अमृत वचन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’ | Amrut/Amrit Vachan

(970). जब धर्मानुरागवश एकत्रित हुआ परिग्रह भी आकुलता का निमित्त है तब विषयानुरागवश एकत्रित किया हुआ परिग्रह सुख का कारण कैसे हो सकता है ?

(971). जब अशुभ राग निवारणार्थ किया गमन थकान का कारण है तब विषयार्थ की जाने वाली दौड़-धूप संक्लेशता का कारण कैसे नहीं होगी?

(972). परिग्रह चिन्ता का ही निमित्त है तब व्यवस्थाओं के नाम पर जुटाया गया परिग्रह निश्चिंतता का कारण कैसे हो सकता है?

(973). जिन विषयों की वाँछा एवं चिन्तन ही क्षुब्ध कर देता है, उनमें प्रवृत्ति कैसी होगी?

(974). बिना विवेक एवं अयत्नाचार पूर्वक धर्म के नाम पर की जाने वाली वृत्तियों से संयुक्त जिन्दगी अधकचरी है तब स्वच्छन्दता एवं भोगों की जिन्दगी कैसी होगी? निरपेक्ष होकर सूक्ष्मत: विचार करें तभी ज्ञान-वैराग्यमय साफ सुथरी जिंदगी के लिए पुरुषार्थ जाग्रत हो सकता है।

(975). सम्यक् संकल्प के बिना मन की भ्रमणा मिटना असंभव है।

(976). जिन विचारों से मूर्च्छा न टूटे, निर्वांछक एवं सहज शांत न हो जायें, वे विचार सम्यक् नहीं कहे जा सकते।

(977). पंक्ति में लगने का अर्थ सन्मुख होना है। अतः धर्म की पंक्ति में लगने का अर्थ मात्र कुछ बाह्य क्रियाएँ एवं पढ़ लिख लेना नहीं अपितु तत्त्वनिर्णय पूर्वक स्वसन्मुख होना है। सम्यक् श्रद्धा पूर्वक संयम धारण करना है।

(978). दूसरों के दोषों को औदयिक भाव समझ कर जुगुप्सा न करें अपितु स्थितिकरण करें।

(979). अपने दोषों को औदयिक भाव कह कर पोषण न करें, निंदा-गर्दा करते हुए दूर करने का उद्यम करें।

(980). मनुष्य की पहिचान जाति, कुल, वर्ण आदि से नहीं अपितु उसकी वाणी से होती है। अतः सद्विचार पूर्वक वाणी को बाण नहीं अपितु वीणा सदृश बनायें।

(981). विशुद्धतर परिणाम एवं समीचीन सर्वोपकारिणी बुद्धि जीवन की सर्वोपरि विशेषता है।

(982). आत्माराधना के अनुरूप साहित्य निर्माण करना लोकोत्तर उपकार है।

(983). जैसे छैनी की चोट झेले बिना पाषाण प्रतिमा नहीं बनता वैसे ही प्रज्ञा छैनी के अन्तर में प्रवेश बिना आत्मा ज्ञानी नहीं बनता।

(984). बिना सम्यक्त्व के जीव बिना सुगंधि के फूल के समान निस्सार है।

( 985). सम्यक्त्वी जीव विघ्नों को भी तत्त्वविचारपूर्वक समताभाव द्वारा निर्जरा का निमित्त बनाता हुआ प्रसन्नता पूर्वक उत्सव की तरह मानता है।

(986). जिनवचनों का श्रवण करने पर भी तत्त्वनिर्णय एवं तत्त्वविचार बिना वैराग्य नहीं होता।

(987). वैराग्य तो आत्मा के आश्रयपूर्वक होने वाला ज्ञान-आनन्दमय परिणाम है वह भेदविज्ञान बिना कैसे सम्भव है।

(988). जैसे किसी कीचड़ के नाले में फँसे प्राणी को देखकर सज्जन व्यक्ति को करुणा आती है वैसे हो विषयों में रत असंयमी जीवों को देखकर ज्ञानी जीवों को करुणा आती है।

(989). कुपथ्य करते हुए रोगी को देखकर लौकिक जीवों को करुणा आती है, वैसे ही राग की पूर्ति हेतु भटकते अज्ञानी के प्रति ज्ञानी गुरुओं को करुणा आती है।

(990). सम्यक् व्यवहार परमार्थ का साधक होता है और परमार्थ के द्वारा स्वयं निषिद्ध हो जाता है अर्थात् जैसे- जैसे विज्ञानघन होता जाता है, वैसे-वैसे प्रशस्त रागरूप व्यवहार भी स्वयमेव छूटता जाता है। ऊपर के गुणस्थानों में नीचे का व्यवहार सहज छूट जाता है।

(991). साधर्मी का असहयोग एवं निन्दा करनेवाला धर्मात्मा नहीं हो सकता।

(992). जड़ पदार्थों के पीछे जीवन नहीं खोयें । तत्त्वज्ञान के संस्कारों को दृढ़ करते हुए ज्ञान-वैराग्यमयी मंगलमय भविष्य की ओर बढ़ें।

(993). वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु के प्रति यथायोग्य बहुमान का अभाव मिथ्यात्व का चिह्न है।

(994). गुरु की संगति एवं अनुशासन शिष्य के लिये दुर्भेद्य किला है, जिसमें दुष्प्रवृत्तियों का प्रवेश अत्यन्त कठिन है।

(995). प्रामाणिक गुरु के संरक्षण में, संभव होने पर भी जो नहीं रहते वे प्रायः स्वच्छन्दवृत्ति वाले, प्रमादी या अहंकारी होते हैं। वे महन्तता की बुद्धि वाले जीव लौकिक जीवों के मध्य में रहते हुए आत्मकल्याण से दूर होते जाते हैं।

(996). धर्मध्यान के लिए प्रामाणिक गुरु का निर्देशन उसी प्रकार आवश्यक है जिसप्रकार गम्भीर दुःसाध्य रोगों की चिकित्सा में कुशल वैद्य ।

(997).
मन का संयम- सद्विचार |
वचन का संयम-- हित- मित-प्रिय प्रामाणिक वचन।
काय का संयम - जितेन्द्रियता पूर्ण यत्नाचार आहार, विहार, रहन-सहन की नियमितता एवं सादगी।

(998). अन्धानुकरण एवं कुतर्क दोनों ही निंद्य समझकर त्यागो ।

(999). सम्यग्ज्ञान एवं वैराग्य का उपदेश गुरु उसीप्रकार देते हैं जैसे कोई हितैषी उपद्रवों के बीच सोते हुए व्यक्ति को जगाकर वहाँ से बचाता है।

(1000). शिक्षा देते जाना और पालन न होने पर भी क्रुद्ध न होना, उपदेष्टा की विशेषता है।

(1001). योग्य वैद्य की भाँति क्षमता के अनुसार युक्तिपूर्वक हितोपदेश देना ही श्रेयस्कर है।

(1002). अयोग्यों को शिष्य बनाना अपवाद एवं संक्लेश का कारण है।

(1003). धनसंग्रह एवं अनुयायियों की भीड़ में आत्मार्थ दुःसाध्य है।

(1004).‌‌ प्रशंसनीय जीवन - मिथ्या वासनाओं से रहित, विषय कषायों से शून्य ।

(1005). वैराग्य हेतु कुटुम्ब की अनुमति आवश्यक नहीं है। कुटुम्ब को वैराग्यमय सम्बोधन तो इसलिए करता है कि यदि अन्य कोई अल्पसंसारी हो तो उन वचनों को सुन वैराग्य को प्राप्त हो जावे ।

(1006). आत्मा में अनन्त शक्तियाँ त्रिकाल होने पर भी निर्मल परिणमन में न आवें तब तक अज्ञानी के लिए तो मेरु के नीचे भरे स्वर्णवत् हैं ।

द्रव्योन्मुख हुए बिना किसी शक्ति की प्रतीति नहीं होती ।

(1007). पुराण साक्षी हैं कि लोग मुनिराज के दर्शन करने गये, न कि प्रवचन सुनने क्योंकि प्रवचन होने का नियम नहीं है, न उसकी घोषणा हो सकती है। कोई पात्र जीव होने पर उपदेश हो जाना अलग बात है।

(1008). वर्तमान पर्याय अन्तर्मुख होकर त्रिकाली द्रव्य के साथ एकत्व करे उसका नाम अनेकान्त(अनेकता का अन्त) है।


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