अमृत वचन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’ | Amrut/Amrit Vachan

  1. दुर्जन अगर मीठा बोले तो भी उस पर विश्वास मत करो क्योंकि उसकी बोली में गुड़ और ह्रदय में विष है ।

  2. जो बदला लेने की सोचता है वह अपने घावों को कुरेदते हुए हरा-भरा रखता है, नहीं तो वे सहज भर कर अच्छे हो जावें ।

  3. हे भव्य ! अपने में सिद्धत्व की स्थापना करो अर्थात यथार्थ निर्णयपूर्वक अन्तर्मुख हो सिद्धस्वरूप अनुभव करो, स्वीकार करो तथा मोहोदय से आ जाने वाले अन्य विकल्पों को निषेधते हुए सिद्धस्वरूप को ही भाओ और सिद्धस्वरूप में ही एकाग्र होओ, संतुष्ट हो जाओ, रम जाओ, लीन हो जाओ… ।

  4. अपने को ध्रुव मानो तब अध्रुव पर्यायों और संयोगों में ममत्व स्वयमेव नहीं होगा । तब दुःख भी सहज ही नहीं होगा ।

  5. अचलपने के अनुभवन से आवागमन स्वतः मिट जायेगा । अनुपम देखने से दूसरों से तुलना करने पर उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, हीनता या अभिमान आदि दुर्भाव कैसे आ सकते हैं ?

  6. समझने, विचारने, प्रतीति करने, भाने और ध्याने योग्य शुद्धात्मा ही है ।

  7. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्ता स्वरूप, ज्ञानदर्शनमयी चेतना स्वरूप, अनन्तधर्मस्वरूप, गुण-पर्यायवान जीव है ।

  8. वस्तु अन्य द्रव्यों के साथ एक क्षेत्रावगाही होने पर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ती ।

  9. सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्थित रहते हुए भी शोभते हैं ।

  10. एकत्व-विभक्त वस्तु का स्वरूप भी है और सौन्दर्य भी ।

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  1. अकेले में जो भय या दुःख की कल्पना होती है वह देह को मिलाकर अकेला देखने के कारण होती है । यदि देहादि से भिन्न एकाकी देखें तो आनन्दानुभूति ही हो ।

  2. एकत्व में बंधन नहीं अतः एकत्व में बन्ध की कथा भी विसंवाद है ।

  3. पर से भिन्न एक ज्ञायक भाव की उपलब्धि दुर्लभ है और यहाँ उसे प्राप्त करने के सर्व योग मिले हैं । अतः प्रमाद छोड़कर सम्यक पुरुषार्थ करना योग्य है ।

  4. महामोह रूपी भूत जीव से बैल की भाँति भार वहन कराता है ।

  5. तृष्णा अन्तर में दाह उत्पन्न करती है ।

  6. आगम के अभ्यास, गुरुओं के उपदेश, युक्ति के अवलम्बन से, तत्त्वों का निर्णय करके, स्वानुभव पूर्वक निज शुद्धात्मा देखने योग्य है ।

  7. सर्व जीवों में सिद्धत्व की स्थापना करो अर्थात किसी जीव को सर्वथा हीन समझ कर तिरस्कारादि मत करो । पर्याय में पामरता होने पर भी यथायोग्य वात्सल्य ही रखना श्रेयस्कर है ।

  8. अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से यह नहीं समझना कि आकाश कुसुम की भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा नहीं है । सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व होता है । अतः स्याद्वाद की शरण लेकर शुद्धनय का अवलम्बन लेना चाहिए ।

  9. व्यवहारनय अनार्य भाषा के समान अज्ञानियों के लिए प्रतिपादक होने से स्थापित करने योग्य है परन्तु जैसे आर्यपुरुष को प्रयोजनवश अनार्य भाषा बोलने पर भी अनार्य नहीं हो जाना चाहिए वैसे ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है ।

  10. जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं वे ही सम्यक अवलोकन करने से सम्यग्दृष्टि हैं ।

  1. व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ मानकर (एकान्त) शुद्धनय का पक्ष भी मिथ्यादर्शन ही है ।

  2. जहाँ तक शुद्धभाव की प्राप्ति नहीं हुई वहाँ तक जितना अशुद्धनय का कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है अर्थात किस भूमिका में किस प्रकार के परिणाम, क्रिया, उदय, प्रवृत्ति होती है उनके निवृत्त होते हुए ऊपर कैसे चढ़ा जाता है ऐसा सम्यकज्ञान होने से उन प्रसंगों में आकुलता, अधीरता आदि नहीं होती और भेदज्ञान का बल रहने से उनका पोषण भी नहीं होता ।

  3. स्याद्वाद शैली से कहे हुए जिनवचनों का आनन्द पूर्वक अभ्यास करते हुए जिनवचनों में कहे हुए परम उपादेयरूप निज शुद्धात्मा का आश्रय करने से मोह का अभाव होता ही है ।

  4. सर्वज्ञ देव की वाणी में कहा हुआ अनेकान्तमय आत्मा का श्रद्धान होने पर ही सम्यक्त्व होता है । उसके बिना मात्र चैतन्यस्वरूप ध्रुव आदि रूप की एकान्त श्रद्धा भी सम्यक्त्व नहीं है ।

  5. नव तत्त्वों की सन्तति (विकल्प) छूट कर शुद्धनय का विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो यह वीतराग अवस्था की भावना है नय पक्ष नहीं ।

  6. निज परमात्म तत्त्व के सम्यक श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान रूप शुद्ध रत्नत्रय परम निरपेक्ष होने से मुक्तिमार्ग है ।

  7. जीव प्रायः कंचन-कामिनी आदि में ही रत रहते हैं । जो जिनमार्ग को पाकर आत्मरत हो जाते हैं वे मुक्त होते हैं ।

  8. परम पारिणामिक स्वभाव अनन्तचतुष्टयात्मक शुद्धचेतना परिणाम कारण नियम है और शुद्ध रत्नत्रय कार्य नियम है । वह परावलम्बन से रहित और निःशेष रूप से अन्तर्मुख है ।

  9. शुद्ध जीवास्तिकाय अन्तःतत्त्व के विलास की जन्मभूमि है ।

  10. स्वरूप में शंका रहित जीव, समस्त दोषों से रहित अवश्य होगा ।

  1. भगवान के प्रति भक्ति से रहित जीव, संसार क्लेश को ही पाता है ।

  2. धर्मात्माओं के परिणाम परमार्थ दया और यथायोग्य व्यवहार दयायुक्त होते हैं, निर्दय, क्रूर या कठोर नहीं ।

  3. विषयों के निग्रह बिना तप नहीं होता । अपने विषय (स्वभाव) में तृप्त एवं बाह्य विषयों की अभिलाषा से रहित जीव ही सच्चे तपस्वी हैं ।

  4. जिनवाणी में नाना अपेक्षा से कथन होने पर भी पूर्वापर विरोध नहीं होता अर्थात कहीं वैराग्य और कहीं राग का पोषण नहीं होता ।

  5. सज्जन अपने प्रति किए उपकार को नहीं भूलते ।

  6. त्रिकाल-निरावरण-नित्यानन्दमय, एकत्वरूप निज कारण परमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्य परमात्मा अरहंत-सिद्ध कहलाते हैं ।

  7. जिनवाणी में पाप-क्रियाओं का निषेध है । अतः शुद्ध कहलाती है ।

  8. चरणानुयोग में जो अन्याय, संकल्पी हिंसा, असत् चोरी आदि पापों से उत्पन्न न हो वह शुद्ध कहलाती है । जैसे वही भोजन, वस्त्र, आजीविका आदि शुद्ध कहलाती है जो अन्याय से न कमाई गयी हो, जिसमें मिथ्यात्व एवं विषय-कषायों, हिंसादि का पोषण न हो और जो धर्मनिंद्य या लोकनिंद्यन हो ।

  9. काम-भोग सम्बन्धी रागरूपी अंगारों में संसारी, मोही, दीन प्राणी जल रहे हैं । जिनोपदेशरूपी मेघवर्षा उस चाहरूपी दाह को शान्त करने में समर्थ है ।

  10. सहजज्ञान शुद्ध अन्तस्तत्त्वरूप परम तत्त्व में व्यापक होने से स्वरूप प्रत्यक्ष है, वही उपादेय है ।

  1. आत्मा मुक्ति का नाथ होने से भाने योग्य है ।

  2. चैतन्य तत्त्व अव्यग्रता (निराकुलता) से भरा हुआ है । परिग्रह का त्याग एवं शरीर के प्रति उपेक्षा पूर्वक उसे भाना चाहिए ।

  3. भेदविज्ञान का सत्फल (प्रगट निर्मल ज्ञान ज्योति) जगत में मंगलस्वरूप है ।

  4. ‘सहजज्ञानरूपी साम्राज्य सम्पन्न शुद्ध चैतन्यमय आत्मा मैं हूँ’ - ऐसा जानने (अनुभवने) से निर्विकल्पता होती है अर्थात समस्त विकल्पों का अभाव होता है ।

  5. कारणदृष्टि सदा पावन है अर्थात कार्यदृष्टि (सम्यग्दर्शन) का श्रद्धेय अन्तरंग में विद्यमान है तर श्रद्धा करने की सामर्थ्य भी है ही । अतः अन्तर्मुख उपयोग में आत्मानुभव होने के काल में सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है ।

  6. सकल अर्थ की सिद्धि के लिए परम जीव तत्त्व ही भाने योग्य है ।

  7. सहजज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुखात्मक अन्तःतत्त्व स्वरूप के साथ वर्तती हुई पूजित पंचम भाव की परिणति कारण शुद्ध पर्याय है ।

अतः पंचमभाव का लक्ष्य करने पर ही सहज ही कार्यशुद्धपर्याय प्रगट होती है ।

  1. भेद-प्रभेद वस्तुस्वरूप के निर्णय में तो सहायक हैं परन्तु भेदों के लक्ष्य से स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती । अतः भेदों के अति विस्तार से बस हो ।

  2. सभी को सर्वत्र, सदाकाल जिनभक्ति अर्थात जिनेन्द्र भगवान प्रणीत तत्त्वों का श्रद्धान-ज्ञान एवं आचरण ही शरण है ।

  3. भोगों की वाँछा से भोग भी नहीं मिलते और वाँछा भी नहीं मिटती ।

  1. तत्त्वाभ्यास से विषयों की वाँछा ही सहज मिट जाती है और बिना विषयों के ही जीव परम सुखी हो जाता है ।

  2. सर्व विभावों से शून्य, शुद्धात्मा के सतत अनुभवन से, बिना विकल्प किए ही विभाव सहज मिटते जाते हैं ।

  3. जब अचेतन पुद्गलादि भी अपने स्वरूप में ही रहते हैं तो कौन ज्ञानी अपने स्वरूप से च्युत होकर परभावरूप परिणमन करेगा ? अर्थात परद्रव्यों को अपना या अच्छा और बुरा मानकर दुःखी होगा ।

  4. अन्य निरपेक्ष परिणाम स्वभाव-पर्याय हैं ।

  5. जिस प्रकार जिनदेव निष्काम हैं वैसे ही परमाणु अशब्द हैं अर्थात उसमें स्कन्ध पर्यायरूप शब्द नहीं होता ।

  6. स्वरूपलीन योगीजन को अचेतन पुद्गल में द्वेष या सचेतन जीव में राग नहीं होता वे सहजपने अपने को जीव एवं शरीरादि को अजीवरूप जानते हैं ।

  7. समय-निमिष, घड़ी, दिन-रात आदि काल के भेदों से मुझे क्या प्रयोजन ? मैं तो सदा निरुपम त्रिकाली आत्मा को भाता हूँ ।

  8. पदार्थ की ‘अस्ति’ - ऐसा भाव अस्तित्व है । धीमान् पुरुष व्यवहारमार्ग को जानकर शुद्धमार्ग को भी जानता है ।

  9. संवरादि तत्त्व भी प्रगट करने योग्य हैं परन्तु आश्रय योग्य नहीं ।

  10. जीवादि सात तत्त्वों का समूह परद्रव्य होने से या स्वद्रव्य न होने से हेय है अर्थात उपादेय नहीं है । यहाँ द्वेषरूप उदासीनता का निषेध कर सहज उदासीनतारूप कथन किया है ।

  1. पर से सहज विरक्त, अन्तर्मुख उपयोग वाले जितेन्द्रिय, भेदविज्ञानी जीव को ही वास्तव में आत्मा उपादेय भासित होता है ।

  2. जो योगीश्वरों को भी उपादेय है जिसके आश्रय से परमानन्द होता है वह आत्मा :-

औपशमिक आदि भावान्तरों से अगोचर है, निरपेक्ष है अर्थात पर्यायों के लक्ष्य से दिखाई नहीं देता ।

अनादि-अनन्त, अमूर्तिक, अतीन्द्रिय स्वभाव वाला, कर्मोपाधिजनित विभावों से रहित कारण परमात्मा ही वास्तव में आत्मा है ।

अन्य भावों को आत्मा उपचार से ही प्रयोजनवश कहा है । उन्हें ही आत्मा समझकर उपादेय नहीं माना जा सकता ।

  1. आत्मा को आत्मा ही उपादेय है । अनादि से आत्मा (परिणाम) अपने को आत्मा न जानने से ही दुःखी रहा है और अपने को आत्मा अनुभवता हुआ ही सुखी होता है । सुखी होने के अन्य (आत्मानुभव के अतिरिक्त) समस्त उपाय मिथ्या हैं ।

  2. आत्मा में मान-अपमान, हर्ष-विषाद के स्थान नहीं हैं । अतः आत्मानुभवी पुरुषों को बाह्य मान-अपमान आदि के प्रसंगों में सहज समता भाव वर्तता है ।

  3. सांसारिक सुख - विषय सुख या इन्द्रिय सुख कल्पना मात्र है, दुष्कृतरूप अर्थात पापरूप है ।

  4. आत्मज्ञान होने पर बाह्य में कहीं प्रीति या अप्रीतिभाव नहीं होता ।

  5. आत्मा नित्य शुद्ध सम्पदाओं की खान है । उसमें समस्त विपदाओं का अभाव है । अतः सर्व सम्पदाओं की प्राप्ति एवं विपदाओं के अभाव का उपाय आत्माराधन ही है ।

  6. औदायिकादि चार भाव कर्म सापेक्ष होने से आश्रय योग्य नहीं है । पंचम भाव अर्थात परम पारिणामिकरूप ध्रुव ज्ञायक भाव ही आश्रय योग्य है अर्थात अहं करने योग्य परम श्रद्धेय, वेद्य-वेदकरूप से अनुभवने योग्य, सर्व ओर से निश्चिंत हो एकाग्रतापूर्वक ध्याने योग्य और अनन्त काल तक रमने योग्य है ।

  7. ज्ञानमय आत्मा की अखण्ड भावना ही समाधि है । आत्मा निर्दण्ड है । शरीरादि का धारण करना भी दण्ड ही है, जैसे कारागृह में रहना । स्वयं को आत्मा न जानना ही सबसे बड़ा अपराध है । अतः आत्मानुभवन एवं आत्माराधना ही समस्त दण्डों से बचने का उपाय है ।

  8. आत्मा निर्द्वन्द है अतः समस्त अन्तर्द्वन्द और बहिर्द्वन्दों से बचने का उपाय आत्माराधना है ।

  1. आत्मा के आश्रय से ही निर्मम, निर्मूढ़, निर्भय, निर्दोष, निरावलम्बी, निष्काम, निष्पाप, निःशरीर हुआ जाता है क्योंकि ये आत्मा के धर्म हैं ।

  2. अध्रुव संयोग एवं पर्यायों की चिन्ता से क्या लाभ ? ध्रुव चैतन्यपद को ही भव-भोगों से विरक्त होकर स्व-सन्मुख होकर आराधना करना चाहिए ।

  3. स्वभावदृष्टि से संसारी और सिद्ध जीव समान हैं । अतः स्वभावदृष्टि पूर्वक ही आराधक जीव सिद्धपद पाते हैं ।

  4. मिथ्यादृष्टि जीवों को शुद्ध-अशुद्ध दशा का सम्यग्ज्ञान नहीं होता मात्र विकल्पना होती है ।

  5. अहिंसा परम ब्रह्म है उसी की पूर्णता के लिए ज्ञानी विकृत वेश और परिग्रह को छोड़कर निर्ग्रन्थ होते हैं ।

  6. परम गुरु श्री सर्वज्ञदेव एवं अपर गुरु आचार्यादि ज्ञानीजन ही हमें निजस्वरूप एवं स्वरूप साधना का सम्यक उपदेश देते हैं ।

  7. चित्स्वरूप निज शुद्धात्मा, शुद्धात्मा की आराधनारूप रत्नत्रय और आराधना के परमफलरूप अक्षय आनन्दमय मोक्ष उपादेय है ।

  8. दुःख एवं दुःख के कारण रूप मिथ्यात्व एवं कषायरूप भाव हेय हैं - ऐसा ज्ञान होने पर सम्यकचारित्र संभव है ।

  9. (अ) ध्यान के लक्षण में एकाग्रता, व्यग्रता (विविध अवलम्बनों) के निषेध के लिए है ।

(ब) एक संख्यावाचक के साथ-साथ प्रधान एवं अग्र (अवलम्बन) के अर्थ में प्रयुक्त है । ‘अंगति जानाति इति अग्रं’ इस निरुक्ति से अग्र आत्मा का नाम है । और आत्मा तत्त्वों में अग्रगण्य होने से भी अग्ररूप से कहा गया है ।

  1. अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन एवं स्वाध्याय में उद्यमी रहने वाला अवश्य ही मन को जीत लेता है ।
  1. जिनागम का एकाग्र चित्त से पठनादि स्वाध्याय है ।

  2. स्वाध्याय द्वारा ध्यान का अभ्यास एवं ध्यान द्वारा स्वाध्याय को चरितार्थ करें ।

  3. सम्यक अभ्यास से दुर्गम शास्त्रों के अधिगम के समान ही ध्यान की भी सिद्धि होती है ।

  4. जैसे कुसंस्कारों के कारण जीव कुमार्ग में बढ़ता चला जाता है, अनादि से चले आ रहे मोहरूप संस्कारों से प्राप्त पर्याय में तन्मय होता है, उसी प्रकार की चेष्टाओं में सहजरूप से प्रवर्तने लगता है । जैसे मनुष्य का बालक बार चेष्टाओं में, तिर्यंच उस पर्याय जैसी चेष्टाओं में प्रवर्तता है । वैसे ही उत्तम संस्कारों से जीव उत्तम कार्यों में प्रवर्तता है ।

  5. उत्तम संस्कारों के लिए उत्तम संगति-शिक्षा एवं अभ्यास आवश्यक है ।

  6. सर्वप्रथम तत्त्वनिर्णय एवं सतत् विचारों के द्वारा जीवन में ऐसे संस्कार डालें जायें कि हम यह लग लगने लगे कि :-

मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं ।
अमूर्तिक हूँ अर्थात स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाला नहीं ।
अनादि-अनन्त हूँ, क्षणभंगुर पर्यायमात्र नहीं । ज्ञानादि रूप हूँ - जड़रूप नहीं, रागादि रूप नहीं, दुःखरूप नहीं ।

विश्व का परिणमन स्वतंत्र एवं क्रमबद्ध होता है । कर्तृत्व का अहंकार मिथ्या एवं क्लेशकारी है । पर पदार्थ सुख-दुःख का कारण नहीं है ।

  1. इच्छा ही दुःख है । मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम ही इच्छाओं के मूल कारण हैं । सम्यग्ज्ञानभ्यास से ही इनका अभाव सम्भव है ।

  2. दृढ़ संकल्पपूर्वक श्रेष्ठ कार्य तो शीघ्र ही कर लेने योग्य है ।

  3. कषायों की तीव्रता होने से पापरूप परिणति होती है, इस से जीव दुःखी होता है ।

  4. संयोग एवं संयोगी अवस्थाएँ भी जीव के पूर्वकृत कर्मों का फल है ।

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  1. पाप के उदय में सहाय एवं पुण्य के उदय में दण्ड के निमित्त नहीं मिलते । अतः परद्रव्यों से राग-द्वेष करना मिथ्या है ।

  2. अपना भला अपने सम्यक परिणामों से और बुरा अपने मिथ्या परिणामों से ही होता है, अन्य के कारण नहीं ।

  3. कुव्यसनों, इन्द्रियों के विषयों में अनुराग एवं मन वचन काय की प्रवृत्ति, अभक्ष्य-भक्षण, अन्याय-अनीति, हिंसा, चोरी, अब्रह्म एवं परिग्रह आदि पापरूप हैं । व्यवहार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि रूप भावना एवं प्रवृत्ति, ज्ञानाभ्यास, शील, संयम, दया, भक्ति, विनय, सरलता, संतोष, क्षमा, दान, तप, आत्मकल्याण एवं लोककल्याणकारी भावना पुण्यरूप हैं ।

  4. वीतराग भाव ही परमार्थ धर्म है, परमसुख का कारण है ।

  5. विश्व में मेरे लिए मेरा आत्मा ही परमार्थ शरण एवं पंचपरमेष्ठी आदि हस्तावलम्बन या व्यवहार शरण हैं ।

  6. चाहे कितनी ही अनुकूलताएँ हों परन्तु अपने को सहज ही एकत्व-विभक्त ज्ञायकभावरूप देखें, परमाणु मात्र अपना नहीं भासे तो अभिमान का अवसर ही न बने । मिथ्या अधिकार की दुर्भावना ही उत्पन्न न हो ।

  7. प्रतिकूलताओं में दूसरों पर दोषारोपण न हो । द्वेष एवं दीनता-हीनता की भावना ही न आवे ।

  8. अन्य मिथ्या मंत्र-तंत्रादि में तो मन भटके ही नहीं । वीतरागी देव-गुरु आदि की उपासना भी परिणाम विशुद्धिपूर्वक संक्लेशता के निवारण के लिए हो, इच्छापूर्ति के अभिप्राय सहित नहीं ।

  9. समस्त विघ्न-बाधाओं के प्रसंग में अपने दोषों की आलोचना, अपराधों के प्रति क्षमा याचना, सामने वाले प्रतिकूल भासने वाले जीवों के प्रति भी मंगलकामना, धैर्य, तत्त्वविचार, संयम, भक्ति आदि पूर्वक अपने पापकर्मों की निर्जरा, भेद-विज्ञानपूर्वक बार-बार स्वरूप का लक्ष्य करना ही सम्यक उपाय है ।

  10. अंतरंग में तत्त्वदृष्टि न छोड़ें, बाहर में अपने पद की मर्यादा, ईमानदारी, अहिंसा, नियम-संयम न छोड़ें ।

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  1. प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव रहे । गुणीजनों के प्रति भावपूर्ण व्यवहार सहज हो । दुःखीजनों के प्रति करुणा के लिए सोचना ना पड़े । विपरीत के प्रति भी माध्यस्थ भावना रहे । खिन्नता, उत्तेजना न हो पाये । लौकिक क्रियाओं में भी धर्म भावनात्मक ज्ञान एवं विशुद्धि सहित प्रवर्तें ।

  2. हमारे कार्यक्रम, रहन-सहन भी प्रदर्शन रहित सादगीपूर्ण हो, उनमें भी पंच परमेष्ठी का स्मरण, भक्ति, पूजा, सत्पात्रों का सम्मान, दान, दुःखीजनों के प्रति उदारता एवं वात्सल्यपूर्ण व्यवहार हो । अहिंसक यत्नाचार प्रवृत्ति मुख्य रहे ।

  3. सम्यक्त्व के अंग जीवन के अंग बनें - निःशंक एवं निर्भय रहें । अयोग्य वांछाएँ कदापि न करें । भय, आशा, स्नेह या लोभवश श्रद्धान एवं संयम से चलायमान न हों । ग्लानि में डूबते हुए निराशा की ओर न जाएँ । मिथ्या तनाव न करें । कषाय के प्रसंगों को टालने की कला सीखें । लोगों की बातों में न आएँ । विवेकपूर्वक निर्णय लेना सीखें । मिथ्या आत्मप्रशंसा करने एवं रसपूर्वक सुनने से बचें । पराई निन्दा कदापि न करें । कोई करे तो यथासम्भव उसका उचित प्रतिकार करें । उपकार, सहयोग एवं स्थितिकरण योग्य विधि से करें । अवसर न चूकें । कठोर दण्ड कदापि न दें । अनिवार्य दण्ड के समय भी अंतरंग में वात्सल्य रहे ।
    असत्य, अहितकर, अभिमानपूर्ण, पापमय निंद्य वचन कदापि न बोलें । संकीर्ण विचारों में न उलझें । सम्यक एवं उच्च भावनाएँ रखें । ईर्ष्या आदि से बचें ।

  4. ज्ञान-वैराग्य से सम्पन्न सम्यक्त्वी जीव ही वास्तव में वैभववान है ।

  5. बिना श्रम एवं मूल्य चुकाये कोई वस्तु लेने की आदत छोड़ें ।

  6. अधिकार का हनन या शोषण कदापि न करें ।

  7. शील की रक्षा युक्तिपूर्वक प्राणों की कीमत पर भी करें ।

  8. अहिंसा के नाम पर कायरता या निष्क्रियता का पोषण न करें ।

  9. परिग्रह की मर्यादा रखें, तृष्णा के वशीभूत होकर उलझते न जायें ।

  10. योजनाबद्ध योग्य पुरुषार्थ पूर्वक भवितव्य, भाग्य, क्रमबद्ध का विचार कर समता की ओर बढ़ें, स्वच्छन्दता की ओर नहीं ।

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  1. हमारे जीवन का आदर्श पुराण-पुरुषों की भी वीतरागता ही रहे । श्रद्धान एवं विचार द्रव्यानुयोगानुसार रहे । आचरण (क्रियाएँ) चरणानुयोगानुसार हो । समाधान करणानुयोगानुसार के अनुसार करें जिससे दूसरों का दोष न दिखे, परिणामों के प्रति सावधान रहें ।

  2. अपने निर्दोष ज्ञान, श्रद्धान एवं पवित्र आचरण द्वारा जैनत्व का गौरव बढ़ाएँ ।

  3. स्वावलंबी बनें ।

  4. समय व वचन का पालन करें ।

  5. निज परमात्मा के सम्यगश्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होने से मोक्ष का उपाय है । उसका फल स्वात्मोपलब्धि है ।

  6. वस्तु का स्वभाव ही नियम है । यह सहज नियम किसी के द्वारा बनाया नहीं गया और न इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन ही सम्भव है । भगवान सर्वज्ञ देव ने भी उसे मात्र बताया ही है । वे तीर्थ निर्माता नहीं अपितु तीर्थ प्रणेता हैं ।

(a). सर्व वस्तुएँ अनादिनिधन हैं । नवीन पर्यायों का उत्पाद एवं पूर्व पर्यायों का व्यय होते हुए भी द्रव्य का द्रव्यपना (सत्ता एवं स्वरूप) ध्रुव है ।

(b). सभी वस्तुएँ अपनीअपनी मर्यादा में परिणमित होती हैं । कोई किसी का कर्ता नहीं है अर्थात दो द्रव्यों में परस्पर कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है । सहज निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को कर्ता-कर्म नहीं माना जा सकता ।

  1. ज्ञानीजन ज्ञाता रहते हैं अतः वे निर्भार सहज एवं सुखी रहते हैं ।

  2. अज्ञानी कर्तृत्व के अहंकार से ग्रसित होने से निरन्तर मिथ्या संकल्प-विकल्पों में उलझे रहने से दुःखी रहते हैं ।

  3. परद्रव्य का परिणमन तो परद्रव्य में उसकी अपनी योग्यता के अनुसार होता है ।

  4. दो द्रव्यों में भोक्ता-भोग्य, स्व-स्वामी, आधार-आधेय, साधन-साध्य आदि सम्बन्ध भी नहीं होते । अतः परद्रव्यों के साथ सम्बन्ध मानना मिथ्या ही है ।

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  1. मोक्षलक्ष्मी ही आत्मा के लिए अत्यंत हितरूप, पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होने योग्य परमार्थ सत्य और अक्षय होने से सारभूत (ग्रहण करने योग्य) है ।

  2. भगवान वीतराग होने पर भी (निमित्त अपेक्षा) सर्व जगत पर अनुग्रह करने में समर्थ हैं । उनका दर्शन स्वरूप का चिन्तन, वाणी का श्रवणादि भेदविज्ञान एवं परिणामों की विशुद्धि का निमित्त है ।

  3. सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र ही श्रेष्ठ आश्रम है ।

  4. इष्ट फल वाला (सुखरूप) होने से वीतरागता ही ग्रहण करने योग्य है । बीच में आ जाने पर भी रागांश क्लेश रूप होने से हेय है, छोड़ने योग्य है ।

  5. निर्ग्रन्थ दीक्षा का उत्सव मुक्तिलक्ष्मी के स्वयंवर के समान आनन्दमय है ।

  6. मोह-क्षोभ (राग-द्वेष) से रहित साम्यभावरूप अत्यन्त निर्विकार आत्मपरिणाम ही धर्म है ।

  7. शुद्धोपयोग घृत के समान शीतलता प्रदायी अर्थात साक्षात मुक्ति का कारण होने से उपादेय है । सहचर शुभोपयोग अग्नि से उष्ण घृत के समान जलाने वाला तृष्णोत्पादक, आकुलतामय इन्द्रिय सुख का कारण होने से हेय है ।

अशुभोपयोग चारित्र के सम्पर्क से रहित, नरकादि के दुःखों का कारण होने से अत्यन्त हेय है ।

  1. शुद्धोपयोग से उत्पन्न सुख सातिशय, स्वाधीन, विषयातीत, अनुपम, अविच्छिन्न और अनन्त है ।

  2. पदार्थों और सूत्रों को भली प्रकार जानने वाले, संयम और तप से संयुक्त समभावी जीव ही शुद्धोपयोग को प्राप्त करते हैं ।

  3. केवलज्ञानादि महाऋद्धियों को जीव शुद्धोपयोग के फल से ही प्राप्त करता है ।

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  1. शुद्धात्मा की प्राप्ति हेतु बाह्य सामग्री ढूँढने की व्यग्रता से जीव व्यर्थ पराधीन होता है । शुद्धात्मा की प्राप्ति बाह्य साधनों से अत्यन्त निरपेक्ष है ।

  2. निश्चय से आत्मा का पर के साथ कारकता का सम्बन्ध नहीं है ।

  3. शुद्धोपयोगी मुक्त जीवों का सुख (सन्तति अपेक्षा) व्यय-रहित और दुःख उत्पाद-रहित है अर्थात वे सदा सुखी रहेंगे और कभी दुःखी नहीं होंगे ।

  4. स्वभाव पर से निरपेक्ष होने से परमात्माओं के भी इन्द्रियों के बिना ही ज्ञान और आनन्द होता है । उन्हें शरीर सम्बन्धी सुख-दुःख नहीं है ।

  5. आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक प्रमाण हैं अतः ज्ञान सर्वगत (व्यापक) है ।

  6. सर्वद्रव्य स्वरूपनिष्ठ हैं ।

  7. अनेकान्त बलवान है ।

  8. आत्मा और पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथकत्व के कारण एक दूसरे से नहीं वर्तते ।

  9. आत्मा इन्द्रियातीत होता हुआ अशेष जगत को ज्ञेय में अप्रविष्ट रहकर तथा अप्रविष्ट न रहकर जानता है यह शक्ति वैचित्र्य है ।

  10. आत्मा अनादिनिधन-निष्कारण-असाधारण, स्वसंवेद्यमान चैतन्य सामान्य रूप से महिमा वाला है । केवली भगवान जिसमें चैतन्य के समस्त विशेष युगपद् परिणमते हैं ऐसे केवलज्ञान द्वारा आत्मा को अनुभवते हैं और श्रुतकेवली जिसमें चैतन्य के कुछ विशेष क्रमशः परिणमते हैं ऐसे श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा को अनुभवते हैं ।

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  1. ज्ञाता-ज्ञेय के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन ?

  2. सर्व जीवों को सर्वत्र सदाकाल निजात्मा ही उपादेय (आश्रय करने योग्य) है और वह आत्मा परम शुद्धनय का विषय समस्त कर्मोपाधि से रहित, अनादिनिधन, अमूर्तिक, निर्द्वन्द, निरुपद्रव, निरुपम, अनन्त धर्मात्मक चित्स्वरूप कारण परमात्मा है ।

  3. इन्द्रियादि पर के आलम्बन के बिना निःशेषरूप से अन्तर्मुखी उपयोग में शुद्धात्मा का ग्रहण होना ही सम्यग्ज्ञान है ।

  4. अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द की जन्मभूमि शुद्ध जीवास्तिकाय है ।

  5. विवेकीजन अपने द्वारा किये गये उपकार का प्रत्युपकार नहीं चाहते और दूसरों के द्वारा किये गये उपकार के प्रति कृतज्ञ रहते हैं ।

  6. त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्दमय कारण-परमात्मा की भावना से कार्य परमात्मा होते हैं ।

  7. विषयों की वासनारूप आग को शमन करने के लिए जिनवाणी का अभ्यास मूसलाधार वर्षा के समान है ।

  8. आचरण के प्रसंग में शुद्ध का अर्थ निष्पाप अर्थात पापक्रिया से रहित समझना ।

  9. सहज दर्शन, सहजज्ञान, सहजसुख, सहज बलरूप स्वभाव चतुष्टयमय होने से आत्मा शाश्वत परमात्मा है ।

  10. अनुत्तम (सर्वश्रेष्ठ), निरुपाधि, परम मंगलमय सदा प्रकाशमान, केवलज्ञान ज्योति भेदज्ञान रूप वृक्ष का ही सत्फल है । अतः आत्मार्थी जीवों को भेदज्ञान ही भाने योग्य है ।

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  1. भगवन्तों की भक्ति और स्वरूपदृष्टि सर्वत्र सुख का कारण है ।

  2. ज्ञान में प्रतिष्ठित ज्ञान की महाशरण को प्राप्त साधुजन कहीं अशरण नहीं हैं अर्थात वे स्वयं ही तृप्त रहते हैं उन्हें स्व का अवलम्बन होने से किसी अन्य शरण की आवश्यकता ही नहीं है । पर का अवलम्बन चाहने वाले मोहीजनों को कहीं कोई शरण नहीं होता, वे निरन्तर दुःखी ही रहते हैं ।

  3. ज्ञानीजनों को विभावों से रहित स्वभाव के आश्रय से, विभावों के नाश की चिन्ता नहीं होती । शुद्धात्मा की भावना के बल से वे सहज ही विभावों का नाश करते हुए पूर्ण समभावरूप मुक्तदशा को प्राप्त करते हैं ।

  4. सर्वथा एक नय का पक्षपाती वस्तुस्वरूप को नहीं समझ सकता ।

  5. हे भव्य ! पुद्गल के नाना रूपों को देखकर तू मूढ़ मत हो । सबसे न्यारा शुद्धचिद्रूप ही तुझे आश्रय करने योग्य है ।

  6. ज्ञानीजनों को परद्रव्यों में राग तो होता ही नहीं है, द्वेष भी नहीं होता ।

  7. स्वरूपगुप्त योगीजनों को चेतन (आत्मा) में राग और अचेतन में द्वेष नहीं होता । सहज सर्वत्र वीतरागता वर्तती है ।

  8. समय चक्र का कार्यविभाजन लौकिक जनों में होता है । योगीजनों का सर्व समय तो आराधना के लिए ही समर्पित होता है अर्थात वे कभी कुछ और कभी कुछ नहीं करते, सदाकाल एकमात्र शुद्धात्मा की आराधना ही करते हैं ।

  9. बुद्धिमान पुरुष व्यवहार के साथ परमार्थ को भी जानते हैं, अतः वे व्यवहार में ही विमोहित नहीं होते ।

  10. जीवादि सात तत्त्व प्रयोजनभूत हैं । संवर, निर्जरा और मोक्ष प्रकट करने योग्य हैं परन्तु आश्रय करने योग्य तो निज शुद्ध जीव ही है ।

  1. शुद्धात्मा सदा हानि वृद्धि से रहित एकरूप चित्स्वरूप है, उसमें मान-अपमान के लिए अवकाश ही नहीं है । अतः आत्मानुभवन ही मानापमान के दुर्वेदन से बचने का उपाय है ।

  2. निरंजन निज परमात्मा भी प्रकृति आदि बन्ध तथा कर्मोदय से रहित है । अतः कर्मबन्ध से मुक्ति हेतु शुद्धात्मा ही आलाधने योग्य है ।

  3. हे भव्य ! तू बन्ध एवं उदय जनित अवस्थाओं के देख-देख कर आकुलित मत हो । सदा ही निर्बन्ध निज ज्ञायक भगवान को देखते हुए प्रसन्न रह ।

  4. आत्मा नित्य शुद्ध सम्पदाओं की खान है, समस्त विपदाओं से अपद है ।

  5. परिग्रह प्रपंच से रहित और पंचाचारों से युक्त योगीजन पंचमगति की प्राप्ति के लिए पंचम (परम पारिणामिक) भाव की आराधना करते हैं ।

  6. औपशमिकादि भाव तो कर्म सापेक्ष होने से आश्रय करने योग्य नहीं हैं । पंचम भाव के आश्रय से औपशमिक आदि शुद्ध भाव स्वयं प्रगट हो जाते हैं ।

  7. ज्ञानमय आत्मा की अखण्ड भावना ही परमार्थ समाधि है ।

  8. आत्मा :-
    निर्दण्ड, निर्द्वन्द, निरावलम्ब, निर्दोष, निर्मूढ़, निःशरीर, निर्मम, निर्मान, निःक्रोध, निर्माया, निर्लोभ, निर्भय आदि परम धर्मों का धर्मी है ।
    कल्पनामात्र रम्य भव-सुखों से रहित है ।

  9. भो आत्मन ! तुझे अध्रुव वस्तुओं की चिन्ता से क्या ? भव-भोगों से परान्मुख होकर निज में मग्न बुद्धि से भव के कारण का विनाश करने वाले निज परमपद को भज ।

  10. समयसार की उपासना जड़द्रव्यों, वचनों और विकल्पों से सम्भव नहीं । अनाकुल, अच्युत, जन्म-मृत्यु-रोगादि से रहित, सुखामृतमय समयसार की उपासना समरस अर्थात समता भाव से ही अविच्छिन्न रूप से होती है ।
    शाश्वत परमात्मा के उपासक भव-दुःखों से रहित परम सिद्धि को पाते हैं ।

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  1. परम तत्त्व की भी वाँछा से रहित होने से आत्मस्वभाव निष्काम है । उसी की आराधना से साधक सर्व कामनाओं से रहित होता है ।

  2. आत्मा परम समरसीभावरूप होने से निर्मान है और उसी परमभाव में लीन होता हुआ आराधक मानादिक दुर्भावों से रहित होता है ।

  3. नित्यानन्दमय मोक्षलक्ष्मी का ऐश्वर्यवान स्वामी शुद्धात्मा ही आराधने योग्य है ।

  4. सहज शुद्ध ज्ञानचेतनास्वरूप निज कारण परमात्मा संसारावस्था और मुक्तावस्था में सदाकाल एकरूप होने से उपादेय है । उसकी आराधना (श्रद्धा-ज्ञान-ध्यान) से ही संसार का नाश और मुक्ति की प्राप्ति होती है ।

  5. परम शुद्धभाव के आश्रय से ही शुद्धभाव के उत्पादपूर्वक कामादिक दुर्भावों का व्यय होता है । स्वयं विचार करो - स्वात्मोपलब्धिरूप मोक्ष स्वात्मा के आश्रय बिना कैसे होगा ?

  6. जिनशासन को प्राप्त करके आत्मलीनता ही परम कर्तव्य है ।

  7. बाह्य में उलझ कर लक्ष्य को भूलने वाले तो संसार में ही भ्रमते हैं ।

  8. आत्मानुभूति के काल में आत्मा वास्तव में उपादेय भासित होता है । तभी आत्मा में अहम् भाव (मैं पना) होने से सहज आनन्द होता है । शरीरादि भिन्न, रागादि हेय, संहार असार लगता है । सम्यक तत्त्व प्रतीति होती है । तत्त्व भावना के बल से सहज वैराग्य होता है, वही वृद्धिंगत होने से निर्ग्रन्थ दशा और मुक्तदशा होती है ।

  9. स्वरूप में निःशंक जीव अल्पकाल में सर्व दोषों से रहित होता है ।

  10. वीतरागी देव-गुरु की अन्तरंग भक्ति के बिना सच्ची तत्त्वदृष्टि नहीं होती, तब दुःख कैसे मिटे ? अतः प्रथम इनके स्वरूप का निर्णय करना चाहिए ।

  1. मुमुक्षु जीव को समस्त परिग्रह का पक्ष छोड़कर शरीर की भी उपेक्षापूर्वक चित्स्वरूप को भाना चाहिए ।

  2. सहज ज्ञानरूपी साम्राज्य के धनी जीवराज के आश्रय से ही निर्विकल्प हुआ जाता है ।

  3. त्रिकाली स्वभाव के आश्रय बिना पर्यायदृष्टि नहीं छूटती ।

  4. सम्यग्ज्ञान पूर्वक होने वाला साम्यभाव ही साक्षात शरण है । सम्यग्ज्ञान से रहित जीव को लोक में कोई और शरण नहीं है अर्थात सम्यग्ज्ञान बिना जीव सुखी नहीं होता ।

  5. रागादिक की पूर्ति का भाव अशुभभाव है । रागादि के अभाव का विकल्प शुभभाव है और रागादि के अभावरूप वीतराग भाव धर्म है ।

  6. स्वभाव की भावना बिना विभावों के नाश की चिन्ता से भी विभावों का नाश नहीं होता ।

  7. अचेतन, पुद्गलादि द्रव्य भी निज-निज रूप परिणमते हैं । ऐसा जानने वाला कौन ज्ञानी निजभावरूप नहीं परिणमेगा ?

  8. अन्य से निरपेक्ष परिणाम ही स्वभाव परिणाम है ।

  9. जैसे जिनेन्द्र भगवान में मोहादि भाव नहीं हैं । वैसे ही मोहादिक भाव मेरा भी स्वभाव नहीं है - ऐसा समझ कर स्वभाव के आश्रय से निर्मोही होना योग्य है ।

  10. संसारावस्था स्वयं के ही दुष्कृत अर्थात मोह का फल है ।

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  1. इच्छा के अनुकूल पदार्थों के प्रति प्रीतिभाव और प्रतिकूल पदार्थों के प्रति अप्रीतिभाव (द्वेष) को तत्त्वज्ञान के अभ्यास से छोड़कर शाश्वत पद को ध्याओ ।

  2. कर्मफलों को न भोगने वाला जीव नये कर्मों को न बाँधता हुआ अल्पकाल में मुक्त होता है ।

  3. सहज शुद्ध कारण परमात्मा सदाकाल एकरूप है ।

  4. मिथ्यादृष्टि नय विविक्षा को न समझता हुआ यदि आत्मा को शुद्ध पढ़ता-सुनता है तो वर्तमान पर्याय में भी सर्वथा शुद्ध मानकर स्वच्छन्द और प्रमादी होता है और अशुद्ध सुनता-पढ़ता है तो सर्वथा अशुद्ध ही मानकर शुद्धता के लिए देव-गुरु अथवा व्रत-तपादि क्रियाओं का अवलम्बन लेता है और अशुद्धता की मंदता को ही शुद्धता मान लेता है । दोनों प्रकार के जीव कल्पना लोक में विचरण करते हुए भ्रम से अपने को धर्मात्मा मानकर सन्तुष्ट हो जाते हैं ।

  5. सार और असार के विचारपूर्वक असार का परिहार और सार का ग्रहण करने वाली बुद्धि ही सुबुद्धि कहलाती है ।

  6. शुद्धस्वभाव के आश्रयपूर्वक ज्ञानी पर्याय में (भले आंशिक हो) शुद्धतारूप परिणमित होते हुए अपने को शुद्ध मानते हैं । मात्र शुद्धनय के पक्ष से शुद्ध विचारते हुए स्वच्छन्द नहीं होता ।

  7. प्रशस्त प्रयोजन सहित यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रयत्नपरायण ज्ञानी जीव, व्यवहार से अहिंसक कहलाते हैं ।

  8. विकारपूर्वक धारण किये गये वेश भी विकृत वेश कहलाते हैं । निर्विकारी निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेश ही स्वाभाविक वेश कहलाता है ।

  9. अहिंसा परम ब्रह्मस्वरूप है । अहिंसा की पूर्णता निरारम्भी निर्ग्रन्थदशा में ही सम्भव है ।

  10. परिग्रह के साथ आरम्भ और हिंसा होती ही है ।

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