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मोह और विषय-कषायों से निवृत्ति होना ही जिनवचनों के सुनने का लाभ है ।
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जो जिनवचनों का आनन्दपूर्वक अभ्यास करते हुए जिनवचनों में कहे हुए उपादेयरूप निज शुद्धात्मा में रमते हैं, उनके मोह का नाश होता है ।
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त्याग का परमार्थ अर्थ है - पर की अपेक्षा न रहना और वह स्वभाव में तृप्ति पूर्वक ही सम्भव है ।
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द्वेष बुद्धिपूर्वक (मात्र बुरा जानकर) छोड़ देना वास्तविक त्याग नहीं है ।
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स्वयं में सन्तुष्ट रहकर पर को मात्र पररूप जानने वाला जीव वास्तव में त्यागी होता है । उसके पर के लक्ष्य से राग या द्वेष नहीं होते ।
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अज्ञानी भी शुद्धनय से अर्थात स्वभाव से ज्ञानरूप ही हैं और वे भी निज ज्ञानस्वभाव को समझ कर ज्ञानी हो सकते हैं । अतः अज्ञानी का भी तिरस्कार मत करो ।
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‘मैं तो शुद्ध चैतन्यमय परमज्योति ही हूँ, अन्यरूप नहीं’ - ऐसा समझकर पर को अपना मत मानो और ‘शुद्ध चैतन्यमय परम ज्योति मैं ही हूँ’ - ऐसा समझकर उसे अन्य मत जानो । उसमें अहं मानकर सम्यक्त्वी बनो ।
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‘ज्ञानी तुझे ज्ञानी होने के लिए अंतरंग कारण हैं’ - ऐसा जानकर, अभिमान से, ‘हम मात्र शास्त्र पढ़कर ज्ञानी हो जायेंगे’ - ऐसा विचार कर ज्ञानीजनों की उपेक्षा कभी मत करो क्योंकि शास्त्र में शब्द हैं उनके अभिप्राय को ज्ञानी गुरुओंं के बिना कैसे ग्रहण कर पायेगा ? अपनी कल्पना से विपरीत अर्थ ग्रहण करने पर अहित ही होता है ।
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‘परिग्रह के त्याग के लिए मेरी सत्ता-ज्ञान-सुख-प्रभुता आदि पर से निरपेक्ष हैं’ - ऐसा समझ कर बारम्बार निरपेक्ष स्वभाव की भावना भाना चाहिए ।
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परिग्रह के बढ़ने से दुःख ही बढ़ता है ।
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निर्ग्रन्थों की स्वरूप में परिणति स्थिर न रहने पर बाह्य में स्वरूप के लक्ष्यपूर्वक ही सीमित और सम्यक प्रवृत्ति (गमन, बोलना, आहार, आदान-निक्षेपण और मलादि के त्यागरूप) होती है, वही समीति कहलाती है ।
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दुःख से डरने वाले जीवों को परिग्रह का त्याग पुरुषार्थ पूर्वक करना चाहिए ।
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लौकिक जीव परिग्रह की वृद्धि में पुरुषार्थ मानते हैं, ज्ञानी तो परिग्रह के त्याग में पुरुषार्थ समझते हैं ।
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बहिरात्मा केवल बाह्य त्याग में ही संतुष्ट हो जाते हैं, ज्ञानी अंतरंग कषायों के त्याग के लिए उद्यमी रहते हैं ।
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परिग्रह का संचय पुण्याधीन है परन्तु परिग्रह का त्याग तत्त्वज्ञान के अभ्यास से सहज हो जाता है ।
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आत्मसाधना के लिए ज्ञानी समस्त परिग्रह का त्याग हर्ष पूर्वक करते हैं उन्हें निर्ग्रन्थ दशा आश्चर्य उत्पन्न नहीं करती अपितु विशेष आनन्ददायक होती है ।
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निर्ग्रन्थों के आनन्दमय जीवन के स्मरण मात्र से ज्ञानियों को हर्षमय रोमांच होता है । उनका अंतरंग निर्ग्रन्थ दशा प्रगट करने के लिए पिंजड़े के पक्षी की भाँति छटपटाता है ।
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स्वरूप में तृप्तिपूर्वक मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से पूर्णतः निवृत्ति ही सम्यक गुप्ति है ।
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अनाहारी स्वभाव के आराधक और अनाहारी दशा के साधक योगी एषणा समितिपूर्वक आहार करते हुए भी अंतरंग से अनाहारी रहते हैं ।
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परमागम के अर्थों का चिन्तन करने वाले जितेन्द्रिय निर्ग्रन्थ योगिजनों को गुप्ति सहज ही होती है । उन्हें स्वरूप तृप्तता रहने से दुर्विकल्प सहज ही नहीं होते । बोलने और करने से वे सहजपने ही निवृत्त रहते हैं ।
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कायाश्रित दुर्भावों से निवृत्त शुद्धात्मा को भाने वाले योगिजनों को परमार्थ कायोत्सर्ग होता है ।
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परम जितेन्द्रिय निर्ग्रन्थ मुनिश्वरों का निर्विकारी चित्त (अन्तरंग) भी ज्ञानीजनों के द्वारा वंद्य होता है ।
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जिसके बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कोठार में रखे बीज के समान सफल नहीं होते - ऐसा वीतरागभाव रूप जैनाचरण (जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा हुआ आचरण) सहज नमनीय है ।
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स्वात्मचिन्तनपरायण जीव जगत से सहज उदासीन रहते हैं ।
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मनुष्यादि पर्यायों एवं मोहादि दुर्भावों से भेदज्ञानपूर्वक सहज ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मा को भाते हुए योगी मध्यस्थ हो परम चारित्र को प्राप्त होते हैं ।
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स्वात्मनिष्ठ योगी की परिणति सहज ही अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करती अतः उन्हें सदा प्रतिक्रमण वर्तता है ।
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निज कारण परमात्मा की सम्यक भावना न भाता हुआ, अपराधी होता हुआ संसार में दुःखी रहता है ।
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शुद्धात्मस्वरूप अनुभवता हुआ जीव सहजमुक्त होता है ।
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परमार्थ से शुद्धात्मा की आराधना के अतिरिक्त सर्व विकल्प अपराधरूप हैं ।
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उन्मार्ग विपरीत मार्ग है । अपवाद मार्ग उत्सर्ग सापेक्ष होने से उन्मार्ग नहीं है । इसी प्रकार व्यवहार मार्ग भी जिनेन्द्र देव द्वारा कहा होने से तथा प्रशस्त राग रूप होने पर भी रागादिक का पोषक न होने से उन्मार्ग नहीं है ।
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व्यवहार रत्नत्रय परमार्थ रत्नत्रय का निमित्त होने से मोक्ष का कारण उपचार से कहा जाता है परन्तु परमार्थदृष्टि के बिना व्यवहार में ही सन्तुष्ट हो जाने वाला जीव तो संसार में ही भ्रमता है ।
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जो अन्तर्द्वन्द से रहित होता है वह समस्त उपद्रवों से रहित होता है ।
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जिसका चित्त आत्मा में लगता है उसका चित्त किसी बाह्य पदार्थ में नहीं लगता । अतः उसे सहज प्रत्याख्यान (त्याग) वर्तता है ।
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त्याग के विकल्प शुभभाव हैं और त्याग शुद्धभाव है, धर्म है, स्वरूप है, सहजानन्दमय है ।
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जैसे विवाह होने पर परस्त्री का सहज त्याग हो जाता है । वैसे ही स्वरूपनिष्ठ हो जाने पर परभावों का सहज त्याग हो जाता है ।
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‘ज्ञान ही शरण है’ का तात्पर्य ज्ञान में प्रतिष्ठित (लीन) ज्ञान सहज आनन्दमय होने से ज्ञानी को परावलम्बन की आवश्यकता ही नहीं होती । अशरणपना भासित ही नहीं होता ।
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मोह अर्थात शरीरादि परद्रव्यों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्त्वादि भासित होना तभी छूट सकता है जब जीव पर से भिन्न स्वरूप की पहिचानपूर्वक स्वरूप की ही भावना भाते-भाते स्वरूप में ही एकाग्र हो जाये ।
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प्रबल आत्मभावना ही मोह के नाश का सम्यक उपाय है ।
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जैसे आत्मा से रहित देह निस्सार है वैसे ही जिस ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा), चारित्र, तप में आत्मा नहीं है अर्थात जो ज्ञान आत्मा को नहीं जानता, जो श्रद्धा आत्मा का श्रद्धान नहीं करती, जिस चारित्र में आत्मभावना, आत्मध्यान (एकाग्रता, लीनता) नहीं है, जिस तपश्चरण में आत्मा के अतिरिक्त किसी अन्य इच्छापूर्ति का अभिप्राय है वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि निस्सार ही समझना चाहिए ।
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मात्र दोषों को स्वीकार करने, उनकी निन्दा एवं गर्हा करने से परमार्थ आलोचना नहीं होती । भेदविज्ञान पूर्वक निर्दोष स्वरूप की भावना भाते हुए उसी में लीन हो जाने से ही निर्दोष परिणति प्रगट होती है और दोषों का आविर्भाव ही नहीं होता, यही परमार्थ आलोचना है ।
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दोषों का स्वीकार, निंदा, गर्हा आदि विशुद्ध परिणामों का द्योतक है तथा विशुद्धता को ही बढ़ाने वाला है । अपने दोषों को स्वीकार ही न करने वाला जीव तो तीव्र कषायी है ।
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स्वरूपलीनता रूप परिणाम ही परमार्थ प्रत्याख्यान (त्याग) है क्योंकि स्वरूपलीन योगिजनों को अनन्तकाल में भी दोष उत्पन्न नहीं होते । दोषों एवं दोषों के निमित्तभूत बाह्य विषयादि का त्याग करना तो व्यवहार प्रत्याख्यान है ।
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निजस्वरूप की भावना भाते हुए आनन्द का वेदन करते हुए ज्ञानी का उपयोग भूतकाल की ओर स्वयमेव नहीं जाता । अतः स्वरूप ध्यानी को सहज प्रतिक्रमण होता है ।
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समस्त आधि-व्याधि और उपाधियों से रहित सहज समाधिस्वरूप परम ज्ञानानन्दमय शुद्धात्मा की भावना पूर्वक होने वाली स्वरूपमग्नता ही परमार्थ समाधि है ।
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समाधि अर्थात स्वरूप भावना पूर्वक देह छूट जाना ही समाधिमरण है ।
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समताभाव का अनुसरण करती हुई आत्मसम्पदा ही वास्तव में योगीजनों का विषय है वे उसी में सन्तुष्ट रहते हैं और उसी में मग्न रहते हैं, अतः उन्हें बाह्य सम्पदाएँ किंचित भी राग उत्पन्न नहीं करती ।
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अहो ! सहज उदासीनतामय ज्ञानीजनों का जीवन ही वास्तविक जीवन है ।
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समाधि के अभिलाषी मुमुक्षुओं को परिग्रह के त्यागपूर्वक निरन्तर भेदविज्ञान आत्मभावना ही भाने योग्य है ।
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साम्यभाव के बिना समस्त शास्त्राभ्यास, व्रत, तपश्चरण, वनवास आदि जीव को किंचित भी सुख नहीं देते ।
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शुद्धात्मा ही परम सुख का मन्दिर है ।
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सहज वैराग्य ही अमृत है । राग से भिन्न अपने स्वरूप को अनुभवने वाला सहज वैराग्यवान जीव कुमरण को प्राप्त नहीं होता और पूर्ण वीतरागी जीव जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है ।
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शुद्ध चैतन्य तत्त्व में संसार नहीं है अतः शुद्ध चैतन्य तत्त्व की भावना ही संसार नाश का सम्यक उपाय है ।
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परमानन्दमय शुद्धात्मा में दुःख नहीं है अतः इच्छा नहीं है । अतः इच्छारूप रोग की श्रेष्ठ औषधि शुद्धात्म-भावना ही है ।
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बुद्धिमान होने पर भी दूसरों को पापरूप लौकिक कार्यों का उपदेश देते हैं अथवा उनकी अनुमोदना भी करते हैं, वे तपस्वी कैसे हो सकते हैं ।
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पराश्रित चिन्तन संसार को ही बढ़ाता है ।
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प्रचुररूप से निर्विकार चित्त हो जाना ही परमार्थ प्रायश्चित्त है और अविकारी परम तत्त्व की भावना ही उसका उपाय है ।
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थोड़े से लोभ के कारण जीव को भारी दुःख सहने पड़ते हैं ।
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शुद्धात्मा अनघ (निष्पाप) तत्त्व है अतः आत्मा के आश्रय से समस्त पाप और पापों से उत्पन्न दुःख सहज ही मिट जाते हैं ।
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सर्व जीवों को, सर्वत्र, सदाकाल, सर्वथा निज शुद्धात्मा ही उपादेय है ।
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निज कारण परमात्मा के समीप रहने वाले साधक के राग-द्वेष के निमित्त होने पर भी राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते ।
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स्वरूपनिष्ठ जीव निरन्तर आनन्दरत रहते हैं ।
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निज परमात्मतत्त्व के सम्यक श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप रत्नत्रय परिणाम ही परम भक्ति है, वही आराधना है तथा रत्नत्रय एवं उसके धारकों के प्रति बहुमान, अनुराग रूप प्रवृत्ति व्यवहार भक्ति है ।
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समस्त दोषों से रहित सिद्धत्व शुद्धोपयोग का फल है ।
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भेद विकल्पों का अभाव होने पर अनुत्तम योग भक्ति होती है । वही योगियों को आत्मोपलब्धिरूप मुक्ति का कारण है ।
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इन्द्रिय लोलुपता निवृत्ति होने और तत्त्वलोलुप चित्त होने पर सुन्दर आनन्द झरता हुआ तत्त्व प्रगट होता है ।
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बाह्य प्रपंचों में सुख मानकर मग्न रहने वाले जीव को भक्ति नहीं होती ।
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विकल्पों के अभाव की भावना वाले जो योगी परम निर्विकल्प निज भाव में उपयोग लगाते हैं । उन्हें ही परमार्थ भक्ति होती है ।
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भक्ति विकल्पों के अभाव के लिए है, न कि विकल्पों की पूर्ति के लिए ।
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सांसारिक सुखों के प्रति निस्पृही, मात्र मुक्ति के प्रति स्पृहा (अभिलाषा) वाले जीवों को निज अनघ तत्त्व ही भाने योग्य है ।
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स्वानुभवजनित आनन्द को वेदते हुए तृप्त एवं संतुष्ट रहने वाले स्ववश योगी किसी अन्य (शरीर, इन्द्रियों, विषयों, परिग्रह, समाजादि) के वश न होने से अवश कहलाते हैं । उनके स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान ही परम आवश्यक कहलाता है । यही साक्षात धर्म है ।
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स्ववश मुनीश्वर ही सद्धर्मरक्षामणि हैं । सम्यक तप ज्ञानीजनों को प्राणों से भी अधिक प्रिय है अर्थात प्राणों के जाते हुए भी ज्ञानी तप को नहीं छोड़ते ।
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आत्माराधना को छोड़कर ब्रह्मनिष्ठ योगी अन्य चिन्ता नहीं करते ।
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जैसे ईंधन से अग्नि बढ़ती है वैसे ही चिन्ता से संसार अर्थात दुःख बढ़ता है ।
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निष्काम परिणति के धारक, पंचाचारों से शोभायमान अवंचक गुरुओं के वचन ही मुक्ति के कारण होते हैं ।
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स्वरूप से चलित होने पर सर्व दोषों का प्रसंग बनता है । अतः स्वरूपलीनता का पुरुषार्थ ही करने योग्य है ।
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निश्चय और व्यवहार आवश्यकों से रहित स्वात्मा से भ्रष्ट जीव को बहिरात्मा ही समझना चाहिए । जैसे कोई विवेकी दरिद्री व्यक्ति निधि को प्राप्त कर घर में गुप्त रहकर उसे भोगता है वैसे ही विवेकी जन ज्ञाननिधि को प्राप्त कर स्वरूप में गुप्त रहते हैं ।
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सकल कर्मों के प्रलय का हेतु शुद्ध उपयोग ही है ।
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अविरुद्ध स्याद्वाद विद्या ही सज्जनों द्वारा आराधने योग्य है ।
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अल्प भी अभिमान बहुत हानि करता है ।
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स्वभाव से ही महान आत्मा में व्यवहार प्रपंच (विस्तार) है ही नहीं ।
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आत्मा ज्ञानस्वभाव है और स्वभाव की प्राप्ति अच्युति है । अतः अच्युति (मोक्ष) के अभिलाषी को ज्ञानभावना भाना चाहिए ।
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तत्त्वज्ञान का सजगतापूर्वक अभ्यास ही आत्मशान्ति का सम्यक उपाय है ।
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तत्त्वज्ञान के बिना असीम वैभव भोग और अनुकूलताओं में भी दुःख है और तत्त्वज्ञान होने पर असीम प्रतिकूलताओं में भी सहज शान्ति ।
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पर को अपना समझना तो अपराध है ही । विकारी भावों, क्षणिक पर्यायों में अपनत्व होना, अभेद आत्मा में गुणादि के भेदोंमें भी अटकना अपराध ही है । अनन्तधर्मात्मक एकत्व की निर्विकल्प अनुभूति ही आनन्दमयी निरपराध दशा है, पारमेश्वरी प्रवृत्ति है ।
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विभिन्न लक्षणों वाले अनेक सत् एक साथ होने पर भी एक नहीं हो जाते ।
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सहजज्ञानमय साम्राज्य का अधिपति, प्रीति-अप्रीति रहित, शाश्वत, नभमण्डल समान अकृत, चैतन्यामृत से परिपूर्ण शुद्ध निज पद ही उपादेय है ।
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मिथ्या शंका की एक चिनगारी ही जीवन को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है । अतः शंका होने पर समाधान के लिए निर्णय की प्रक्रिया अपनाना चाहिए ।
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हे वीतराग सर्वज्ञ परमात्मन ! आप हमारे सर्वस्व है ।
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सर्वोत्कृष्ट स्वामी ध्रुव शुद्धात्मा की प्राप्ति के निमित्तभूत होने से आप ही हमारे सच्चे स्वामी हैं । व्यवहारतः आराध्य हैं, साध्य हैं, ध्येय हैं, अकर्ता होते हुए भी प्रकर्ता हैं । भिन्न द्रव्य होते हुए भी परमानन्दमय स्वद्रव्य को दर्शाने वाले होने से मुक्तिमार्ग प्रदर्शक हैं । निरावलम्बन अथवा स्वावलम्बन की प्रेरणा करने वाले होने से हस्तावलम्बन हैं ।
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आपके दर्शन एवं दिव्य उपदेश से ही देहादि से भिन्न अपना अस्तित्व, स्वरूप, ज्ञान, सुख, प्रभुता सामर्थ्य, साध्य, साधनादि सब सबज दिखने लगता है । शुद्धात्मा की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य बन जाता है । देहादि की भिन्नता, भोगों की असारता, विकल्पों का दुःख सहज समझ में आता है ।
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अहो ! कैसी अलौकिक एवं अद्भुत दशा है जो भव्यों को सहज ही दिशा निर्देश कर रही है । आराध्य भी अन्तर में और आराधन भी अन्तर में, साध्य भी अन्तर में और साधन भी अन्तर में । सर्वोत्कृष्ट तृप्ति एवं संतुष्टि । अक्षय कृतकृत्यता, पूर्णता, कुछ प्रयोजन शेष ही न रहा । कल्पनाओं के लिए अवकाश ही नहीं, सर्व प्रत्यक्ष भासित हो रह है ।
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जैसे झरोखे से झाँकने वाले को अखण्ड आकाश नहीं दिखता वैसे ही इन्द्रिय ज्ञान से अखण्ड स्वरूप नहीं जाना जाता ।
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आत्मार्थ का लक्ष्य बना कर सम्यक पुरुषार्थ करे तो इस विषम काल में भी आत्मोपलब्धि होती ही है ।
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शरीर और विषयों में मूर्च्छित होकर दुर्लभ अवसर खोना अविवेक ही है ।
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क्षणभर का भी दुरुपयोग असीम दुःख का कारण है । समय जाने के बाद पश्चाताप ही शेष रह जाता है ।
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लौकिक संयोगों में चित्त न लगना, आत्माराधना के लिए वहाँ से छूटने के लिए छटपटाहट रहना आत्मार्थी का लक्षण है ।
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सत्समागम रूप कल्पवृक्ष को पाकर भी दुःखी रहे और तत्त्वाभ्यास करके आत्मानुभव न करे तो मूढ़ ही है ।
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वस्तु स्वरूप नहीं बदलता अतः विपरीत दृष्टि (मान्यता) छोड़कर आत्मार्थ साधें ।
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आत्मा के आश्रय से तो देहादि परद्रव्यों में प्रीति छूटती ही है । देहादि के भी अंतरंग स्वरूप का विचार करने पर देहादि प्रीति करने लायक नहीं दिखती ।
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आत्महित के लिए अनुकूलता की प्रतीक्षा ही न करते रहें ।
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लक्ष्य का स्मरण प्रमाद जीतने का सही उपाय है ।
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त्वचा रहित शरीर का विचार विचार करने से शरीर से होने वाली वासना मंद होती है परन्तु वासना का अभाव तो आत्मज्ञान पूर्वक ही होता है ।
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सम्यग्ज्ञान पूर्वक होने वाल वैराग्य ही सुखरूप और सुख का कारण है ।
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अल्प भी पठन या श्रवण करके इस प्रकार विचार करना जिससे सम्यक निर्णय पूर्वक साध्य की ओर बढ़ा जा सके ।
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बाह्य प्रवृत्ति को उपाधिरूप समझ कर घटाने का प्रयत्न करना ।
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बाह्य में उलझते जाने से आत्महित का घात ही होता है ।
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फल का विचार कर दुर्भावों का या दुष्कृत्यों का त्याग करें ।
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दुर्वचन स्व-पर के लिए अनर्थकारक ही हैं ।
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मिथ्यात्व, विषय, कषाय एवं प्रमाद के पोषक सर्व विचार, वचन एवं चेष्टाएँ त्याज्य हैं ।
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हे आत्मन ! अनादि से देह की ममता और विषयों की आसक्ति से अपना घात करते रहे । अब उत्तम जिनोपदेश को पाकर आत्मार्थ के लिए इनसे विरक्त होओ ।
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बाह्य में अधिक परिचय एवं प्रवृत्ति को बाधक ही समझें ।
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स्वच्छन्दता मरण से भी अधिक क्लेशकारी है ।
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परिग्रह के प्रति आकर्षण एवं सम्मान की भावना अनर्थ का कारण है ।
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ज्ञान वही सार्थक है जो परमार्थ को साधे ।
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ब्रह्मचर्य के प्रताप से अनेक प्रकार के आरम्भ एवं परिग्रह से सहज ही बच जाते हैं ।
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लौकिक दृष्टि से परमार्थ समझा भी नहीं जाता, प्राप्त होना तो असम्भव ही है ।
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अपने अल्पज्ञान में मरण का काल अनिश्चित होने से सदैव भेदज्ञान में तत्पर रहना और यथासम्भव उपाधियों से बचना, गुप्त रहना ही श्रेयस्कर है ।
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अधीरता एवं विपरीत कल्पनाओं से बहुत अहित होता है ।
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महग्रन्थि के भेदन के लिए निरन्तर सत्समागम और तत्त्वविचार आवश्यक है ।
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भली प्रकार विचार पूर्वक कम बोलने से प्रायः पश्चाताप नहीं करना पड़ता ।
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पुण्योदय में बाह्य संयोग इच्छा के अनुकूल भी दिखें परन्तु वे अध्रुव और अशरण हैं ।
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निर्दोष लोकव्यवहार रूप प्रवृत्ति में भी ज्ञानी को लज्जा आती है ।
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जिनवचनों का विचार करने से संसार की प्रीति छूटती ही है ।
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साधर्मीजनों को परस्पर ज्ञान वैराग्यमय चर्चा ही करना चाहिए ।
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तृष्णावान व्यक्ति की अन्तरंग पीड़ा वचनातीत है ।
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अहंकार, कुटिलता एवं मिथ्या संतोष को छोड़कर निरन्तर ज्ञानाभ्यास करते रहना ही श्रेयस्कर है ।
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किसी पक्ष का हठ ग्रहण कर भ्रम से सम्यक्त्वी मान लेने से सम्यक्त्व दुर्लभ हो जाता है ।
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आत्मार्थी होकर, पूर्ण निवृत्ति की भावना निरन्तर भाना योग्य है ।
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भवितव्य का पक्षपाती होकर मूढ़ प्रमादी या स्वच्छन्द नहीं होना । भवितव्य का सम्यक विचार कर धर्म धारण करना ।
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राग-द्वेष छोड़कर ज्ञानाभ्यास पूर्वक समता रखना ही योग्य है ।
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सांसारिक प्रपंचों एवं इन्द्रिय विषयों से पुरुषार्थ पूर्वक दूर रहना ही श्रेयस्कर है ।
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सिद्धान्तों की उपेक्षा करके मिथ्या व्यवहारों में न फँसें ।
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अज्ञान और अभिमान से बड़े शत्रु दूसरे नहीं हैं ।
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ब्रह्मचर्य भंग करना, असीम दुःखों को निमन्त्रण देना है ।
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जहाँ सत्-असत् का विवेक जगे । असत् से निवृत्ति एवं सत् में प्रवृत्ति की प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं सहयोग मिले वही सत्संग है ।
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समान वय, बुद्धि, पद आदि वाले साधर्मीजनों में होने वाले मात्सर्य को जीतना अत्यन्त आवश्यक भी है और दुष्कर भी ।
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वाद-विवाद से बचते हुए आत्महित में सावधान रहना चाहिए ।
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जिनोपदेश श्रवण का फल कुबुद्धि का अभाव होना है ।
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दूसरों के गुण-दोषों से तुम्हें क्या लाभ-हानि ? तुम तो अपने दोषों के अभाव और गुणों की प्रगटता का उद्यम करो ।
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साधर्मीजनों में यथायोग्य वात्सल्य न होना मिथ्यात्व का द्योतक है, बहुत पापबन्ध का कारण है ।
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वस्तु को अपेक्षा रहित नित्यानित्य मानना भी मिथ्या है ।
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व्यर्थ के वाद-विवादों से दूर रहने में ही भला है ।
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मरण से डरने पर भी मरण अवश्यम्भावी है अतः ज्ञान-वैराग्यपूर्वक देह छोड़ने को महोत्सवरूप समझो ।
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जब परद्रव्य का इन्द्रियादि से होने वाला ज्ञान भी हेय है तब परद्रव्य और परद्रव्यों के आश्रय से होने वाले मोह-रागादि तो हेय होंगे ही ।
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हे भव्य ! तुम जन्म-मरण से भयभीत क्यों होते हो ? तुम तो अनादि अनन्त आत्मा हो ।
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सर्वज्ञ भगवान द्वारा दर्शायी द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक स्वभाव की प्रकाशक पारमेश्वरी व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ एवं परम सत्य है उसे भली प्रकार समझकर तुम आत्महित में सावधान होओ ।
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~ शुद्ध चिद्रूप ही लोकोत्तम मंगल तत्त्व है ।
~ शुद्ध चिद्रूप का श्रद्धान ही लोकोत्तम मंगल श्रद्धान है ।
~ शुद्ध चिद्रूप का अनुभव ही लोकोत्तम मंगल ज्ञान है ।
~ शुद्ध चिद्रूप की निर्विकल्प भावना ही लोकोत्तम मंगल चारित्र है ।
~ शुद्ध चिद्रूप का स्मरण ही लोकोत्तम मंगल स्मरण है । -
जिनसूत्र के विरुद्ध उपदेश देने वाले का प्रेम, क्षमा आदि भी मिथ्यात्व आदि दोषों के पोषक होने से त्याज्य हैं ।
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जैसे अग्नि में पक जाने पर घड़ा अमृत (जल) धारण में समर्थ होता है वैसे ही ज्ञान-ध्यान द्वारा परिपक्व जीव अमृतत्व (मोक्ष) का पात्र होता है ।
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दुराग्रही जीव तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हेतु अपात्र है ।
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जैसे कोई जिज्ञासु इष्ट कार्य को एकाग्रता एवं सूक्ष्मता पूर्वक देखता है । वैसे ही मोक्षार्थी को जिनमुद्रा एकाग्रता एवं सूक्ष्मता पूर्वक देखना चाहिए एवं जिनोपदेश सावधान होकर सुनना चाहिए यह प्रथम कर्तव्य है ।
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शुद्धात्मानुभव रहित बाह्य आगम, व्याकरण, न्याय साहित्य आदि का ज्ञान लक्ष्य रहित बाण के समान निरर्थक है ।
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गुप्त पाप बहुत काल तक शरीर में लगे शूल की भाँति जीव को पीड़ा देता रहता है ।
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मैं किसी का नहीं और मेरा कोई नहीं, ऐसी भावना से क्रोधादि शमित होते हैं ।
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जब परिणति बाह्य प्रपंचों, शरीर और विषयों की अनुकूलताओं से विरक्त होकर ज्ञानाभ्यास में लगे तभी कल्याण सम्भव है ।
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जैसे आकाश को मुट्ठियों से मारना, चावलों के लिए तुषों को कूटना, तेल के लिए बालू (रेत) पेलना, घी के लिए जल को बिलोना निरर्थक है वैसे ही असाता के उदय में दुःखी होना, रोना, दीनता के वचन बोलना आदि महाक्लेशकारी है ।
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यह तो निश्चय का कथन है, शक्ति, स्वभाव की अपेक्षा ऐसा है, सर्वथा नहीं । ऐसा विचार कर उसका निषेध नहीं करना व्यवहार का पक्ष पुष्ट नहीं करना । अपितु व्यवहार को गौण कर निश्चय के पक्ष में आकर अभ्यास करते हुए पक्षातिक्रान्त होने का उद्यम करना ही श्रेयस्कर है ।
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मैं चित्स्वरूप, सुखस्वरूप, परमात्मस्वरूप, मुक्तस्वरूप हूँ - ऐसा बारम्बार लक्ष्य करते हुए दुर्विकल्पों से विरक्त होकर निर्विकल्प होने का उद्यम करना ।
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सम्यक प्रकार से अभ्यास किए बिना जीव जैसे व्यवहार का पक्ष पकड़कर व्यवहाराभासी हो जाता है, वैसे ही शुष्कता से निश्चय के पक्ष का ग्रहण कर निश्चयभासी और अभिमान से दोनों का समझौता करते हुए दोनों पक्ष वालों को राजी करने के लिए भ्रमपूर्वक दोनों को (अपेक्षा न समझकर) एक समान सत्य मानता हुआ उभयाभासी हो जाता है ।
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शास्त्र में सम्यक् प्रकार लगी बुद्धि मुक्ति की दूती के समान है ।
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विनयपूर्वक अभ्यासा हुआ ज्ञान कदाचित विस्मृत भी हो जाए तो भी पुनः स्मरण में आकर कल्याण का निमित्त बन जाता है और मिथ्याभिमान से प्राप्त ज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।
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पर के परिचय को आकुलता का कारण जानकर विरक्त हो प्रयत्नपूर्वक आत्म-परिचय कर ।
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दूसरों के मरण सम्बन्धी शोक छोड़कर स्वयं के कुमरण को टालने का उद्यम करो ।
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हे भव्य ! तुम कारण-कार्य की मर्यादा को पहिचानो और सुखरूपी कार्य का कारण साम्यभाव की आराधना करो ।
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परम जितेन्द्रिय होकर आत्मानुभव करना ही सहज मुक्तिमार्ग है ।
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शुद्धात्मा ज्ञान की एकाग्रता रूप ध्यान के द्वारा उपलब्ध होता है । तत्त्वश्रवण आदि तो बाह्य उपाय हैं । अतः तत्त्व निर्णय पूर्वक आत्मध्यान का अभ्यास करो ।
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शुद्धचिद्रूप की आराधना ही जिनाज्ञा का पालन है ।
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बाह्य लक्ष्मी भी दुरुपयोग से घटती है, दानादि से नहीं ।
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योग्य काल में योग्य भूमि में बोये गये बीज जैसे वृक्ष होने पर उसकी छाया, फूल, फलादि स्वयमेव होते हैं वैसे ही श्रेष्ठ पात्रों को योग्य रीति से योग्य समय पर दिया दान जीवों को सुखकारी होता है ।
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जैसे रत्नदीप से काष्ठ, पाषाण ले आए तो मूर्ख कहा जाता है, वैसे ही मनुष्यभव में यह उत्तम सुयोग पाकर भी परिग्रह ही संग्रह करता रहे, तत्त्वज्ञान न करे तो मूढ़ ही समझना ।
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गुरुजनों की संगति में मोह मानादि दुर्भाव मंद होते हैं । विनय, विशुद्धि, ज्ञान, वैराग्यादि गुण उपजते और वृद्धिंगत होते हैं ।
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आत्मार्थी को शरीरादि के प्रति द्वेष नहीं, भेदज्ञानपूर्ण उपेक्षा रखनी चाहिए ।
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कामादि कषायों की तीव्र पीड़ा भी आत्मभावना के प्रभाव से सहज नष्ट हो जाती है ।
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कुतर्क ज्ञान, श्रद्धा, शान्ति का घातक तथा मानादि दोष का पोषक, कलह का कारण भयंकर मानसिक रोग है ।
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विषय-कषायों का पोषक पापरूप तथा संदेहयुक्त कथन न करना चाहिए, न सुनना ।
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भोले जीवों को प्रायः खोटे निमित्तों का प्रसार करते हुए प्रयत्न पूर्वक रोकना चाहिए । सामर्थ्य न होने पर माध्यस्थ भाव रखें ।
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धर्मोपदेश के काल में भी स्वयं को ही मुख्यरूप से सम्बोधन करें ।
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स्वरूप प्राप्ति को कठिन कहकर उसके प्रयत्न से विमुख करने वाले शत्रु के समान हैं ।
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चर्म चक्षुओं से भी जिनदर्शन महा हर्ष उत्पन्न करता है । तब ज्ञानचक्षु से किए गये ज्ञानमयी दर्शन से मुक्ति का द्वार क्यों नहीं खुलेगा ?
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कामादि कषायों की पीड़ा अत्यल्प है परन्तु उनके कारण होने वाली विषयों में प्रवृत्ति भव-भव में कष्टकारी है ।
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जो दूसरों पर आक्षेप, दूसरों से ईर्ष्या, दूसरों की निन्दा व हँसी, दूसरों का तिरस्कार आदि और अपनी प्रशंसा नहीं करता तथा सभी से प्रेमयुक्त व्यवहार वाला है, वह सज्जन है ।
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प्रशंसा न करने पर भी जो गुण हैं वे तो रहते ही हैं । प्रशंसा करने पर भी जो गुण नहीं हैं वे हो नहीं जाते । तब पुण्य को नष्ट करने वाली पापोत्पादक मिथ्या आत्मप्रशंसा से क्या लाभ ?
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प्रयोजन की सिद्धि स्वरूप साधना से होती है, विषयों में प्रवृत्ति से नहीं ।
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जहाँ धर्म का नाश होता हो, क्रिया बिगड़ती हो, समीचीन सिद्धान्त का लोप होता हो, वहाँ सज्जनों को बिना पूछे भी बोलना चाहिये ।
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धर्माराधन में सहायक पुरुष कल्पवृक्ष से भी अधिक उपकारी है ।
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मोहीजनों की संगति में सावधान रहें क्योंकि वहाँ प्रायः विषय-कषाय, शिथिलाचार एवं दोषों का पोषण होता है ।
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सम्यग्दर्शन मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है, अन्तिम नहीं । अतः किसी पक्ष विशेष को ग्रहण कर अपने को भ्रम से सम्यग्दृष्टि मान कर अहंकारी, प्रमादी या स्वच्छन्द नहीं होना ।
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मुक्तिमार्ग का आधार जिनमत है, बहुमत नहीं ।
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हर परिस्थिति में समता बनी रहना ही साधना की सफलता है ।
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विषयों से विरक्त और देह से भी निस्पृह होने पर ही आराधना सम्भव है ।
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तत्त्वज्ञान के बिना वैराग्य और वैराग्य के बिना ज्ञान की सुरक्षा नहीं ।
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गृहस्थ जीवन की सफलता के लिए श्रावकाचार का पालन और भेदज्ञान का अभ्यास निरन्तर रखें ।
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कर्मफलों को भोगना हमारी मजबूरी नहीं, अज्ञानता है ।
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सत्संगति हमारी विपरीतदृष्टि एवं वृत्ति को दूर करने के लिए है । वहाँ भी विषय-कषायों का पोषण करना महा अविवेक ही है ।
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व्यवहार में अहंकार करने से परमार्थ का तिरस्कार एवं शुभोपयोग में अहंकार करने से शुद्धोपयोग का तिरस्कार होता है ।
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तत्त्वभावना ही सुख का एकमात्र साधन है, परभावों से पृथक अनन्त धर्मात्मक चित्स्वरूप आत्मा को प्रमाणित करता हुआ ज्ञान अंतरंग में तथा निरूपित करती हुई स्याद्वादमयी जिनवाणी जगत में सदा जयवन्त वर्ते ।
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कषायें प्रायः विषयों की पूर्ति के लिए होती हैं ।
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भेदविज्ञान के बिना जीव सम्यक समाधि का पात्र नहीं होता ।
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आगम के अर्थ की भावना व्यवहार ज्ञानाराधना है ।
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भावविशुद्धि के बिना सम्यक चारित्र नहीं होता ।