संसार या दुःख के अन्तरंग कारण रागादि, बाह्य कारण कर्म-नोकर्म आदि का आत्मा में सदा अभाव ही है । आत्मा तो त्रिकाल सुखमय सर्वप्रकार के दुःखों से शून्य है । दुःख का वेदन मात्र पर्यायदृष्टि में है, मंगलमय द्रव्यदृष्टि में नहीं ।
विकल्पों का होना अपवाद मार्ग तथा निर्विकल्प दशा उत्सर्ग मार्ग है । ज्ञानी को अपवाद मार्ग तो नहीं, उत्सर्ग मार्ग का भी आदर नहीं । ‘ज्ञानमात्र’ निज भाव का ज्ञान हो जाने पर पर्यायादि का आदर आ सकता नहीं अर्थात जो विकल्प आवे उसमें ‘ठीक है’ ऐसा नहीं ; तथा ‘विकल्प न आवे’ ऐसा भी विकल्प नहीं । मैं निर्विकल्प पर्याय से निर्विकल्प नहीं अपितु सहज, त्रिकाल निर्विकल्प हूँ ।
अनुयोग तो शैली मात्र है । अनुयोग का उपदेश या अभ्यास नहीं करना । अनुयोग के माध्यम से अभ्यास या उपदेश तो मोक्षमार्ग का करना है अर्थात स्वरूप अभ्यास कर्तव्य है ।
अनुयोग हेय या उपादेय नहीं । अनुयोगों में जो मिथ्यात्वादि वर्णित हैं वे तो हेय हैं और उन्हीं में वर्णित रत्नत्रय उपादेय है । अनुयोग तो ज्ञेय मात्र है ।
प्रति पर्याय ममता से गुजरने पर भी आत्मा अनादि से आज तक समतामय ही है और अनन्तकाल तक समतामय ही रहेगा । आत्मस्वभाव का विस्मरण ही पर में ममता का मूल कारण है । स्वभाव की पहिचान होते ही ममता के पैर उखड़ जाते हैं ।
पराए धन से धनवाले नहीं होते, पराये (पंच परमेष्ठी भगवन्तों) ज्ञान, दर्शन, सुख से अपना कुछ कार्य चलने वाला नहीं, लोक में भी दूसरे की आँख से स्वयं को नहीं देखा जाता परन्तु अपनी आँख (उपयोग) भी जब तक अन्य सन्मुख हो, तब तक स्वयं को देखा नहीं जा सकता । स्वसन्मुख दृष्टि ही आत्मकल्याण में कार्यकारी है ।
पुण्य हेय होते हुए भी ज्ञानी के पुण्य में प्रवर्तन उसी प्रकार होता है - जैसे हेय जानते हुए भी गाड़ी में बैठना, कपड़े में साबुन लगाना, लेन्टर (छत से पहले कच्ची छत) झूला लगाना…आदि परन्तु उसी समय श्रद्धान यही रहता है - ‘ये झूला वास्तविक छत नहीं, वैसे ही पुण्य धर्म नहीं है ।’
आत्मवैभववन्त पंचपरमेष्ठी भगवंतों की सच्ची महिमा उसी को आ सकती है जिसे (स्व) आत्मरुचि हुई हो । बाह्य जड़ वैभव की महिमा, राग (पुण्यादि) की महिमा आदि में अटका मिथ्यादृष्टि तो इन वीतरागी भगवन्तों के दर्शन करने भी जायेगा तो उनके पुण्यादि, शरीर, इष्ट संयोग, चित्रकारी आदि की महिमा आयेगी, उनमें आनन्द मानेगा ।
ठीक ही है प्रथमानुयोग में ज्ञानीजनों (तीर्थंकरादि) की कथाएँ पढ़ते समय ज्ञानियों को उनकी आत्मपवीत्रता की महिमा आती है जबकि अज्ञानी को पुण्योदय से मिली शरीर संयोगादि रूप विभूति की । ऐसा जीव आत्मकल्याण से विमुख ही रहता है । जिसे उनके दर्शनादि से आत्मा की महिमा आती है वही मोक्षमार्गी है ।
केवल चाबियों से काम नहीं चलता । चाबी बनाने की कला सीखने पर ही तालों में चाबियाँ लग सकेंगी । उसी प्रकार शास्त्रों में नाना प्रकार के कथन आते हैं, उन कथनों को बदलने या निकालने से काम नहीं चलेगा । अर्थ करने की कला पद्धति सीखें बिना आचार्यों का अभिप्राय समझ में नहीं आ सकेगा और मुक्तिमार्ग नहीं प्रारम्भ हो सकेगा । जैसे चाबी वाला चाबी घिसता है ताला नहीं, वैसे ही हमें ही अपनी बुद्धि शास्त्रों के अनुसार ढालनी पड़ेगी ।
जैसे कपड़े के अनुसार शरीर नहीं बदला जाता, शरीर के अनुसार कपड़ों की फिटिंग की जाती है, वैसे ही शास्त्रों के अनुसार अर्थात वस्तुस्वभाव के अनुसार अपना अभिप्राय बनाना पड़ेगा, अपनी मान्यता के अनुसार शास्त्रों का अर्थ नहीं होता ।
जैसे डाॅक्टर अति कमजोर अथवा ब्लडप्रेशरादि ठीक करने की औषधि देते हैं परन्तु उस औषधि से कहीं वह रोग ठीक नहीं होगा ; वह तो आॅपरेशन होने पर ही ठीक होगा । ऐसे ही पापों की तीव्रता में फँसे जीवों को पहले मंदकषायों में लगाते हैं । तीव्र व्यसनादि से छुड़ाते हैं परन्तु इतने मात्र से मिथ्यात्व नहीं मिटेगा । मिथ्यात्व तो तत्वनिर्णय, भेदज्ञान पूर्वक आत्मरुचि होने पर ही मिटेगा ।
जैसे चक्ररत्न आयुधशाला में प्रकट हो जाने पर चक्रवर्ती को छह खण्डों पर विजय प्राप्त होती ही है, वैसे ही जिस सुदर्शन (सम्यग्दर्शन) चक्र प्रकट हुआ, वह अल्पकाल में मुनि, अरहंत, सिद्ध बनेगा ही बनेगा । निरुद्यमी रहकर वैसा हीन ही बना रहे ऐसा सम्भव नहीं, उसी प्रकार सम्यकदृष्टि मुक्तिमार्ग में निरुद्यमी रह नहीं सकता । क्रमबद्ध रूप से स्व पर्याय की योग्यतानुसार पुरुषार्थ भी होगा, कर्म का क्षय आदि भी होगा और वह अन्तरात्मा परमात्मा भी बनेगा ।
आत्मकल्याण का मार्ग तो सहज है, उसमें हठ का काम नहीं । यदि मात्र क्रियाओं की खींचतान में लगे रहे तो अन्तर का मर्म वैसे ही नहीं मिलेगा जैसे हाथ को अकड़ कर दिखाने से नाड़ी पकड़े जाने पर अन्तर का हाल मालूम नहीं पड़ता, तब इलाज कैसे हो ?
यद्यपि पहले पढ़ना आवश्यक है, परन्तु पढ़ते-पढ़ते सम्यक्त्व, ध्यानादि नहीं होता है । कहीं आॅपरेशन किताबें देख-देख कर नहीं किया जाता है पहले निर्णय करने के पश्चात आॅपरेशन प्रारम्भ करना ही बुद्धिमानी है । वैसे ही मुक्तिस्वरूप एवं मुक्तिमार्ग का स्वरूप यथार्थ समझ कर सम्यक प्रतीति पूर्वक मुक्तिमार्ग का प्रारम्भ होता है ।
दुःख दूर करने हेतु सर्वप्रथम दुःख रहित निज चैतन्य स्वरूप स्वीकारना अनिवार्य है । वस्तुस्वरूप की दृष्टि से देखा जाए तो दुःख है ही नहीं, तब दुःख की कल्पना तो विलय को प्राप्त होती ही है, दुःख दूर करने की चिन्ता रूप महादुःख भी सहज ही दूर हो जाता है । अहो ! मैं तो ‘त्रिकाल ज्ञानानदमय हूँ’ - ऐसा अनुभूतिपूर्वक परम समरसी भाव का वेदन होता है ।
जैसे ‘मैं देव, नारकी, तिर्यंच नहीं हूँ’ - ऐसी प्रतीति है, वैसे ही मनुष्य शरीर में रहते हुए भी मैं मनुष्य नहीं, गृहस्थ नहीं, राग नहीं, दुःखी, संसारी, अपूर्ण नहीं, ज्ञानमात्र हूँ - ऐसी प्रतीति होने पर ही मुक्ति के मार्ग का प्रारम्भ होता है ।
जैसे मंदिरादि मेरे नहीं हैं अतः उनके ग्रहण के तो नहीं, त्याग संबंधी विकल्प भी नहीं होते वैसे ही जिन्हें अपना समझ लिया है ऐसे धन, स्त्री, वस्त्र, कुटुम्ब आदि में भी परबुद्धि आ जाने पर उनके प्रति ममत्व छूट जाता है अतः उनके ग्रहण-त्याग-सम्बन्धी सभी विकल्प विलय को प्राप्त हो जाते हैं । जो अपने हैं ही नहीं उनका त्याग भी कैसा ? अतः मैंने त्याग किया ऐसी मान्यता दम्भमात्र है ।
संकल्प बिना दिन भर भोजन न करे तथा विकल्प भी अन्य कार्यों में उलझा रहने के कारण न आवे तो भी उपवास नहीं कहलाएगा, वर्ष भर पढ़े परन्तु फार्म न भरा हो (संकल्प न हो) तो डिग्री तो दूर, परीक्षा में प्रवेश भी नहीं मिलेगा, वैसी ही पूर्णत्व के संकल्प बिना पूर्णत्व प्रकट होने (सिद्धत्व) का मार्ग प्रारम्भ नहीं होता ।
अज्ञानी की जिनभक्ति तो आजीविका के लिए कार्य करने वाले कर्मचारी के समान है । ज्ञानी की भक्ति तो स्वयं में ‘कुछ कमी नहीं’ ऐसी मान्यता सहित उपयोग स्वयं में स्थिर नहीं हो इसलिए मात्र बीच में भूमिकानुसार आती है । वह ‘अवैतनिक सेवक (आॅनेरी आॅफीसर)’ की भाँति निष्काम होती है ।
पर में निमित्तपने के छल से कर्तृत्व का अभिप्राय आत्मघातक है । निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी अनेक परिणतियों में सहज रूप से होता है उसमें खींचतान नहीं, तुझे विकल्प क्यों ? तू स्वलक्ष्य से च्युत क्यों होता है ।
विभाव परिणतियों को ज्ञान द्वारा प्रथम ललकार तो ! विकल्प में सही स्वभाव पर बल तो दे ! कुछ समय बाद तो स्वयमेव ये कषाय उत्पन्न नहीं होगीं । परन्तु तू तो कषायों को बल प्रदान करते हुए कषायों का अभाव करना चाहता है ।
प्रमाण ज्ञान सूर्य की बिखरी किरणों के समान भेदक नहीं है । शुद्धनय ज्ञानसूर्य की शीशे द्वारा इकट्ठी की गई किरणों के समान मिथ्यात्व को जलाने वाला है । इस अशुद्ध पामर अवस्था में भी प्रभुता के दर्शन कराने वाला शुद्धनय ही है ।
‘आत्मा’ शब्द सुनते ही चौकन्ना हो जावे । ऐसा लगे कि मुझे ही पुकार रहे हैं । चारों ओर से सिमट कर उपयोग उसी ओर केन्द्रित हो जावे, आत्मवैभव को सुनकर रोम-रोम उल्लसित हो जावे । उस प्राप्य वैभव की प्राप्ति हेतु अन्तर्मुखी हो जावे । बाह्य की प्रतिकूलताएँ या प्रलोभन भासित न होवे यदि सहज भासित हो तो बाधक समझे, तभी आत्मरुचि जगी - ऐसा कहा जायेगा । जब तक आत्मचर्चा में ऐसा लगे कि किसी और की बात है तब तक आत्मरुचि नहीं ।
जैसे लौकिक में कदम-कदम पर पैसे की जरुरत पड़ती है - ऐसा कहते हैं परन्तु वहाँ तो पुण्योदय होने पर बिना पैसे के ही अनुकूलताएँ दिखती हैं परन्तु आत्मा बिना मोक्षमार्ग नहीं सधता, यहाँ तो कदम-कदम पर आत्मा अनिवार्य है ।
जैसे भारत में बाढ़ आयी, पिताजी का आॅपरेशन हुआ…- इत्यादि कथनों में पूरे भारत में बाढ़ नहीं आई, पिताजी के पूरे शरीर का आॅपरेशन नहीं हुआ अपितु अंश में ही है वैसे ही आत्मा रागी है इस व्यवहार के कथन को पढ़कर पूरी आत्मा को रागी मत मान लेना, मात्र एक समय की पर्याय (अंश) में ही राग है । आत्मस्वभाव तो उस समय भी राग से सर्वथा पृथक ही है ।
अज्ञानी त्याग के बहाने त्याग का कर्तृत्व ही ओढ़ता है ।
जैसे रुई की गाँठ को धुनिया धुन कर उसका रेशा-रेशा अलग कर देता है, तभी वह रुई उपयोग में आती है वैसे ही आचार्यों की गाथाओं के पश्चात के आचार्यों एवं ज्ञानियों ने मर्म खोल व्याख्या करके हमारे लिए परमोपयोगी बना दिया है ।
जैसे शैवाल (काई) के भीतर निर्मल जल भरा है उसी प्रकार रागादि विकार तो मात्र ऊपर-ऊपर हैं अन्तर में निर्मल ज्ञानानन्द लहरा रहा है । अतः दुःखी होने की कोई बात नहीं है । जैसे अपना लोटा जब जरा जोर से डालते हैं तो काई स्वयं फट जाती है और लोटे में निर्मल जल भर जाता है उसी प्रकार उपयोग को भेदविज्ञान के बल से जब अन्तर में डुबाते हैं तो अतीन्द्रिय आनन्द का आस्वादन होता है परन्तु यदि कोई यही सोचता रहे कि पहले काई हट जाये तब मैं लोटा भरूँ तो प्यासा ही मरेगा, वैसे ही ‘पहले आस्रव हटें तब मैं शुद्धात्मानुभव करूँ’ - ऐसा सोचने वाला संसार में ही भ्रमेगा ।
जैसे प्रवेश निषेध का बोर्ड घर के दरवाजे पर घरवालों के लिए नहीं अपितु बाहर वालों के लिए होता है, वैसे ही ‘ज्ञानमात्र आत्मा’ कहने से आत्मा में परद्रव्यों एवं परभावों का निषेध होता है । आत्मा में रहने वाले अनन्त गुणों का नहीं क्योंकि वे तो घरवालों के समान आत्मा के साथ तादात्म्यरूप हैं ।
बहिरात्मा, अन्तरात्मा का विकल्प कुबुद्धियों को ही होता है, सुबुद्धियों को नहीं । ये विकल्प संसाररूप स्त्री को ही प्रिय हैं, मुक्ति-स्त्री को नहीं । बहिरात्मा, अन्तरात्मा दोनों विशेष (पर्याय) हैं । द्रव्यदृष्टि में इन विकल्पों को अवकाश कहाँ ? वहाँ मात्र ‘आत्मा हूँ’ ऐसा प्रतीति में आता है ।
अवश = जो अन्य के वश नहीं हो अर्थात स्ववश । उसका जो कर्म वही आवश्यक है ।
शुद्धात्मा तो त्रिकाल ज्ञानमात्र है ही, अनुभवरूप शुद्ध पर्याय भी ज्ञानममात्र है अर्थात विकारों से शून्य है ।
ज्ञानी का तो जीवन ही आत्मामय है उसके समस्त प्रश्नों का समाधान आत्मा है । बालक के अनेक प्रश्नों के उत्तर ‘माँ’ की भाँति ।
जहाँ अपना आरक्षण न हो वहाँ से जबरन उठा ही दिया जाता है । लोक में भी अपनी सीट पर बैठना उचित है । परमार्थ में भी अपना ध्रुव स्वभाव ही अपना आरक्षित स्थान है अतः वहीं जमना योग्य है ।
संयोग एवं पर्यायों में तो आकुलतामय परिभ्रमण ही है ।
जैसे कोई व्यक्ति वातानुकूलित कमरे से बाहर आना पसंद नहीं करता वैसे ही ज्ञानी को निजात्म स्वभाव से बाहर निकलना सुहाता नहीं है । जैसे वातानुकूलित कक्ष से एकाएक बाहर आ जाने पर जुकामादि हो जाते हैं वैसे ही निज चैतन्यरस से निकलकर बाहर आने पर रागादि विकारी भाव हुए बिना नहीं रहते जिससे निर्विकल्प सहजानन्द का घात होता है पर्याय में दुःख का वेदन होता है और जल से निकली मछली की तरह तड़पन होती है ।
जिसे चैतन्य ऋद्धि प्रकटी, आत्मप्रसिद्धि हुई उसे बाह्य ऋद्धि-सिद्धियाँ तुच्छ भासित होती हैं । वह उनमें अटके कैसे ? उसे तो उनकी महिमा ही नहीं आती । उसके तो रग-रग में चैतन्यनाथ की महिमा बस रही है। धन्य है वह निजनाथ का आराधक ! अल्पकाल में जिननाथ बनेगा ।
धन्य है मुनिदशा ! जहाँ अंदर जावें तो अनुभूति का आनन्द, बाहर निकलें तो तत्त्वचिन्तन । तत्त्वचर्चा, तत्त्वोपदेश आदि के आ जाने वाले विकल्पों को भी हेय मानकर अन्दर आत्मस्वरूप में ही थिरता का पुरुषार्थ ।
जैसे वैद्य विभिन्न रोगियों की प्रकृति, परिस्थिति, आयु आदि अलग होने के कारण एक ही रोग होने पर विभिन्न औषधियाँ देता है वैसे ही अनेकों जीवों के भाव, उदय, क्षयोपशम आदि भिन्न-भिन्न होने के कारण उन्हें चार अनुयोगों की शैलियों से उपदेश दिया है परन्तु चारों अनुयोगों का प्रयोजन एक ही है । प्रथमानुयोग एवं चरणानुयोग में भी जहाँ मुख्यतया कषाय घटाने का उपदेश दिया वहाँ भी धर्मधारण होने की पात्रता उत्पन्न कराना है । वहाँ भी ज्ञानी के जीवन द्वारा, परिणति के वर्णन द्वारा धर्म में रुचिवन्त कराते हैं । परन्तु उसे सुनकर कोई मंदकषाय में ही धर्म मानकर अटक जावे तो पुण्य बाँध कर भले स्वर्ग चल जावे परन्तु भव-भ्रमण का अन्त नहीं आता । मुक्तिमार्ग तो पुण्य-पाप के स्वरूप को यथार्थ समझ कर उनसे भिन्न स्वभाव का आश्रय होने पर ही प्रारम्भ होता है ।
दोषों को जानकर चिन्ता करने तथा दुःखी होने से दोषों का अभाव नहीं होता । निर्दोष स्वभाव का आश्रय दोषों को दूर करने का सम्यक पुरुषार्थ है । लोक में भी विवेकी जाते समय बीच में गंदगी पड़ने पर स्वयं ही वहाँ से हट कर स्वच्छ बगीचे में जाकर आनन्दमय विश्राम पाता है । गंदगी के पास बैठकर रोने से तो गंदगी की दुर्गन्ध जनित दुःख मिटने वाला नहीं । वैसे ही दोषों की दृष्टि से कभी निर्दोष दशा की सृष्टि नहीं होगी ।
बस में जल्दी जाने की आकुलता से शान्त से न बैठे, खड़े-खड़े विकल्प करे तो भी जल्दी पहुँचने वाला नहीं । ठीक इसी प्रकार अपनी आकुलता से अपना सुखानुभव रुकता है, बाह्य के कार्य नहीं रुकते । जैसे पंचायतें (पदाधिकारी) बदल जाने से मन्दिर संस्थाएँ, माली बदल जाने से बाग, ड्राइवर बदल जाने से गाड़ी का कुछ नहीं बिगड़ता उसी तेरे कार्य की ओर से विकल्प हटा लेने से कार्यों की स्वतंत्र व्यवस्था में कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है । वे तो स्वयं की योग्यतानुसार हो रहे हैं ।
जैसे पानी बरसने पर तपन, आँधी आदि स्वयं शान्त हो जाते हैं वैसे ही परिणति में धर्मामृत बरसने पर भवताप, विकल्पों की आँधी शान्त हो जाती है । एक बार निहार तो सही निज चैतन्य की ओर…
ज्ञानियों का कल्पवृक्ष तो निज चैतन्य भाव ही है क्योंकि जो वह चाहता है वह उसके अन्दर विराजमान चैतन्य ही प्रदान करता है । बाहर के कल्पवृक्ष से मिलने वाली पंचेन्द्रियों की भोग-सामग्री की तो वाँछा ज्ञानी को नहीं रही ।
काया के अशुचिपने का वर्णन द्वेषपूर्वक काया का घात करने के लिए नहीं किया अपितु काया की यारी (ममत्वादि) छुड़ाने का प्रयोजन है । वैसे ही पुण्य के हेयपने का वर्णन मात्र पुण्य की रुचि छुड़ाने के लिए किया है । पुण्य तो अभी निचली भूमिका में हेय मानने पर भी छूटना संभव नहीं है । पुण्य को छोड़कर पाप में लगने से अथवा प्रमाद और स्वच्छन्द रूप प्रवृत्ति करने से तो पुण्य का हेयपना होता नहीं ।
जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन के समय उनकी तथा अपनी पर्याय के अन्तर को मुख्य किया है अतः खेद तो हुआ, पर्यायजनित दोषों के प्रति ग्लानि तो हुई पर निर्दोषता का उपाय न बन सका । अब तो यह विचारना है कि पर्याय में अन्तर है तो भले ही होवे परन्तु स्वरूप तो एक समान है । जब स्वरूप समान है तो मैं क्यों दुःखी रहूँ ? मुझे भी स्वरूप के आश्रय से निज प्रभुता का आनन्द लेना है । शीघ्र ही स्वाधीन वैभव पाकर निजपद में स्थिर हो जायें - यही भावना है ।
भक्त - हे नाथ ! क्या आप जैसा पुरुषार्थ करके मैं प्रभु नहीं बन सकता ? जिनेन्द्र - अहो ! तू प्रभु तो है ही - ऐसा स्वीकार करके स्वरूप के आश्रय से ही पर्याय में भी प्रभुता प्रगट करने का पुरुषार्थ अवश्य होगा परन्तु संयोग, निमित्त, पर्यायादि के आश्रय से ऐसा पुरुषार्थ भी सम्भव नहीं ।
आत्मन ! पर सम्बन्धी विकल्पों की उलझन में उलझकर निज कल्याणमय सुलझे हुए सुगम पथ को दुर्गम बनाना कहाँ की बुद्धिमानी है ? शीघ्र ही परसम्बन्धी समस्त विकल्पों से निवृत्त हो ।
आत्मन ! ‘एक मैं स्व, शेष पर’ - ऐसा सम्यक विभाग करके फिर पर में इष्ट-अनिष्ट, शुभ-अशुभ का विकल्प करके अटकना योग्य नहीं । चित्स्वरूप को छोड़कर दूसरा कोई भी तेरे लिए आश्रय योग्य नहीं । और तो और निज चित्स्वरूप की ओर संकेत करने वाले देव-शास्त्र-गुरु, ज्ञानीजन आदि की ओर अटके रहने से भी स्वानुभूति दुर्लभ ही रहेगी । अतः उनमें अन्तर मत करना । जैसे बाह्य, स्थूल ब्रह्मचारी की दृष्टि से समस्त स्त्रियाँ भोग्य नहीं, वैसे ही निश्चय ब्रह्मचर्य की प्राप्ति की भावना वाले तुझे कोई परद्रव्य या परभाव टिकने योग्य नहीं । उनकी ओर दृष्टि न चाहने पर भी चली जाने पर भेदविज्ञान के बल से स्वात्म विचार ही योग्य है ।
स्वभावाश्रय से पर्याय में प्रभुता का पुरुषार्थ सहज है, पराश्रय से असम्भव ।
पर का त्याग तो करना लेकान स्वरूप के आश्रय से, तत्त्वज्ञानपूर्वक, निज स्वभाव साधन के लिए । तभी त्याग की सार्थकता है । यदि त्याग पर के आश्रय से कषायपूर्वक, मान-प्रतिष्ठा आदि के लिए हुआ तो केवल अशान्ति ही मिलेगी ।
अहो आत्मन ! तेरे पूर्ण ज्ञानानन्द स्वभाव में पर की गुंजाइश भी नहीं, जरुरत भी नहीं और सामर्थ्य भी नहीं है ।
पराश्रय से न तो आज तक कोई सुखी हुआ है, न है और न होगा । अतः स्वाश्रय द्वारा ही सुखी होना संभव है ।
पर में उलझने से स्वयं का कल्याण दुर्लभ हो जाता है । अतः पर को सुलझाने के विकल्पों में उलझना योग्य नहीं । यदि विकल्प भी आवें तो सामान्य उपदेश तक ही सीमित रखना । तत्त्वज्ञान पूर्वक उन झूठे विकल्पों से हटकर निर्विकल्प दशा का सम्यक पुरुषार्थ करना योग्य है ।
जैसे भावशून्य क्रिया कार्यकारी नहीं वैसे ही भेदविज्ञान रहित केवल विशुद्धभाव भी मुक्तिमार्ग में कार्यकारी नहीं ।
जैसे पुण्य समस्त भोगियों के भोगों का मूल है वैसे ही समस्त मुक्तिमार्ग का मूल सम्यग्दर्शन है ।
आत्मन ! लोक में भी यह कोई नहीं कहता कि अंधेरा भगाओ अपितु यह कहता है कि दीपक जलाओ फिर तू मोह, कर्म, विकल्पों के नाश की चिन्ता क्यों करता है ? शीघ्र ही सम्यग्ज्ञान रूप चित्प्रकाशमय दीपक जला ले, मोहादिक स्वयं दूर हो जायेंगे । निमित्ताधीन बुद्धि तो साक्षात पराधीनता है क्योंकि निमित्त अर्थात पर योग कल्पना । तब फिर निमित्त के आश्रित रहने या निमित्तों का बहाना बनाते रहने से शान्ति कैसे संभव है ?
जैसे शीलवान पुरुष परस्त्री को ओर आँख उठा कर नहीं देखता वैसे ही परमशीलस्वरूप ज्ञानी पर सन्मुख होकर पर को नहीं जानता । अपनी स्वच्छ्त्व शक्ति की व्यक्तता होने पर सहज ज्ञान में आ भी जावे तो उनमें किसी प्रकार निजत्व नहीं जोड़ता ।
आत्मन ! संसार तो कोयले के समान है जिसके सुधारने के विकल्प में स्वयं का बिगाड़ मत कर । जैसे कोयले को जलाने से श्वेतता (उज्जवलता) प्रकट होती है वैसे ही संसार सम्बन्धी विकल्पों को तत्त्वविचार द्वारा जला देने पर ही परिणामों की उज्जवलता सम्भव है ।
अनुकूलताओं की चाह पापरूप होने से प्रतिकूलताओं को ही जन्म देती हैं । अतः वस्तुस्वभाव का विचार कर अनुकूल-प्रतिकूल के विकल्प का अभाव ही शान्ति का सच्चा उपाय है ।
अहो ! धन्य है ज्ञानमती सीता को, जो राम द्वारा वनवास दिए जाने पर भी यद्यपि चारित्रमोह वश किंचित खेद होता है तथापि स्वरूप की सावधानीपूर्वक विचारती हैं - आत्मन ! पंचपरमेष्ठियों द्वारा बताया आत्माराम रूपी तेरा सच्चा स्वामी तो तेरे पास ही है तब फिर भय किसका ? बाह्य दृष्टि से तो न कोई वहाँ शरण था और न यहाँ, परन्तु अन्तर्दृष्टि से तो आत्मा कभी अशरण है ही नहीं । परम ध्रुव स्वभाव स्वयं ही स्वयं के लिए सच्चा शरण है । अतः तत्त्वज्ञान पूर्वक स्वयं पर्याय में उठे क्षणिक शोक का निवारण करती हुई राम को भी यही संदेश देती है कि जगत की झूठी निंदा के भय से धर्म नहीं छोड़ना ।
अरे ! संसार तो कोयले के समान है । जैसे कोयला ठंडा हो तो कालापन देता है और उष्ण हो तो जलाता है उसी प्रकार संसार राग करने योग्य तो नहीं परन्तु ध्यान रहे, द्वेष करने योग्य भी नहीं, मात्र भेदज्ञानपूर्वक उपेक्षा योग्य है । जानने में आये तो तमाशगीर (ज्ञातामात्र) रहना ही योग्य है ।
जहाँ पर की सहायता का विकल्प है वहाँ आकुलता है । सर्व वस्तुएँ पर से असहाय रूप से स्वभावतः परिणमन करती है । पर की सहायता से विकारों में कमी, वृद्धि, परिवर्तन तो भले ही दिखे परन्तु विकारों का अभाव निर्विकार स्वभाव के आश्रय से ही होता है ।
आत्मन ! संयोगों की प्रतिकूलता, कर्म का उदय, पुरुषार्थ की शिथिलता का विचार तो बहुत किया, आज तो इनसे निरपेक्ष स्वरूप की पूर्णता को निहार, विचार ! स्वभाव के आश्रय से स्वयं ही पुरुषार्थ, सुख आदि प्रकट हो जायेंगे ।
जैसे बादलों के होने पर सूर्य का कुछ नहीं बिगड़ता मात्र उसको देखने वाला ही सूर्य के प्रकाश से वंचित रहता है । मात्र उतना क्षेत्र ही प्रकाश शून्य होता है सूर्य नहीं । उसी प्रकार कर्मों का आवरण होने पर भी आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं हुआ मात्र कर्मों का अनुभवन (मोहमय वेदन) करने वाली पर्याय ही ज्ञान सुख से वेचित रहती है । अतः अहो आत्मन ! पर्याय से भिन्न पूर्ण प्रकाशमान, सुखसागर आत्मस्वभाव को निहार कर तृप्त हो ।
आत्मन ! पर निन्दा की प्रवृत्ति अति निन्दनीय जानकर दूर से छोड़ । यदि निंदा का विकल्प भी आवे, तो परिणति में चलने वाले दोष की निंदा कर उनको दूर करने हेतु निर्दोष स्वरूप का आश्रय ग्रहण कर ।
मात्र दूसरों की निंदा करने तथा स्वयं को उनसे श्रेष्ठ सिद्ध करने के झूठे उपायों से कोई प्रशंसनीय नहीं हो सकता । प्रशंसनीय तो वही है जिसने परम प्रशंसनीय स्वभाव का आश्रय ग्रहण किया है । जिसकी परिणति में विकारों की न्यूनता हुई है । देखो ! पं श्री टोडरमलजी ने ठीक ही लिखा है कि, “रागादि विकारों से व ज्ञान की हीनता से तो जीव निन्दायोग्य होते हैं और रागादिक की हीनता से व ज्ञान की विशेषता से स्तुतियोग्य होते हैं ।”
आत्मन ! शुद्धात्मा की रुचि जागृत करने हेतु निरन्तर शुद्धात्मा की महिमा, शुद्धात्मा की आराधना के फल को निरन्तर विचार कर । बीच में यदि विषयों का विकल्प आवे तो तुरन्त उनका स्वरूप एवं फल विचार कर वहाँ से हट जा, इसी में हित है ।
स्वागत करने का अर्थ है स्व+आगत अर्थात पर का अपने में मिला या आया हुआ अनुभव करना या मानना । वस्तुतः आत्मस्वभाव में कभी भी आस्रव होता ही नहीं । परभावों का चैतन्य में प्रवेश कभी भी किसी प्रकार सम्भव नहीं । चैतन्य की स्वतंत्र सत्ता सदा निरास्रव स्वभावतः ही है । मात्र पर्याय में ऐसे स्वभाव से च्युत होने से विकारी भावों की उत्पत्ति होती है । सो पर्याय में स्वभाव की स्वीकृति, अनुभव, स्थिरता होने पर पर्याय में भी इन विकारी भावों की उत्पत्ति नहीं होती, इसी परिणति का नाम संवर है । पश्चात तत्सम्बन्धी नवीन कर्म भी नहीं आते यही द्रव्य संवर है । वस्तुतः ज्ञानी की दृष्टि में तो स्वभाव प्रकट हुआ, संवर नहीं । संवर तो परिणति का ही नाम है । इसलिए तो आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - ‘संवर को उत्पन्न करती हुई चैतन्य ज्योति प्रकट होती है ।’
लोक में भी ‘अँधेरा भगाओ’ - ऐसा तो नहीं कहते, ‘प्रकाश लाओ’ - ऐसा बोलते हैं क्योंकि विश्वास है दीपक प्रकाशमय है अतः प्रकाश स्वयं हो जायेगा तब अंधेरा रह ही नहीं सकता । वैसे ही आत्मा स्वयं ही शिवस्वरूप है ऐसे विश्वासपूर्वक आत्मा को उपयोग में लाओ स्वयमेव सुख प्रकट हो जायेगा, दुःख नहीं रहेगा । आत्मा का आश्रय लिये बिना दुःख दूर होने की चिन्ता तथा सुख प्रकट होने की आशा व्यर्थ है ।
जैसे निर्मल दर्पण अपने समीप आई किरणों को आत्मसात नहीं करता, उसी प्रकार निर्मल ज्ञान भी परभावों को परावर्तित कर देता है । जबकि मोह पदार्थों को आत्मसात कर लेता है । यही मोही के दुःख का कारण है ।
नोकर्म का संयोग तथा कर्म का उदय होने पर भी उसमें निजत्व या इष्ट-अनिष्ट की कल्पना तो मोह से ही हुई है । अतः वर्तमान के स्वरूप से विमुख मोह के परिणाम को ही दुःख का मूल कारण जानकर व्यर्थ पर को दोष न दें ।
अज्ञानी को कोई सुखी तथा ज्ञानी को कोई दुःखी करने में समर्थ नहीं क्योंकि सुख-दुःख का सम्बन्ध पर के साथ नहीं । इसलिए आचार्यों ने समस्त दुःखों के दूर करने का एकमात्र उपाय यथार्थ तत्त्वाभ्यास को ही कहा है ।
जैसे नाविक नाव में अभिप्रायपूर्वक पानी नहीं भरता । कदाचित छेद हो जाने से पानी भरने लगे तो छेद बन्द करने तथा पानी उलीचने का तथा यथाशक्ति पूरा प्रयत्न करता है क्योंकि उसे विश्वास है नाव में पानी भरने से नाव सागर में डूब जाएगी । वैसे ही ज्ञानी का अभिप्राय तो भोगादि जुटाने तथा रागादि करने का होता नहीं । कदाचित सहज जुट जावे तो उन सहज प्राप्त भोगों को भी भेदविज्ञान के बल से बाहर कर देता है अर्थात भिन्न अनुभव करता है । स्वात्मविचार, तत्त्वनिर्णय, ज्ञानाभ्यास आदि द्वारा उनकी ओर उपयोग जाने का छेद बन्द कर देता है । पुरुषार्थ की शिथिलता होने से हो जाने वाली कषायों के प्रति भी प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान का मार्ग अंगीकार करता है इस प्रकार वह अपनी परिणति रूप नाव को बड़ी सावधानीपूर्वक भवसागर से पार ले जाता है ।
जैसे वैद्य रोगी के दोषों की ओर ध्यान न देकर उनके प्रति दयाभाव से इलाज ही करता है । वैसे ही ज्ञानीजन भी जगत के अज्ञानी जनों के दोषों की ओर ध्यान देकर दयाभाव से उन्हें हित का मार्ग ही बताते हैं । क्रूर दुर्जनों के प्रति भी क्षोभ न करके माध्यस्थ भाव रखते हैं ।
जैसे स्त्री का श्रृंगार मात्र उसके पति के लिए है उसे देखकर कोई अन्य यदि विकार करे तो पापी ही है । वैसे ही पुद्गल का समस्त परिणमन पुद्गलमय पुद्गल के लिए ही है । उसमें अपनत्व, भोक्तृत्व, कर्तृत्व आदि की मान्यता करने वाला मिथ्यादृष्टि ही जानना ।
जैसे स्त्री को पति के अतिरिक्त अन्य के आश्रय से श्रृंगारादि करना योग्य नहीं वैसे ही स्वाध्याय तपादि धर्मसाधन परलक्ष्य से करना योग्य नहीं । अहो ! जिनधर्म का सेवन तो संसारनाश के लिए किया जाता है ।
पर्यायदृष्टि से हिंसा का अभाव नहीं हो सकता क्योंकि कदाचित बाह्य हिंसा न भी हो तो भी विकल्पों के कारण अपने अतीन्द्रिय सुख के घात रूप भावहिंसा निरन्तर होती है । अतः जिसमें विकल्पों के लिए अवकाश ही नहीं, ऐसी निर्मल द्रव्यदृष्टि ही अहिंसा की जननी है ।
जैसे ठग का विश्वास करना दुःखमय ही है वैसे ही इन क्षणिक संयोगों, पर्यायों आदि का विश्वास करना अनन्त दुःखमय संसार का ही कारण है ।
जिन्हें आत्मकल्याण की रुचि नहीं मात्र जगत की झूठी मान प्रतिष्ठा की ही चिन्ता है उन तुच्छ बुद्धि वालों को यह भेदविज्ञान की चर्चा सुहाती भी नहीं ।
जैसे गंदी हवा (वातावरण) में रहने वाले एवं गंदा (तामसी) भोजन करने वाले शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं रह पाते वैसे ही कुसंगति तथा लौकिक संगति में रहने वाले, कुविचार करने वाले आत्मीक दृष्टि से स्वस्थ एवं शान्त नहीं रह पाते ।
जैसा हीरा आदि नग आभूषणों से युक्त होकर शीलवान के अंगों की संगति पाकर विशेष शोभा को प्राप्त होता है वैसे ही ज्ञान भी आचरण से युक्त होकर चैतन्य स्वभाव को समर्पित होता है तभी शोभा को प्राप्त होता है ।
जैसे सूप की फटकार से धान्य साफ हो जाता है उसी प्रकार गुरु की फटकार से शिष्य के अवगुण दूर हो जाते हैं ।
आत्मन ! पर को सुधारने के भाव से भी कषाय करना योग्य नहीं । कषाय से स्वयं का सुधार नहीं होता तब पर का सुधार कैसे होगा ? और फिर पर में तेरा अत्यन्ताभाव है तब क्यों कर्तृत्व का बोझ लादकर आकुलित होता है ? यद्यपि कषाय भी क्रमबद्ध रूप से न चाहने पर भी हो जाती है तो उसे हेय मानते हुए निःकषाय स्वभाव का विचार, आश्रय आदि करना ही उपादेय है ।
वास्तव में जहाँ सम्यग्दर्शनादि अतिशय प्रकट होते हैं ऐसा स्वक्षेत्र ही परमार्थ से अतिशय क्षेत्र है । वही दर्शनीय है, वन्दनीय है और आराधनीय है - ऐसे आत्मारूप अतिशय क्षेत्र की वन्दना के बिना शान्ति सम्भव नहीं ।
अहो ! निज तत्त्व की याद दिलाने वाले, स्वभाव में स्थिर होने की मूक प्रेरणा करने वाले इन अनुपम जिनबिम्बों को देख कर भी जिसे प्रसन्नता नहीं होती वह तो गाय के उस बछड़े से भी गया बीता (हीन) है जो माँ (गाय) से मिलाने वाले ग्वाले को देखकर परम हर्षित होता है ।
अरे मोही प्राणी ! वीतराग प्रभु में रागी की झूठी मान्यता करके उनसे भीख माँगते रहने से शान्ति सम्भव नहीं । शान्ति के लिए तो स्वयं की परिणति में वीतरागता प्रकट करना योग्य है परन्तु ध्यान रखना वीतरागता प्रकट करने से नहीं होगी अपितु राग से भिन्न स्वभाव के आश्रय से सहज प्रकटती है । अतः निज स्वभाव की सम्यक प्रतीति पूर्वक वहीं रम जावो - यही एकमात्र कर्तव्य या सुख का उपाय है |
आत्मन ! अनादि से पर में विश्वास करके बहुत दुःख भोगे हैं । एक बार तो निज का विश्वास करके देख, सच्चा सुख अवश्य प्रकट होगा ।
जैसे रोगी का अंतरंग रोग मिटे बिना बाह्य वस्त्र, वातावरणादि बदलने मात्र से वेदना दूर नहीं होती वैसे ही अंतरंग मोह मिटे बिना मात्र संयोग, वेश, क्रियाएँ व शब्द बदलने से दुःख दूर नहीं होता । अतः मोह दूर करने हेतु निर्मोह, निर्दोष, चिदानन्द स्वभाव की दृष्टि कर ।
देखो तो मोह की ढ़ीठता ! जो निरन्तर अपनी ओर देख रहे हैं उनकी ओर तो देखते हैं, परन्तु निज की ओर देखने का समय ही नहीं, परन्तु याद रख ! वैद्य के दर्शन मात्र से रोग नहीं मिटता ।
जैसे घर से बाहर होने पर अपने घर की सहज ही याद आती है । घर का संदेश देने वालों के प्रति स्वयमेव हर्ष होता है परन्तु घर में आने पर वे विकल्प स्वयमेव नहीं रहते वैसे ही ज्ञानी को स्वभावानुभूति से बाहर होने की दशा में सहज ही बारम्बार चिदानन्द की याद आती है । देव-शास्त्र-गुरु ज्ञानीजन, धर्मायतनों के प्रति स्वयमेव राग उमड़ता है, परन्तु वह तो निज में रमना चाहता है ।
आत्मन ! जितना-जितना कर्तृत्व का बोझ अधिक लादोगे उतना ही अधिक दुःख होगा । ज्ञातापने के अतिरिक्त जितने भी परिणाम (कर्ता, भोक्तादि) हैं, वे सभी दुःखरूप ही हैं ।
पराश्रय छूटे बिना दुःख मिटता नहीं और स्वाश्रय हुए बिना सुख होता नहीं, अतः स्वाश्रय पूर्वक पराश्रय का परिहार करना हो योग्य है । पर सम्बन्धी विकल्प आवे तो भी ‘ये मेरे से अत्यन्त भिन्न हैं’ - ऐसा विचार कर वहाँ से विरक्त होना योग्य है ।
आत्मन ! अनादि से तूने अपने को भी जाना और आत्मा को भी जाना परन्तु आत्मा को तो पर जाना और अपने को शरीर पर्यायादि रूप जाना । आज तक ‘मैं आत्मा हूँ’ - ऐसा नहीं जाना इसलिए दुःख का अभाव नहीं हुआ ।
अहो ! सुखमय तो आत्मस्वभाव है । फिर आत्मस्वभाव में अभेदपना हुए बिना सुख कैसे सम्भव है ? पर के साथ लेन-देन रूप वस्तु का स्वरूप नहीं तब फिर पर से सुख पाने के झूठे विकल्पों द्वारा सुखी होना कैसे सम्भव है ? अतः समस्त पराश्रयबुद्धि छोड़कर सुखी होने के लिए एकमात्र निज में स्थिरता के लिए प्रयत्नशील रह । स्वरूपानुभव का ही पुरुषार्थ कर । अन्य कोई सुख का उपाय है ही नहीं ।
ये शास्त्र मात्र ज्ञान के लिए नहीं, अपितु स्व-पर भेदविज्ञान के लिए है । अतः कर्मादिक का ज्ञान करके सन्तुष्ट नहीं हो जाना । कर्मादिक का ज्ञान होने मात्र से संसार से भय तो लगेगा परन्तु भय दूर किसके आश्रय से करेगा ? अतः कर्मादिक से भिन्न निज सुखस्वरूप की प्रतीति करके निज की शरण को प्राप्त होना ही शास्त्र-स्वाध्याय का प्रयोजन है ।
जैसे दीपक प्रकाशमय है और प्रकाश का कारण है । दीपक प्रकाश को साथ लेकर आता है । दीपक के बिना प्रकाश अकेला कदापि सम्भव नहीं । वैसे ही आत्मा संवरमय है आत्मा की प्रतीति ही संवर को लाती है अर्थात ‘मैं आत्मा हूँ’ - ऐसी प्रतीति होते ही मिथ्यात्वभाव, तत्सम्बन्धी आकुलता तथा उसके निमित्त से होने वाले कर्मों के आस्रव, नोकर्मों का संयोग आदि स्वयमेव रुक जाता है । अनन्त दुःख मिट जाता है ।
जैसे स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहन कर जिनपूजा करते देख अन्य अपवित्र वस्त्रादि वाले लोग स्वयं दूर ही रहते हैं । वैसे ही भेदविज्ञान रूप साबुन तथा समतारूपी जल से निर्मल हुई परिणति से कषायें स्वयं दूर रहती हैं ।
हे सुखार्थी ! जितना अधिक खायेगा उतनी ही भूख बढ़ेगी, जितना बाह्य पेयों का पान करेगा उतनी ही प्यास बढ़ेगी इसी प्रकार औषधि के सेवन से रोग, शरीरादि के आश्रय से क्लेश ही बढ़ेगा । बिना भेदविज्ञान की औषधि सेवन किये ये आकुलता का रोग मिटने वाला नहीं । ज्ञानानुभवन रूप भोजन द्वारा भूख, समतामय अतीन्द्रिय आनन्द रस पीने पर प्यास… मिटना सम्भव है । अतः इन झूठे उपायों से बस कर, शीघ्र स्वभाव का आश्रय कर परम सुखी हो ।
लोक में भी रोज-रोज के झगड़े, कलह, विवादादि से बचने के लिए वहाँ उनसे न्यारे हो जाते हैं । वैसे ही रोज-रोज के दुःखों को दूर करने के लिए आचार्य भेदविज्ञान की प्रेरणा देते हैं । वर्णादि और रागादि से न्यारे निजभाव के सन्मुख होना तथा वहीं स्थिर रहना ही सुखी होने का उपाय है ।
अहो आत्मन ! तू अमूर्तिक, चैतन्य, ध्रुव (कभी न बदलने वाले) निष्कम्प, तेरा इन मूर्तिक, जड़, बदलने वाले क्षणिक कम्परूप शरीर कर्मादि से कुछ भी सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यदि नहीं - तो उठा इन परभावों से अपनी दृष्टि और विश्राम कर निज आनन्दमय ध्रुव चैन्यधाम में ।
आत्मन ! जिसके बाह्य जीवन में सादगी, सरलता नहीं, वह तो तीव्रकषायी है परन्तु बाह्य रहन-सहन में मंदकषाय अज्ञानी को भी हो जाती है । दृष्टि की समीचीनता अर्थात अभिप्राय की निर्मलता पूर्वक भावों की सरलता ज्ञानी के ही सम्भव है । अतः ऐसी सरलता अर्थात निज स्वभाव की समीपता हेतु स्वभाव सन्मुख सम्यक पुरुषार्थ करना योग्य है ।
जैसे कोई चोर पकड़े जाने का आरोप चाँदनी पर लगाने मात्र से दण्डमुक्त नहीं हो सकता, कोई विद्यार्थी बहाने बनाने से उत्तीर्ण नहीं हो सकता, उसी प्रकार कोई कर्मोदय और नोकर्म का बहाना बनाने या उन्हें दोष देने से दुःखमुक्त नहीं हो सकता ।
जैसे जो कहता है कि रास्ते में पत्थर पड़ा था इसलिए ठोकर लगी उसे ठोकर लगना बन्द नहीं हो सकती क्योंकि रास्ते में अनेक पत्थर, काँटे आदि आयेंगे । परन्तु ठोकर लगने में ‘मैं देखकर नहीं चला’ - ऐसा स्वयं का दोष स्वीकार करते हुए स्वयं देखकर चलेगा तो बड़े-बड़े पत्थर होने पर भी ठोकर नहीं लगेगी । वैसे ही जो दुःख का कारण परद्रव्यों कर्मादिक को मानता है वही कभी सुखी नहीं हो सकता । जो स्वयं स्वरूप को भूलने तथा पर में निजत्व, इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करने रूप स्वयं के दोष को दुःख का कारण मानकर स्वरूप की सम्भाल (श्रद्धा, अनुभव, स्थिरता) करता है वही दुःखों से मुक्त अर्थात परमसुखी होता है ।
जैसे नदी के दो किनारे कभी मिलते नहीं, वैसे ही दो द्रव्य, दो गुण, पर्यायादि कभी मिलते नहीं । उनका स्वतन्त्र अस्तित्व त्रिकाल निराबाध है ।
जैसे प्यासे से दयालु पुरुष द्वारा ‘जल पियो’ - ऐसा कहे जाने पर वह तुरन्त अंजुलि बाँध कर तैयार हो जाता है । ऐसे ही ‘मैं एकत्व-विभक्त आत्मा को दर्शाऊँगा’ ऐसा आचार्य देव द्वारा कहे जाने पर योग्य पात्र (आसन्न भव्य) तुरन्त अन्तर्दृष्टि द्वारा स्वभाव की प्रतीति कर मोक्षमार्गी हो जाता है ।
जैसे सूत्र (डोरा) को छोड़ कर मात्र मोतियों के आधार से हार का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता । वैसे ही त्रिकाली ध्रुव को छोड़कर (भूलकर) मात्र क्षणिक पर्यायों में ही निजत्व करना भारी भूल (एकान्त मिथ्यात्व) है । ध्रुव के बिना उत्पाद-व्ययरूप पर्याय की भी सिद्धि नहीं हो सकती ।
विकल्प मात्र में सुख की मान्यता मिथ्यात्व है ।
जैसे हार में सूत्र (डोरे) को ग्रहण करने पर मोतियों का विकल्प न करने पर भी मोती स्वतः क्रमबद्धरूप से ग्रहण हो जाते हैं । वैसे ही ध्रुव स्वभाव का ग्रहण करने पर पर्यायादि के विकल्पों का निषेध होने पर भी पर्यायादि उसमें आ जाती हैं । अतः द्रव्यदृष्टि ही सच्ची अनेकान्तदृष्टि है । आत्मन ! द्रव्य-पर्याय, भेद-अभेद, कर्ता-भोक्ता आदि विकल्पों से हटकर एक चिन्मात्र स्वभाव का अनुभवन ही श्रेयस्कर है । इसी हेतु सम्यक पुरुषार्थ करना योग्य है । स्वभाव के आश्रय में एकान्त का भय छोड़ ।
एकान्त मिथ्यात्व तो अनेक धर्मों का निषेध कर एक को ही मानने में है परन्तु पर से भिन्न एकरूप स्वतत्त्व का अनुभव, स्वीकृति एकान्त नहीं क्योंकि यहाँ एक धर्मी में अनन्त धर्म गर्भित हैं । मात्र उनके विकल्प का निषेध किया है । उनके अस्तित्व का निषेध नहीं है । ‘जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प वच भेद न जहाँ ।’
आत्मन ! अधिक बोलना मूर्खता का प्रदर्शक है । यदि सर्वथा मौन न भी रह सको तो हित-मित-प्रिय के अतिरिक्त तो मौन ही रहना । बाह्य दृष्टि से भी इसी में प्रतिष्ठा है । धर्म की प्रभावना भी इसी में है । क्योंकि अधिक बोलने में निरर्थक प्रलाप, जिसके लिए भयंकर पश्चाताप हुए बिना नहीं रहता । अतः मात्र प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर ही देना, स्वयं अपनी ओर से सम्पर्क बढ़ाना योग्य नहीं ।
आत्मन ! सर्व जीवों के प्रति मैत्री परिणाम ज्ञानी को सहज होता ही है । यदि पक्ष ही करना हो तो व्यक्ति का नहीं, वस्तु (सत्य) का करना । इसी में स्व-पर कल्याण निहित है ।
आत्मन ! जिस पद की योग्यता न होवे उसके लिए दृढ़ता पूर्वक मना कर देना योग्य है अन्यथा आकुलता की वृद्धि ही होती है । वही विचारो जिसको कहने में संकोच न हो तथा वही कहो जिसे करने में संकोच न हो तथा अकेले में भी वही करो जिसको सबके समक्ष करने में संकोच न हो ।
आत्मन ! आत्मविश्वास एवं निर्भयता ही सुखमय है, सफलता की जननी है । अतः भीरुता का त्याग कर धर्म साधन करो । प्रत्येक परिस्थिति में परिस्थिति से निरपेक्ष रहते हुए स्वभाव की दृष्टि करते रहने से कभी अपनी शान्ति भंग नहीं हो सकेगी ।
जगत क्या कहेगा ? इसका विचार किए बिना जिसमें अपना हित होवे वह कार्य मौन होकर करते रहो । अन्तर परिणाम की निर्मलता का लक्ष्य रखो । बाह्य व्यवस्था स्वयमेव ही बदल जायेगी और अपने अनुकूल न भी तो उससे हानि भी क्या है ? पर निजत्व किए बिना पर दुःख कैसे दे सकता है ?
आत्मन ! बाह्य में तो लघुतारूप प्रवृत्ति रखना योग्य है । सम्यक्त्वी तो ‘सब ही के लघु भैया, सबके कुबोल सहे हैं ।’ कोई कितना भी मान दिखाकर तुम्हें हीन समझे या तिरस्कार करे तो भी तुम उसके प्रति किंचित द्वेष परिणाम न करते हुए उसकी मंगलकामना ही करना । उसके प्रति विनयरूप अथवा धर्म से विपरीतता होने पर मध्यस्थतारूप ही प्रवृत्ति करना । इसी में निज-पर का सुधार का अवसर बढ़ेगा ।
दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार करना ज्ञानीपना नहीं अपितु दुष्टता है । दुष्ट के प्रति भी साम्यभाव, मंगलकामना ही ज्ञानी को शोभा देता है क्योंकि ज्ञानी को दुष्ट की मान्यता ही नहीं है तब उसे अज्ञानमय रागादि भाव कैसे उत्पन्न हों ?
मात्र पढ़ लेने से, सुन लेने, सुना देने या विचार करने मात्र से कार्य बनने वाला नहीं । यथार्थ तत्त्वनिर्णय करके करने योग्य कार्य का उद्यमी होना योग्य है । अरे ! स्वभाव के समक्ष कषायों का बल ही कितना है । अतः बारम्बार स्वरूप की शरण लेना ही योग्य है ।
पर की सुनते रहने से अपना कल्याण सम्भव नहीं है । अतः समस्त लौकिक जनों की सुनना छोड़कर दृढ़ता पूर्वक आत्महित करते रहना योग्य है । यदि सुनना ही है तो ज्ञानीजन क्या कहते हैं, सो सुनकर उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना ।
जिस समय कषाय का प्रसंग उपस्थित होवे उस समय मौन रहना ही योग्य है क्योंकि कषायमय वचन स्वयं के लिए तो अहितकर हैं ही लोकनिन्दा के भी कारण बनते हैं तथा कषाय बढ़ने का ही अवसर रहता है ।
जिस पद में होवें उस पद के योग्य समस्त क्रियाएँ करना ही योग्य है । अन्यथा अपने अहित का साथ धर्म के हास्य का भी प्रसंग बनता है । अतः सावधान ! अपने कारण धर्म की अप्रभावना का प्रसंग न बन पाये ।
जिस सत्य वचन से किसी जीव को शंका का प्रसंग बनता है ऐसा सत्य भी नहीं बोलना । ‘दोषवादे च मौनं’ सदैव ध्यान रखना ! जब तक लौकिक संग नहीं छूटा तब तक इस प्रकार का व्यवहार-विवेक भी रखना योग्य है अन्यथा आकुलता, निन्दा, हास्य, भयादि के प्रसंग ही बनेंगे ।
जिसे जिन आज्ञा भंग करने का बहुत भय हो अर्थात आत्मस्वभाव से च्युत होने का भय हो तथा स्वरूप स्थिरता का उग्र पुरुषार्थ होवे । जो आत्मरस का रसिया हो वही वक्तापने का अधिकारी है ।
पुण्य-पाप की समानता समझाने का अर्थ है कि पुण्योदय से मिली सहज अनुकूलताएँ प्रशंसा, भोगादि उपसर्ग के समान भासित होवें तथा पुण्य भाव में वैसी ही तड़पन लगे जैसी मछली को किनारे की बालू में लगती है ।
न तो कभी दूसरों के प्रभाव में आकर अपने श्रद्धान, चर्या, संकल्प से विचलित होना और न कभी दूसरों के ऊपर स्वयं का प्रभाव डालने का प्रयत्न करना । भावों की सरलता से जिसका भला होना है उसका भला सहज ही हो जायेगा ।
प्रत्येक कार्य में आत्महित का प्रयोजन रखना ही योग्य है । पर को दिखाने व प्रभावित करने के लिए व्यर्थ बाह्य आडम्बर क्लेश का ही कारण है ।
अज्ञानी संयोगों में रोता या हंसता है । ज्ञानी के तो भेदविज्ञान के बल पर सदा समता है । अरे ! रोना तो आर्तध्यान है और हंसना रौद्रध्यान । धर्मध्यान तो इनसे भिन्न स्वभाव के आश्रय से होता है ।
आत्मा की चर्चा में थकान इसलिए लगती है क्योंकि हमने आत्मा की चर्चा को भी मात्र कर्णेन्द्रिय का विषय माना है । यदि आत्मा को अनुभूति का विषय माना होता तो आत्मा की चर्चा प्रति समय अपूर्व-अपूर्व लगती ।
जैसे किसी के प्रति यह दृढ़ विश्वास हो जाये कि अमुक मुझे मार डालने वाला है तो प्रथम तो उससे सम्पर्क ही नहीं करते, कदाचित होवे भी तो प्रतिक्षण सावधानी चलती है । उसी प्रकार ज्ञानी अभिप्राय पूर्वक तो रागादि में प्रवर्तन नहीं करता परन्तु भूमिका की कमजोरी वश, शुभाशुभ रागादि भाव आते भी हैं, उन आत्मघातक परिणामों से निरन्तर भेदविज्ञान वर्तता है ।
जैसे भूमिकानुसार भाई पितादिक से बातचीत, अनुराग होते हुए भी शीलवती का समर्पण पति वियोग में भी, पति के प्रति ही रहता है । उसकी दृष्टि में सदैव पति का स्वरूप बसा रहता है । उसी प्रकार ज्ञानी के बाह्य प्रवर्तन के समय भी स्वभाव ही श्रद्धेय रहता है ।
ज्ञानीजन घोर शुभाशुभ उपसर्गों में विचलित नहीं होते इसमें आश्चर्य नहीं क्योंकि अचल स्वभावी आत्मा में विचलितपना नहीं है तब उसके आश्रय से प्रकट होने वाली अवस्था में विचलित कैसे होंगे ?
जैसे सती के लिए पति के वस्त्र, अवस्थाएँ, भोगादि ज्ञेय तो हैं परन्तु श्रद्धेय नहीं । कोई भी अवस्था हो, पति तो पति ही है वह उसे सदा एक रूप में ही स्वीकारती है । उसी प्रकार किसी अवस्था में होने पर भी आत्मा तो आत्मा ही है । श्रद्धा सदैव उसे एकरूप ही स्वीकार करती है । अनन्त गुण पर्यायें ज्ञेय तो हैं पर श्रद्धेय नहीं ।
मात्र अवस्था को ही देखने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता । जैसे तेजी से स्वतः घूमते हुए चक्र या पंखे को पकड़ने के प्रयत्न में अपना ही घात होता है । वैसे ही प्रतिसमय बदलने वाली पर्यायों का लक्ष्य आत्मघातक ही जानकर एकमात्र द्रव्यदृष्टि करना ।
आत्मन ! दूसरों के राजभवन में थोड़ी देर भले ठहर लेवें परन्तु स्थाई विश्राम निज घर में ही है । उसी प्रकार अशुभ विकल्पों की तीव्र बाह्य आँधी तूफान से बचने के लिए थोड़ी देर देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति, पूजन, स्वाध्याय आदि विकल्पों में ठहर भले ही लें परन्तु स्वभाव में स्थिरता बिना स्थाई आनन्द सम्भव नहीं और इसके लिए प्रथम तो स्वतत्त्व की यथार्थ पहिचान करना चाहिए अतः प्रथम ही यथार्थ तत्त्वनिर्णय करके कल्याणार्थी को स्वानुभूति का उग्र पुरुषार्थ करना योग्य है ।
जैसे मुख की सुन्दरता या कुरुपता दर्पण में मात्र दर्पण की स्वच्छता से झलकती है परन्तु फिर भी दर्पण के आधीन नहीं । इसी प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान में त्रिकालवर्ती पर्यायें झलकने पर भी वस्तु का परिणमन भगवान के आधीन नहीं है ।
अज्ञानी मात्र शास्त्र पढ़कर सन्तुष्ट हो जाता है परन्तु ज्ञानी शास्त्र के माध्यम से स्वयं को पढ़ता है अर्थात शास्त्रानुसार स्वयं स्वभाव का सम्यक निर्णय करके स्वानुभव का पुरुषार्थ करता है । पश्चात पूर्ण स्थिरता तक उसका पुरुषार्थ बढ़ता ही जाता है ।
अज्ञानी केवल मूर्ति के दर्शन करके ही ‘मैंने देवदर्शन कर लिए’ - ऐसा मानकर सन्तुष्ट हो जाता है परन्तु ज्ञानी तो मूर्ति में मूर्तिमान को देखकर उनसे भी दृष्टि समेटकर उनके समान निज परम चैतन्य देव के दर्शन को देवदर्शन मानता है ।
दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखता है, परन्तु आँख बन्द होने पर नहीं, दर्पण की उल्टी ओर देखने से नहीं । उसी प्रकार जिनबिम्ब में निज भाव प्रतिभासित होता है परन्तु अन्तर्दृष्टि न होने पर नहीं । विवेक की आँख खुलने पर भी भेदविज्ञान जिसका मूल है ऐसी द्रव्यदृष्टि होने पर ही निज भाव का दर्शन सम्भव है । चेहरा देखने हेतु दर्पण भी समतल और स्वच्छ (निर्दोष) होने के समान बाह्य में देवादिक भी वीतरागी (निर्दोष) होना आवश्यक है ।
जैसे दर्पण में पदार्थ प्रतिभासित होने पर भी उसकी एकरूपता स्वच्छता खण्डित नहीं हुई वैसे ही अनन्त पदार्थों का प्रतिभासन होने पर भी ज्ञान स्वभाव की स्वच्छता एकरूपता खण्डित नहीं होती । दोनों में ही (एकत्व-अनेकत्व) धर्म एक साथ अविरोध रूप से पाये जाते हैं ।
परमार्थ से दर्पण में पदार्थ नहीं झलकते, दर्पण की स्वच्छता ही झलकती है । पदार्थ सामने होवें फिर भी न झलकें तब तो दर्पण की अवस्था मलिन जानना । उसी प्रकार अनन्त पदार्थों का प्रतिभासन होना ज्ञान का दोष नहीं अपितु ज्ञान की निर्मलता, निर्दोषता एवं पूर्णता का ही द्योतक है ।
समस्त जगत में विपरीत दृष्टि से देखने पर विरोध दिखने पर भी स्वभाव में किसी प्रकार विरोध नहीं है । परस्पर विरोधी से मालूम पड़ने वाले धर्म-अधर्म, चेतन-अचेतन आदि द्रव्य इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद आदि धर्म अविरोध रूप से रहते हैं । अतः विरोध की दृष्टि छोड़कर अविरोध रूप से निज स्वभाव साधन द्वारा सुखी होने का सम्यक पुरुषार्थ करो ।
(क) बोली का भाव, गोली के भाव से भी अधिक दुःखदायी होता है । जो गोली से न मरे, वह बोली से मरे - ऐसा विचार कर वाणी-संयम का ध्यान रखना ।
(ख) बोली का घाव भी भेदज्ञान और तत्त्वविचार से भर जाता है । स्वभाव, भवितव्य, उदयादि का विचार करने से सहज समाधान हो जाता है ।
यदि आराम चाहिए तो आराम अर्थात आ+राम की ओर । अन्यत्र आराम असमभव है ।
जैसे हीरा घन की चोट हँसते-हँसते सहता है, टूटता तो पत्थर है । उसी प्रकार ज्ञानी तो प्रतिकूलता को समतापूर्वक सहता है जबकि अज्ञानी उनमें घबराकर धर्म से टूट कर दुःखी होता है ।
वास्तविक जीवन की प्राप्ति ही जीवन का उपयोग है तथा सत्य जीवन को न पहिचान विषय-भोगों में मग्न रहना जीवन का दुरुपयोग है ।
आग सोने की परीक्षा करती है तथा प्रलोभन मनुष्य की परीक्षा करते हैं ।
वास्तव में भगवान का निर्वाणोत्सव तो हो ही चुका । उनके निर्वाणोत्सव के बहाने हमें अपने निर्वाणोत्सव की तैयारी करना है अर्थात प्रथम तो स्वयं के त्रिकर्म वर्जित शाश्वत, पूर्ण, निर्मल सहजानन्दमय स्वरूप की प्रतीति करना है पश्चात सहज ही वही स्थिरता का पुरुषार्थ ।
अज्ञानी प्रदर्शन के लिए आतुर रहता है जबकि ज्ञानी की दृष्टि में सम्यग्दर्शन का माहात्म्य है । प्रदर्शन में पर को दिखाने की भावना प्रबल होती है जबकि सम्यग्दर्शन निज की प्रतीति रूप है । सम्यग्दर्शन की दिशा अन्तर की ओर है, प्रदर्शन की बाहर । अतः सम्यग्दर्शन मुक्तिमार्ग का प्रथम सोपान है । प्रदर्शन संसार का कारण । अतः प्रदर्शन के भाव से विरक्त सम्यग्दर्शन का पुरुषार्थ ही कल्याणार्थी का कर्तव्य है ।
धनतेरस के दिन लोक में नया पात्र (बर्तन) लाने की रूढ़ि है परन्तु वास्तव में धन्य तेरस के दिन भगवान की साक्षात मुक्ति-सन्मुख दशा को देखकर स्वयं की परिणति में मुक्ति की पात्रता प्रकट करना है । वस्तुतः मुक्तिमार्ग की पात्रता आज तक प्राप्त न होने से वही नवीन पात्र है ।
जैसे लोक में कोई श्रद्धेय को बुलाते हैं । यदि वह न आ सके तो स्वयं ही हम उसके पास पहुँच जाते हैं । उसी प्रकार भगवान तो सिद्धालय से हमारे पास आते नहीं । अतः सच्चे श्रद्धालु के रूप में हमारा कर्तव्य है कि हम उग्र पुरुषार्थ द्वारा शीघ्र ही उनके पास पहुँच जावें और उनके पास तभी पहुँच सकते हैं जब हम अपने पास आवें । अतः सम्यक प्रतीति पूर्वक आत्मस्थिरता का पुरुषार्थ जागृत करना ही परमार्थ निर्वाणोत्सव मनाने की प्रक्रिया है ।
जैसे चार हाथ तक प्रकाश करने वाले छोटे दीपक को लेकर ही मीलों का रास्ता तय किया जा सकता है क्योंकि चार हाथ आगे बढ़ने पर आगे के चार हाथ का मार्ग स्वयं प्रकाशित होता जाता है । उसी प्रकार बहाना बनाना व्यर्थ है, जितनी शक्ति है उतनी शक्ति से मुक्तिमार्ग में लगने पर शक्ति स्वयमेव बढ़ती जाती है ।
पुण्य को ही व्यर्थ कह देना व्यवहार का कथन है परन्तु परमार्थ धर्म का स्वरूप न बताकर मात्र पुण्य में ही धर्म बताकर अटका देने वाला तो उस धोखेबाज कण्डेक्टर के समान है जो बीच के गाँव को ही उसका गन्तव्य बताकर नये यात्री को उतार देता है ।
जैसे एम.ए. की परीक्षा के बीच में बी.ए. की परीक्षा आयेगी अवश्य परन्तु कई बार कई विश्वविद्यालयों से बी.ए. की परीक्षा दे देने पर भी एम.ए. नहीं हो सकता उसी प्रकार परमार्थ की प्राप्ति के बीच में व्यवहार (दर्शन, स्वाध्याय, संयमादि) आते हैं परन्तु मात्र व्यवहार करते-करते परमार्थ की सिद्धि होना सम्भव नहीं अतः परमार्थ का आश्रय एवं लक्ष्य रखना ही निरन्तर योग्य है ।
लोक में भी यदि दूसरे के वस्त्र आदि अच्छे लगें तो उसी का नहीं छीन लेते अपितु विवेकीजन वैसे ही वस्त्रादि स्वयं बनवाते हैं उसी प्रकार यदि भगवान की परमात्मदशा यदि हमें अच्छी लगी है तो हमें भी वैसी परमात्मदशा प्रकट करने के लिए स्वभाव का आश्रय करना योग्य है ।
आत्मविश्वास के बिना तो बाहूय में भी सफलता नहीं मिलती तब फिर परमार्थ आत्मस्वरूप में अहंपना हुए बिना मुक्तिमार्ग का साधन कैसे हो सकेगा ?
सत्य निर्भय होता है क्योंकि सत्य तो वस्तु का सहज स्वभाव है और वस्तु के स्वभाव में भय का अस्तित्व ही नहीं । भय तो आत्मा से विमुख परिणाम है जो स्वरूप की विराधना से उत्पन्न होता है । अतः सत्य का आश्रय, निरूपण, समर्थन निर्भय होकर करना योग्य है । भय तो पतन एवं असफलता का ही कारण है, आर्त्त परिणाम पापबंध का ही कारण है । हाँ ! यदि निचली भूमिका में भय न छूट सके तो स्वरूप की विराधना का, जिनाज्ञा भंग करने का, परिणाम बिगड़ने का भय रखना परन्तु यहाँ भी मात्र भय रखने से काम नहीं चलेगा । अतः निरन्तर स्वरूप की आराधना, जिनाज्ञा प्रवर्तन एवं परिणाम सुधारने का उपाय रखना योग्य है ।
सामान्य स्वभाव का आश्रय होने पर जीवन भी सामान्य होने लगता है । बाह्य झूठे आकर्षणों से दूर रहने की भावना एवं उद्यम रहता है । ज्ञानी की यही स्वाभाविक, सहज सरलता उसकी विशेषता कहलाती है ।
स्वाध्याय का अर्थ है स्व का प्रकरण, अधिकार । स्वाश्रय बिना मात्र ग्रन्थों का अध्ययन-मनन आदि करता हुआ दिखता है, परन्तु वह उस समय भी उनके माध्यम से अपने को ही पढ़ता है, विचारता है ।
(क) आत्मन ! प्रमाद, असावधानी एवं शिथिलता तो बाह्य में भी हानिकारक है अतः विशेषतया धर्मसाधन में उत्साहपूर्वक यथाशक्ति सावधान रहना योग्य है ।
(ख) वीरप्रभु की संतान को कायरता या दीनता शोभा नहीं देती ।
बादलों की आड़ होने पर भी सूर्य तो ज्यों का त्यों है । मात्र स्थूल दृष्टि से दिखाई नहीं देता । उसी प्रकार रागादि की आड़ में शुद्धात्मा है परन्तु भेदविज्ञान के अभाव में स्थूल (मोह) दृष्टि से दिखता नहीं । फिर भी अन्तर्दृष्टि से तुरन्त अनुभूति में आने योग्य है ।
पर को स्वीकार न करने का अर्थ है केवलज्ञान को स्वीकार न करना और केवलज्ञान को न स्वीकारने का अर्थ है ज्ञानगुण अर्थात ज्ञानमय आत्मा का निषेध अर्थात पर की सत्ता को न मानना भी मिथ्यादर्शन है तथा पर को अपने रूप मानना भी मिथ्यादर्शन है ।
तत्त्व की मीमांसा करते समय लोगों के विरोध की चिन्ता नहीं की जाती । संसारियों की दृष्टि तो वैसे भी विपरीत है । तब उनके अनुसार तत्त्व का स्वरूप कैसे कहा जा सकता है ? वस्तु तो स्वतंत्र है ; अतः वस्तुस्वरूप का यथार्थ निरूपण भी जगत से निस्पृह, सम्यग्ज्ञानी द्वारा ही सम्भव है । वैसे भी परमार्थतः वक्ता तो वीतराग सर्वज्ञ ही होते हैं । शेष तो उन्हीं की वाणी को ह्रदयंगम, अनुभवन कर निरूपण करन वाले व्यवहार से वक्ता कहे जाते हैं ।
मानसिक कषायों के शमन का उपाय तत्त्वविचार, गुरुजनों के समक्ष उनकी गर्हा, एकान्त में निन्दा तो व्यवहार से कहा है परन्तु वास्तव में समस्त दोषों से भिन्न स्वरूप का आश्रय ही दोषों के अभाव का सच्चा उपाय है ।
यद्यपि परोपकार का भाव भूमिका के अनुसार आता ही है, परन्तु वहाँ भी ‘स्व’ की दृष्टि रखना योग्य है । जिनका भी उपकार हुआ है, हो रहा है और होगा स्व की पहिचान, अनुभवन, प्रतीति, थिरता से ही हुआ, हो रहा है और होगा । अतः स्वयं तो स्व का ध्यान रखना ही, साथ में पर को भी स्व (स्वरूप) की महिमा जागृत कर उन्हें भी स्व-सन्मुख करना योग्य है । मात्र अपने पर्यायजनित बहुमान में अटक जाना तो महा अहितरूप है ।
प्रतिक्षण पर्याय से भिन्न स्व का समरूप अनुभवन ही समता को उत्पन्न करने वाला है । जहाँ पर्याय की ओर झुकाव हुआ वहीं दुःख का वेदन होगा । अतः एक ही उपाय है कि जैसे कोई शीलवती स्त्री निज पति को ही सर्वस्व समझती है । अन्य पुरुष होते हुए भी मानो उसके लिए हो ही नहीं । उसी प्रकार स्वभाव में इतना समर्पण (अभिन्नता) हो जाना चाहिए कि मानों पर्याय हो ही नहीं अर्थात अन्य पदार्थ जैसे भिन्न भासित होते हैं वैसे ही पर्याय भी भिन्न भासित हो । वह अपने लिए लक्ष्य योग्य नहीं, ऐसा विचार कर एकमात्र स्वभाव में ही उपयोग तन्मय होने पर शान्ति का वेदन सहज ही होगा ।
आत्मन ! सबको राजी करने की सोचना व्यर्थ है । अतः सबकी चिन्ता छोड़कर आत्मशान्ति की प्रमुखता रखना योग्य है । स्वयं की सम्यक दृढ़ता ही हमें अपने पथ में अग्रसर होने में सहायक होगी ।
पर के सहारे से पतन ही होगा । उन्नति तो स्वावलम्बन से ही सम्भव है ।
व्यर्थ मानसिक विकल्पों से बचने के लिए संकोच छोड़कर अपना निर्णय स्पष्टतः, सविनय, प्रेमपूर्वक, दृढ़ता से प्रकट करना चाहिए ।
किसी भी कार्य को निश्चयपूर्वक करना योग्य है । व्यर्थ का प्रमाद, शिथिलता या लोगों की बातों में आकर स्वयं के मार्ग को छोड़ देना कदापि योग्य नहीं ।
आत्मन ! आत्मा तो स्वभावतः अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, बलादिमय है । फिर अनन्त बल का विचार कर निर्बलता, घबराहट का परिहार कर । ज्ञानाभ्यास तो स्वरूप में स्थिरता हेतु किया जाता है । ज्ञानी को इतनी अस्थिरता कदापि शोभनीय नहीं है ।
आत्मन ! धैर्य का फल अति मधुर है । धैर्य, मधुरता, सरलता, सादगी पूर्वक बाह्य संयोगों की उपेक्षा करते हुए तत्त्वाभ्यास में लगे रहना योग्य है ।
बाह्य उलझनों को सुलझाने के प्रयास में स्वयं का उपयोग ही उलझेगा और आकुलता ही हाथ लगेगी । अतः उदासीन ज्ञाता मात्र रहकर आत्महित में उद्यमी रह ।
एक परमाणु मात्र का ग्रहण किए बिना ही मोही प्राणी मान्यता में अनन्त पर पदार्थों का ग्रहण कर आकुलित होता है और सम्यक तत्त्वाभ्यास द्वारा यथार्थ बोध प्रकट होते ही अनन्त पर पदार्थों से सम्बन्ध छूट जाता है । तब सहज ही मुक्तिमार्ग में प्रविष्ट हो सहजानन्द की ओर अग्रसर होता जाता है ।
आत्मन ! अपना निर्णय अपने आप करना योग्य है । दूसरों पर निर्णय छोड़ना दुःखमय विकल्पों का ही जनक है ।
पर में स्व का अत्यन्ताभाव है । अतः पर दृष्टि द्वारा कभीभी स्वभाव अर्थात सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है । अतः सुखार्थी को पर दृष्टि सर्वथा त्याज्य ही जानना ।
आत्मा के शाश्वत सुख की प्राप्ति न तो पुण्य पाप के (विपरीत) पुरुषार्थ द्वारा होती है और न उनके द्वारा संचित कर्मों से । सहजानन्द की उपलब्धि तो एकमात्र निज स्वभाव सन्मुख सम्यक पुरुषार्थ से सम्भव है ।
संसार में रहकर भी अनासक्त, सामर्थ्यवान ज्ञानी ही रह पाता है । सामान्य जन तो सांसारिक विकल्पों में ही उलझे रहते हैं ।
सर्वज्ञ परमात्मा के दर्शन कर सर्वज्ञ स्वभावी निजात्मा के सन्मुख होने वाला अल्पकाल में सर्वज्ञ होता है ।
आत्मन ! पर को सन्तुष्ट करने अथवा पर से सन्तुष्ट होने का अभिप्राय छोड़ । स्वरूप में सन्तुष्ट होने पर ही शान्ति सम्भव है ।
निज घर का आश्रय किए बिना दर-दर की ठोकरें ही खानी पड़ेंगी ।
लोक में परस्पर आदान-प्रदान की चर्चा मात्र औपचारिक हैं, यथार्थ नहीं ।
प्रत्येक कार्य स्वयं ही, स्वयं रूप, स्वयं से, स्वयं के लिए, स्वयं में से तथा स्वयं के आधार से स्वतन्त्रपने होता है ।
लौकिक उपलब्धियाँ भी पुरुष के वर्तमान प्रयत्न सापेक्ष नहीं होती ।