अब मोहि तार लेहु महावीर । Ab Mohi Taar Lehu Mahaveer

               राग: गोरी 

अब मोहि तार लेहु महावीर ॥ टेक ॥

सिद्धारथनन्दन जगवन्दन, पापनिकन्दन धीर ॥ अब. ॥
ज्ञानी ध्यानी दानी जानी, वानी गहर गंभीर ।
मोषके कारन दोषनिवारन, रोषविदारन वीर ॥ अब. ॥ १ ॥
आनंदपूरत समतासूरत, चूरत आपद पीर ।
बालजती दृढ़व्रती समकिती, दुखदावानलनीर ॥ अब. ॥ २ ॥
गुन अनन्त भगवन्त अन्त नहि, शशि कपूर हिम हीर ।
‘द्यानत’ एक हु गुन हम पावैं, दूर करैं भवभीर ॥ अब. ॥ ३ ॥

अर्थ :

हे भगवान महावीर अब मुझे इस भवसागर से पार उतारिए, बाहर निकालिए । हे सिद्धार्थनन्दन ! आप जगत के द्वारा पूजनीय हैं, पापों का नाश करनेवाले हैं, अत्यन्त धीर हैं।

जो भी ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, दानी हैं, वे सब आपकी दिव्यध्वनि की गहराई व गंभीरता को जानते हैं। आप मोक्षरूपी कार्य की सिद्धि के लिए अद्भुत कारण हैं। दोषों का नाश करनेवाले हैं तथा क्रोध का नाशकर क्षमा को धारण करनेवाले हैं।

आप समता की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। आनन्द के देनेवाले हैं। सभी आपदाओं को नष्ट करनेवाले हैं। बाल ब्रह्मचारी हैं, दृढ़वती हैं और दुःखरूपी आग को शमन करने के लिए समताधारी वीर हैं। परम सम्यक्त्वी हैं।

आपके अनन्त गुणों का कोई पार नहीं है। आप चन्द्रमा, कपूर, हीरे व हिम- बर्फ के समान निर्मल, उज्ज्वल व शीतल हैं। द्यानतराय जी कहते हैं इन गुणों में से हम एक गुण भी पा जायें तो इस भव बाधा को दूर करलें ।

सोर्स: द्यानत भजन सौरभ
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी