अलविदा | Alvida

प्रिय कहो क्या जानते हो मार्ग निज शाश्वत सदन का ॥ टेक ॥

भूल से अपनी अनेकों लोक की रज छान खाई।
किन्तु सच्ची शान्ति की क्या तनिक भी अनुभूति पाई ॥
क्षणिक सुख की वासना में अस्मिता अपनी गँवाई ।
मोह ममता यदि न हो तो काम क्या आवागमन का ॥ १ ॥

गए जिस-जिस वपुष में, उसे तुमने जी भर सराहा।
कहो कब-कब छोड़ने को उसे मन से तनिक चाहा ।।
आ गई अवसान बेला पर मिटी क्या वासना हा!
दोष देते अन्य को तुम दासता में बांधने का ॥२॥

हो गए परतन्त्र चल दल, खो दिया निज स्वत्व अविचल ।
भोगते फिरते विवश हो, वासना के चिर कटुक फल ॥
ठहर सकते नहीं इच्छित समय तक, अब कहीं अविचल ।
सुधि करो अमरत्व निधि का, ध्यान आत्मानन्द घन का ॥३॥

बाँध सकता नहीं कोई भ्रमित करके तुम्हें, प्रियवर ।
वासना की श्रृंखला में बँध रहे हो स्वयं ही पर ॥
लक्ष्य अपना साधने को मिला है यह पुण्य अवसर ।
विश्व पूजेगा तुम्हें यदि चक्र हत जीवन मरण का ॥४॥

  • कपूरचन्द्र ‘इन्दु’