जब निज आतम अनुभव आवै, और कछु ना सुहावे।।टेक।।
रस नीरस हो जात ततच्छिन, अक्ष विषय नहीं भावै ।।
जब निज आतम अनुभव आवे…।।१।।
गोष्ठी कथा कुतूहल विघटै, पुद्गलप्रीति नसावे ।
राग-दोष जुग चपल पक्ष जुत, मन पक्षी मर जावै ।।
जब निज आतम अनुभव आ वे… ।।२।।
ज्ञानानन्द सुधारस उमगै, घर अंतर न समावै ।
`भागचन्द’ ऐसे अनुभव को, हाथ जोरि सिर नावै ।।
जब निज आतम अनुभव आवे…।।३।।
Artist/रचयिता - पं. श्री भागचंद जी जैन