कारादि की अपेक्षा न होना, तप में लीनता यतियों के गुण हैं ।
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जिसकी वैयावृत्ति की जाती है, उसके गुणों (रत्नत्रय) की रक्षा होती है और वैयावृत्ति करने वाला उन गुणों से सुवासित होता है ।
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भ्रष्ट होने के कारणों को दूर करना भी वैयावृत्ति है ।
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वैयावृत्ति करने वाला रत्नत्रय देने वाला होने से सातिशय दाता है ।
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वैयावृत्ति करने वाला स्वाध्याय करने वाले से भी विशिष्ट है क्योंकि आपत्ति आने पर सब वैयावृत्ति करने वाले की ओर देखते हैं ।
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स्वाध्याय एवं ध्यान से विकथा, प्रमादादि छूटते हैं ।
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जैसे शत्रुओं के मध्य रहने वाला असहाय और अंधा पकड़ा जाता है वैसे ही पंचपरमेष्ठी की शरण और तत्त्वज्ञान से रहित व्यक्ति दोष से ग्रसित हो जाता है ।
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कुछ नियम करके शास्त्र सुनना या पढ़ना चाहिए ।
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शुद्धनय का अवलम्बन लेने वाली साधुजनों की बुद्धि तत्त्वविचार पूर्वक स्थिर होती हुई अखण्ड निर्मल उत्कृष्ट चैतन्य ज्योति का अवलोकन करती है ।
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शान्ति के अभिलाषियों को आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
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सम्पत्ति पात्रदान बिना सफल नहीं होती । राजलक्ष्मी संयुक्त प्राणी की अपेक्षा पात्रदान से उत्पन्न पुण्य से संयुक्त जीव का भवितव्य सुखमय है ।
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धन होने पर भी हर्षपूर्वक दान दिए बिना ही जो अपनी धार्मिकता प्रगट करता है उसका ह्रदय कुटिल समझना चाहिए ।
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दान का उपदेश एवं प्रसंग आसन्न भव्यों को आनन्द दायक होता है ।
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आश्चर्यजनक आत्मतेज को धारण करने वाले जीवों के ही उत्कृष्ट समाधि होती है ।
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आत्मज्ञान के बिना जीव का कल्याण असम्भव है ।
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मन की शान्तता के बिना बाह्य संयम मात्र से भी कल्याण नहीं होता ।
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मोक्ष का अद्वितीय कारण शुद्धचेतन तत्त्व ही है ।
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शुद्धात्मा केवल स्वानुभवगम्य है ।
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जो शरीर के प्रति भी निर्मम हो, वह ही श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य का पात्र है ।
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ब्रह्मचर्य का रक्षक तो दृढ़तापूर्वक निग्रह किया गया साधु का मन ही है ।
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रागबुद्धि से किया गया स्त्री सम्बन्धी विषयों का चिन्तन भी तेज की हानि, अपवित्रता, व्रतभंग, पाप, मोक्षमार्ग से पतन एवं महाक्लेश को करता है ।
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ब्रह्मचर्य के दूषित होने पर समस्त व्रत नष्ट हो जाते हैं ।
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श्रृंगार युक्त शरीरादि भोग अज्ञानीजनों को ही हर्षित करता है, न कि विवेकियों को । जैसे सड़े मुर्दों से युक्त श्मशान कौओं को ही हर्षित करता है, न कि राजहंसों को ।
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रागादि विकारों से रहित अतिशय शान्त जिनेन्द्र देव के दर्शन से जिसे हर्ष नहीं होता, उसके संसार का अन्त नहीं हो सकता ।
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जिनके ह्रदय में भगवन्तों की भक्ति होती है, उनके घर में संतोषादि सर्व सम्पदाएँ सहज ही आ जाती हैं ।
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तप-श्रुत-व्रतादि की पूज्यता एवं सार्थकता सम्यग्दर्शन होने पर ही होती है ।
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जैसे जगत को संताप उत्पन्न करने वाला सूर्य भी कमलों के विकसित होने का निमित्त होता है वैसे ही पुण्योदय में प्रतिकूलतायें भी उन्नति का कारण बनती हैं ।
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बाह्य कार्यों में जीव का पुरुषार्थ नहीं चलता मिथ्या कर्तृत्व के अहंकार से क्लेश ही होता है ।
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चक्षु इन्द्रिय से रहित सूरदास को केवल रंग-रूप ही नहीं दिखता परन्तु विषयांध या मोहांध को तो हित-अहित, पुण्य-पापादि कुछ नहीं दिखाई देता ।
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विषयों के आधीन जीव खोटे आचरण करते हुए भव-भव में दुःखी होते हैं ।
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बड़ों से स्नेह पाने के लिए आवश्यक है - विनय, सेवा एवं समर्पण ।
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तपश्चरण का फल मिथ्यात्व का अभाव, उत्तम विचार उत्पन्न होना, दीनता एवं अभिमानादि दुर्गुणों का अभाव, कुसंग से विरक्ति व सत्संग में उत्साह होना, सर्वोत्कृष्ट जीवदया, श्रेष्ठ सम्यक् एवं दृढ़ वैराग्य व अन्त में समाधि है ।
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आत्मा अनादिनिधन अर्थात कालातीत है । अतः काल (मृत्यु) को जीतने के लिए आत्माराधना ही सम्यक् उपाय है ।
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काल (मरण) को टालना अन्य किसी उपाय से सम्भव नहीं है, अतः त्रिकाली शुद्धात्मा का आश्रय करो ।
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कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ मृत्यु न आवे, कोई भी काल (भूत, वर्तमान, भविष्य अथवा सुखमा-सुखमा आदि छह काल अथवा रात्रि-दिन आदि) ऐसा नहीं जहाँ मृत्यु न होती हो ।
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कोई संयोग, मंत्र-तंत्र देवी-देवता ऐसा नहीं जो मृत्यु से बचा सके । कोई भी शुभाशुभ भाव ऐसा नहीं जिससे जीव मृत्यु से बच सके । अतः ध्रुव आत्मा की आराधना ही श्रेयस्कर है ।
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संसार परम्परा बढ़ाने वाले विवाहादि द्वारा विषयों में फंसाने वाले भी जीव के शत्रु ही समझो ।
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मनुष्य पर्याय काने गन्ने के समान निस्सार समझकर तपश्चरण में इसका सदुपयोग करो ।
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श्वेत केशों के बहाने से तेरी निर्मल बुद्धि ही मानो निकली जा रही हो ऐसा समझकर शीघ्र अपना हित कर ।
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कर्मों के आधीन रहते हुए उनके नाश का पुरुषार्थ न करना तेरे लिए ही दुःखदायी होगा ।
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अंतरंग में राग होने पर ही बाह्य त्याग कष्ट रूप लगता है ।
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अंतरंग राग निवृत्त होने पर तो त्याग, आनन्दरूप ही भासित होता है ।
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भेदविज्ञान सहित परिग्रह के त्याग से अवश्य ही मुक्ति होती है ।
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मैं अकिंचन (ज्ञानमात्र) हूँ, बाह्य में परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, ऐसे श्रद्धान पूर्वक ऐसी ही भावना से जीव अवश्य ही तीन लोक का स्वामी होता है ।
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विवेक पूर्वक ज्ञान-ध्यान की वृद्धि के लिए किये गये बाह्य तप भी कष्टरूप नहीं लगते ।
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जिसका शरीर तपरूप बेल में उत्कृष्ट धर्मरूपी फल उत्पन्न कर झड़ जाता है अथवा अग्नि के संयोग में दूध को सुरक्षित रखते हुए जल जाने वाले जल की भाँति जिसकी आयु गल जाती है, वही साधक धन्य है ।
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साधक प्रथम अवस्था में दीपक और पक्वावस्था में प्रकाश एवं प्रताप से युक्त सूर्य के समान होता है ।
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दोष का अंश भी निर्मल साधना में दूषण उत्पन्न करता है ।
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अहंकारी का यश, विषम मनुष्य की मित्रता, क्रियाहीन का कुल, परिग्रह एवं विषयों में आसक्त का धर्म, व्यसनी की बुद्धि, कंजूस का सुख शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
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ज्ञानी मात्र परमार्थ को ही चाहते हैं, विषयों को नहीं ।
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दोषों को दूर करने में सहायक ही सच्चे साधर्मी हैं ।
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जैसे सूर्य की कठोर किरणें भी कमलों को विकसित करती हैं, वैसे दोष छुड़ाने के अभिप्राय से बोले गये कठोर वचन भी योग्य शिष्यों को आनन्द उत्पन्न करते हैं ।
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स्वयं में संतुष्ट, आशा रहित, अपरिग्रही ज्ञानी कर्मों से निर्भय रहकर स्वरूप को साधते हैं ।
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तपश्चरण से समस्त पापों का नाश होता है परन्तु जो तप अंगीकार करके भी पाप करते हैं उनकी कहाँ कुशल ?
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सर्वाधिक प्रशंसनीय - भोगों को त्याग कर तप अंगीकार करे ।
सर्वाधिक निंद्यनीय - तप के फल में भोगों को चाहे ।
पाप - दोषों में इष्टबुद्धि और गुणों में द्वेष, ईर्ष्या, अनादर ।
पुण्य - गुणों में अनुराग, दोषों में उपेक्षा व हेय बुद्धि । -
जिसकी भली होनहार है वही भव्य जीव यह समझता है कि गुरुजनों के अनुशासन में रहने पर ही अपनी सुरक्षा एवं उन्नति निहित है ।
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प्रत्येक प्रसंग में समता ही इष्ट है ।
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अन्तर की लगन से अन्तर में ही सुख का मार्ग मिलता है ।
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उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की मैत्री से ही आत्मार्थ सधता है ।
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धर्म भावना प्रधान है परन्तु बिना ज्ञानाभ्यास के भावुकता से नहीं मिलेगा ।
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मोक्षार्थी को बाहर से निस्पृहता सहज ही रहती है ।
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भूमिकानुसार होने वाले शुभाशुभ भाव गन्तव्य के बीच आने वाले नगरादिकों के भाँति हैं । जहाँ सावधान ही रहना श्रेयस्कर है । द्वेषबुद्धि से हठपूर्वक उनका निषेध भी सम्भव नहीं है ।
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तत्त्वनिर्णय के बल से जिसे बाहर के भोग, संयोग, पद, प्रतिष्ठादि कुछ नहीं सुहाते वह अन्तर्मुखी होकर शुद्धात्मा को प्राप्त कर सकता है अन्यथा कहीं न कहीं अटकता अथवा भटकता ही है ।
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तत्त्व सहज है उसकी प्राप्ति भी सहज है । अधीरता या हठपूर्वक तत्त्व नहीं मिलता ।
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उपयोग की शुद्धता के लिए श्रद्धा सम्यक होना अनिवार्य है ।
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ज्ञानी का शुभ प्रवृत्ति में हर्ष, अपने पति से दूर माता-पिता, भाई आदि के बीच रहती हुई स्त्री के हर्ष के समान क्षणिक है, उस समय भी उसके ह्रदय में उसका ज्ञायकभाव-रूप स्वामी ही बसा हुआ है ।
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पूर्ण स्वभाव पर दृष्टि एवं पूर्णदशा का साध्यपने ज्ञान होने से ज्ञानी कहीं अटकते नहीं हैं ।
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विकल्प मात्र दुःखरूप ही है ।
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निवृत्तिमय जीवन में बाह्य प्रवृत्ति कलंक है ।
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अनुकूलताओं में गाफिल हो जाने से प्रतिकूलताएँ अवश्यंभावी हैं ।
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आत्मार्थ के लक्ष्य से श्रवण, वाचन, चिन्तनादि करें तो मार्ग मिले मात्र रूढ़ि से सच्चे शास्त्रों का भी श्रवणादि करें तो सम्यक्त्व दुर्लभ है ।
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तत्त्व की प्राप्ति के लिए निवृत्ति आवश्यक है ।
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आपका अनादर आपके दोषों से होता है, दूसरे तो निमित्त मात्र हैं । आप अनादर का कारण दूसरों को मान कर खिन्न न हों, दोषों को छोड़कर आदर के पात्र बनें ।
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अनुशासन हेतु -
~ प्रत्येक कार्य समय पर करें ।
~ प्रत्येक वस्तु यथा-स्थान रखें ।
~ नियमों को सहजता से पालें ।
~ किसी कार्य को बड़ों से आज्ञा लेकर करें, करने के बाद सूचना भी दें । कार्य न होने पर भी विनम्रता के साथ उचित कारण बतायें । -
त्याज्य हैं -
~ अनुशासन, व्यवस्था और सुधार के नाम पर भी आ जाने वाला क्रोध ।
~ स्वाभिमान के नाम पर अभिमान ।
~ शिष्टाचार के नाम पर मायाचार ।
~ आवश्यकता के नाम पर लोभ ।
~ वात्सल्य के नाम पर वासना का पोषण । -
सफलता के लिए -
~ अभिप्राय सम्यक हो,
~ उपयोग सूक्ष्म हो,
~ चर्या नियमित हो । -
तनाव के कारण :-
~ नासमझी, अहंकार, छिपाव, अधिकार की भावना, अत्यधिक अपेक्षाएँ, स्वच्छन्द भोगवृत्ति । -
अनुशासन योग्यता एवं सहजता से होत है, रौब से नहीं एवं आदर गुणों से मिलता है मात्र आडम्बर से नहीं ।
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सादगी और संतोष से आत्महित का अवसर मिलता है और स्वाध्याय से दिशा ।
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समझ बिना समता नहीं और समता बिना सुख नहीं ।
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अपने दोषों (अज्ञान, प्रमाद, अहंकारादि) को छोड़कर महापुरुषों के समीप रहना चाहिए । मात्र भय का बहाना करके दूर रहने से हित का अवसर चला जाता है ।
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विचारों का परिवर्तन होने पर ही अन्य परिवर्तन (स्थान, वेश, क्रिया) सार्थक होते हैं ।
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प्रकृति से दूर रहने पर रोग होते हैं और स्वभाव से दूर रहने पर राग होता है ।
-
जिनवचनों का आदर और अपने वचनों की सम्हाल करें ।
-
निजस्वरूप की दृष्टि और भगवन्तों की भक्ति सुख का मूल कारण है ।
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मोक्षमार्ग में :-
~ प्रमाद नहीं पुरुषार्थ,
~ चंचलता नहीं एकाग्रता
और परावलम्बन नहीं स्वावलंबन चाहिए । -
सत्समागम मिलने पर :-
~ यथायोग्य सेवा करें, यथाशक्ति लाभ लें और धर्मध्यान में सहायक हों । -
योग्य शिष्यों के निमित्त से :-
~ सूक्ष्म तत्त्वों का उदघाटन होता है,
~ तीर्थ की प्रवृत्ति होती है और होती है निश्चिंतता एवं समाधि । -
आवश्यक है :-
~ विचारों में सम्यक्तता एवं सादगी,
~ वचनों में सत्य एवं विनम्रता,
~ आचरण में यत्नाचार एवं विवेक । -
जीवन में :-
~ कषायों को जीतते जाओ,
~ इच्छाओं को रोकते जाओ,
~ ज्ञानाभ्यास करते जाओ,
~ कर्मोदय को सहते जाओ,
~ मोक्षमार्ग में बढ़ते जाओ । -
आवश्यकतानुसार :-
~ यत्नाचार, विवेक, विनय और बहुमान से जिनमंदिर, पाठशाला, आश्रम आदि धर्मायतन बनाओ और उनकी व्यवस्था करो ।
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इच्छाओं को जीतने में :-
~ मूलकारण - सम्यग्दर्शन
~ प्रबल कारण - ज्ञानाभ्यास
~ साक्षात कारण - संयम एवं ब्रह्मचर्य है । -
शील और सहजता ही जीवन के श्रृंगार हैं । बाह्य श्रृंगार तो विकारों का पोषक ही समझो ।
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जो जीव विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी शुद्धात्मा के सम्यक श्रद्धान, ज्ञान अनुष्ठान रूप निश्चय मोक्षमार्ग से निरपेक्ष शुभ अनुष्ठानरूप व्यवहार को ही मोक्षमार्ग मानता है वह उसके द्वारा देव लोक के क्लेशों को पाता हुआ संसार में भ्रमता है परन्तु जो शुद्धात्मानुभूति रूप निश्चय मोक्ष को माने और निश्चय मोक्षमार्ग के अनुष्ठान में असमर्थ होने से निश्चय साधक शुभानुष्ठान करे वह सराग सम्यग्दृष्टि है और परम्परा से मोक्ष पाता है ।
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सावधान रहें, भयभीत नहीं ।
कर्तव्य करें, कर्तृत्व नहीं ।
प्रसन्न रहें, स्वच्छन्द नहीं ।
दृढ़ रहें, कंजूस नहीं ।
मितव्ययी बनें, कंजूस नहीं ।
भविष्य का नियोजन करें, व्यर्थ चिन्ता नहीं । -
पर्यायदृष्टि ही संसार (दुःख) का मूल है ।
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भयभीत को भी मरना पड़ता है अतः निर्भयता पूर्वक देह छोड़ें ।
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अन्याय करना क्रूरता है और दुःखी होते हुए अन्याय सहना कायरता ।
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सादगी और संतोष पूर्ण जीवन में श्रेष्ठ विचार जाग्रत होते हैं ।
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उत्तजित एवं दुःखी होना स्वयं को कमजोर करना है ।
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सम्यक विचारों से बड़ी से बड़ी उलझनें सहज ही सुलझ जाती हैं ।
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वस्तु अनेकान्तस्वरूप है, सम्यक कथन स्याद्वादरूप और धर्म अहिंसारूप है ।
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भोगभूमि के जीवों और इन्द्रों को विषय सुख तो बहुत हैं परन्तु तृष्णा कम है इसलिए वे कुगतियों में नहीं जाते ।
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मात्र शास्त्र-पठन या तप करना ही कार्यकारी नहीं है, कार्यकारी तो उपशम भाव है ।
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दो द्रव्यों में एकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व आदि परमार्थ से असम्भव है ।
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देह के प्रति निर्ममता देह धारण की सन्तति (परम्परा) को मेटने वाली है ।
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कषाय और शान्ति परस्पर विरुद्ध हैं ।
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जैसे कोई धन द्वारा इष्ट वस्तु को प्राप्त कर लेता है वैसे ही ज्ञानी संयमरूपी धन द्वारा मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं ।
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ज्ञानी को मुक्ति के मार्ग में अपूर्व-अपूर्व भावना और अपूर्व-अपूर्व उल्लास होता है ।
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जैसे दीवालें और किवाड़ मजबूत होने पर भी छोटे से छिद्र में से ही सर्प आदि घर में आ जाते हैं, वैसे ही निर्दोष साधना करते हुए भी अल्प दोष क्लेश उत्पन्न करते रहते हैं ।
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ईर्ष्यावश दूसरों की निन्दा करना महापाप को उत्पन्न करने वाली अविवेकपूर्ण चेष्टा है ।
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धर्मतीर्थ परमार्थतः आत्मानुभवन रूप ही है ।
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ज्ञानीजन निरन्तर आत्मानुभवपूर्वक ही मुक्तिमार्ग का उपदेश देते हुए जगत में धर्मतीर्थ को प्रवर्ताते हैं ।
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नैतिकतापूर्ण धार्मिक जीवन (सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र) के बिना आत्मसाधना असम्भव है ।
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विनय और मर्यादा संयुक्त विवेक ही श्रेयस्कर है ।
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समय ज्ञेय है, परसमय हेय है, स्वसमय प्रगट करने योग्य उपादेय है और समयसार ध्येय है आश्रय करने योग्य उपादेय है ।
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आत्मार्थ के लक्ष्यपूर्वक ध्रुवात्मा को ध्येय बना कर निरन्तर आत्मभावना भाना ही आत्महित का सम्यक् उपाय है ।
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अन्तरंग जिज्ञासा एवं लगन, योग्य विनय एवं पुरुषार्थ से मुक्ति का मार्ग सहज समझ में आता है ।
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जैसे कृषक को बीज में होने वाला वृक्ष, फूल-फलादि प्रत्यक्ष-सम दिखते हैं, वैसे ज्ञानी को आत्मानुभव होने पर आने वाला मुक्तिमार्ग एवं मोक्ष सहज दिखता है ।
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बाह्य सर्व अनुबन्धों से रहित सहज ज्ञान वैराग्यमय एवं प्रचुर स्वसंवेदनजनित आनन्दमय दशा ही परमार्थ मुनिदशा है ।
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वस्तु के अनेकान्तातमक पर से भिन्न और अपने अनन्त धर्मों से अभिन्न स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही स्वाश्रय से मुक्ति की साधना होती है ।
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जैसे ईट, पत्थरादि के ढेर को भवन नहीं कहते । वैसे ही केवल संग्रहात्मक जानकारी को ज्ञान नहीं कहते ।
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संशयात्मक स्थिति में पुरुषार्थ सम्भव नहीं । निश्चय बिना दुविधा एवं आकुलता होती है, प्रयत्न नहीं ।
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जैसे दो नावों पर पैर रखने से डूबना निश्चित है । ऐसे ही प्रवृत्ति एवं निवृत्ति सर्वथा एक साथ नहीं चलती ।
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प्रयत्नपूर्वक डाले गये अच्छे संस्कारों से जीवन श्रेष्ठ बनता है ।
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सम्यक विचारों द्वारा ही दुष्प्रवृत्तियों का परिहार होता है ।
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सम्यक् विचारों की अभिव्यक्ति भी सम्यक् वचन एवं वृत्तियों में ही होती है ।
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केवल साधन ही नहीं अपितु उनका सही प्रयोग भी होना चाहिए ।
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उत्तम कार्यों के लिए अधिक से अधिक समय अकेले रहें ।
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क्षमा कर देना ही निःशल्य होने का सुन्दर उपाय है ।
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व्यक्ति को दुःखी कोई दूसरा नहीं करता । अपने अज्ञान एवं कषायों से स्वयं ही दुःखी होता है ।
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स्वयं प्रसन्न रहें, दूसरों को प्रसन्न करने की चिन्ता न करें ।
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कमजोरी दूर करने का उपाय कमजोरी की चिन्ता नहीं, शक्ति का चिन्तन है ।
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दोषों को दूर करने की चिन्ता छोड़कर गुणों का विकास करें, दोष स्वयं दूर हो जायेंगे ।
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दिनभर के शारीरिक श्रम की अपेक्षा थोड़े समय की मानसिक उलझन अधिक थका देती है ।
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सेवा-व्रती सेवा में ही अपने व्यक्तित्व को विलीन कर देता है, उसका जीवन अपनी इच्छा से नहीं अपितु उसकी इच्छाओं से संचालित होता है जिसकी वह सेवा करता है । फिर भी वह गुलाम नहीं अपितु जितेन्द्रिय होता है ।
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जिसने संयम को जीवन का आधार बनाया है । वह अपना संयम तो छोड़ता ही नहीं, दूसरों को संयम से च्युत होने की स्थिति में जिस-तिस प्रकार स्थितिकरण ही करता है ।
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आचार्य अनुशासन एवं मर्यादा के रक्षक होते हैं ।
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जो सेवा करता है, उसके मन में स्वार्थों से उत्पन्न चिन्ताएँ एवं बेचैनी मिट जाती हैं ।
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स्वयं संयम मार्ग पर दृढ़ रहते हुए गुरू सेवा में लगे रहना श्रेयस्कर है ।
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संयम से प्राप्त ज्ञान, असंयम से नष्ट हो जाता है ।
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सादगी हीनता का प्रतीक नहीं, हमारे जीवन का गौरव है ।
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संयम नीरस नहीं अपितु जीवन की स्वाभाविक सरसता है ।
~ अपरिग्रह हमारी अक्षय प्रभुता का परिचायक है ।
~ अहिंसा हमारी जीवन-शैली है ।
~ ज्ञानाभ्यास एवं तत्त्वभावना हमारा व्यापार है ।
~ तत्त्वार्थश्रद्धान हमारे जीवन की रीढ़ है ।
~ परम पुरुषों का नाम ग्रहण भी मंगलकारी है ।
~ आत्मार्थ की भावना भी श्रेयस्कर है ।
~ वीतरागता हमारी अक्षय पूँजी है ।
~ एकत्व (अकेलापन) हमारा सौन्दर्य है ।
~ अकेले में शून्यता नहीं, शान्ति देखो । -
ज्ञानी को विकल्पों के अनुसार कार्य हो जाने पर भी सहज निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध दिखता है, कर्तृत्व का अहंकार नहीं होता ।
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इच्छाएँ -
~ मोह से उत्पन्न होती है ।
~ पुण्य प्रमाण पूरी होती हैं ।
~ ज्ञानाभ्यास से मिटती हैं । -
महापुण्य से प्राप्त अति दुर्लभ मनुष्य जीवन आत्माराधना एवं प्रभावना में लगाने योग्य है यही इसका सदुपयोग है, विषय-कषायों में लगाना हो तो महानिंद्य एवं क्लेश का ही कारण समझना चाहिए ।
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शरीर में एकत्व बुद्धिरूप मोह के वशीभूत होकर प्राप्त समय-शक्ति एवं ज्ञान को पारिवारिक प्रपंचों में उलझना तो अग्नि में कूदने के समान है ।
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जब तक राग का अभाव न हो सके, तब तक भी कम से कम राग की दिशा एवं राग का विषय तो बदल ही देना चाहिए ।
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विषयों की वासनाओं को ज्ञानाभ्यास पूर्वक जीतते हुए समर्पित हो जाओ ।
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विषय-कषायों के वशीभूत हुआ जीव, देव-शास्त्र-गुरु की आज्ञा तो यह है - विषयों की वाँछा छोड़ कर संयम की साधना करो ।