जिसका चिन्तन करते प्रतिक्षण, वह बहुत दूर रह जाता है ।
जो नहीं स्वप्न में भी सोचें, वह सन्मुख ही आ जाता है ।। 1।।
जिसको हम मित्र समझते हैं, वह ही शत्रु बन जाता है ।
जिसको हम मन में अरि समझे, वह मित्रपना दरशाता है ।। 2 ।।
है सभी व्यवस्था बनी हुई, क्यों मूढ़ व्यर्थ अकुलाता है।
वस्तु–स्वभाव पर श्रद्धा कर, क्यों धैर्य नहीं तू लाता है ।। 3 ।।
हे आत्मन्! व्यर्थ ही खेद करे, दुःख से दुःख तो बढ़ जाता है।
पर दुःख का अनुभव करने से, सुख कोई कभी न पाता है ।। 4 ।।
हे भव्य ! करो द्रव्यदृष्टि तनिक, दुःख का किंचित् अस्तित्व नहीं ।
है कार्य स्वयं होता सबका, पर में तेरा वस्तुत्व नहीं ।। 5 ।।
खुद ही होते को करना क्या ? अरु ना होते को करना क्या ?
अकार्य-अकर्त्ता-अकारक, फिर करना चिंते मरना क्या ।। 6।।
है कार्य मात्र पर्याय अरे, उसका तुझसे सम्बन्ध नहीं ।
पर्याय काल से खण्डित है, पर तुझमें कोई खण्ड नहीं ।। 7 ।।
तुमको अनेकता जो दिखती, सब ही को क्षण भर गौण करो ।
उसमें जो एक रूप व्यापक, चैतन्य भाव अनुभवन करो ।। 8 ।।
बस सभी कार्य पूरे होंगे, सुख का सागर लहरायेगा ।
कर्त्तृत्व विकल्प रहित सुखमय, परमात्म दशा तू पायेगा।। १।।
वह दशा नहीं फिर छूटेगी,सादि अनंत तक बनी रहे ।
ज्यों मणि की ज्योति न फीकी हो, बस मणि में अविचल सनी रहे ।। 10 ।।
रचियता - आदरणीय बाल ब्रह्मचारी पंडित श्री रवीन्द्र जी आत्मन्
Source - सहज पाठ संग्रह