समयसार की गाथा 94-95 के संबंध में गुरुदेव श्री ने कहा - कि अज्ञानी को जो विकल्प आता है, वह उसमें तन्मय हो जाता है।
कृपया इस विषय पर प्रकाश डालें ।
अज्ञानी अर्थात मिथ्यादृष्टि
विकल्प अर्थात पर्याय में तन्मय हो कर उत्पन्न होने वाले रागादि परिणाम
यहां पर जो विकल्प की बात की है ,जैसे चलते वक्त अज्ञानी जीव यह मानता है कि यह हाथ -पैर को में गमन करा रहा हूँ अर्थात में ही धर्मास्तिकाय हूं, वास्तव में गमन करने में धर्म द्रव्य निमित्त बनता है।अज्ञानी इससे विपरीत मानता है।
ऐसा हमे समजना चाहिए।
पुनः एक शंका है, कि क्या हम ऐसा नियम बना सकते हैं, कि अज्ञान अवस्था मे जीव जिसे भी जानेगा , उस विचार में तन्मय होगा ।
इसी लिए तो उसे अज्ञानी कहा है ।
ऐसा ही नियम है।
वास्तव में ज्ञान गुण में विपरीत पना नही है।परंतु श्रद्धा मिथ्या होने से उसके साथ जाना हुआ ज्ञान भी अज्ञान(कुज्ञान) है।
जी बात तो सही है,
अच्छा, यदि आत्मानुभूति रूप विचार आये , तो वहाँ विपरीतता कैसे घटित होगी ?
तथा इसी समयसार में कहा कि उस समय शुद्धात्मा रूप विचार से रहित है अतः उन द्रव्यों में रत है
बहुत सुंदर प्रश्न
अभी तक हम सामान्य रूपसे संसार की घटनाओं को ले रहे थे।
परंतु जब आत्मनुभव के पुरुषार्थ की बात आती है तब उसके लिए pt टोडरमलजी ने ऐसे ज्ञान को आगम आश्रित ज्ञान कहा है।
जैसे कोई मिथ्यादृष्टि जीव कहे ,में आत्मा हूं तो इसको हम आगमाश्रित ज्ञान कहेंगे
और आत्माका अनुभव हो जाने पर सम्यकज्ञान कहेंगे।इस समजना
ये कुछ नाइंसाफी सी प्रतीत हो रही है,
कुछ भी जानेगा तो उसमें तन्मय होगा ही , और मैं तो शुद्धात्मा के विचार की बात कर रहा हूँ। उसमे तन्मय होगा या नही…?
दूसरी बात, यह भी कि टोडरमल जी ने कहा कि मिथ्यादृष्टि का सारा ज्ञान मिथ्या…! , तो आगमाश्रित ज्ञान का हवाला देकर बचने की कोशिश क्यों की जा रही है …?
@jinesh ji से भी अनुरोध करता हूँ , क्या न्याय के आलोक में इसका कोई उत्तर हैं…?
तन्मयता अर्थात एकता। अगर अज्ञानी जीव भी शुध्तात्मा का विचार कर रहा है और इस दौरान उसे विकल्प आ रहा है तो वह उस विकल्प में तन्मय हो रहा है अर्थात जो विकल्प, राग, द्वेष उसे आ रहे यही उसे वह अपना मान रहा है। कहने का आश्रय यह है की अज्ञान दशा में अगर शुद्धात्मा का विकल्प आ रहा है तो भी वह शुद्धात्मा के विचार से रहित है क्यूंकि वह शुद्धात्मा में नहीं उस शुद्धात्मा के विकल्प में तन्मय है। और चूँकि जीव अज्ञानी है इसलिए जो शुद्धात्मा का स्वरुप उसके विकल्प में आ रहा है वह भी मिथ्या ही है, क्यूंकि अभी उसे शुद्धात्मा के स्वरुप का भान नहीं है।
वास्तव यह अज्ञानी का यह भाव भी मिथ्या ही है।
परंतु यही ज्ञान से जीव अज्ञानी से ज्ञानी बन सकता है इसी लिए आगमाश्रित कहा
जिस समय जीव की श्रद्धा पलटी उसी समय से जीव का भाव स्वासन्मुख होगा।उससे पहले पर तन्मय ही होगा।
अज्ञानी कहे कि में आत्मा हु तो भी श्रद्धा में मिथ्यात्व ही है।
ज्ञानी जीव कहे कि में चक्रवती हु तो भी यह सम्यक है।
नही क्योंकि उसका उपयोग पर में ही पड़ा है।उससे ही में सुखी होंगा ऐसी बुद्धि पड़ी है।
भाईसाहब, विचार और विकल्प में अंतर है ।
विकल्प अर्थात राग -द्वेष ।
विचार अर्थात ज्ञान की पर्याय । ( श्रद्धा से भी इसे जोड़ा जा सकता है )
अस्पष्टता बरकरार है,
भाईसाहब उपयोग पर में पड़ा है, बात ठीक है । परन्तु अभी तो जिसे जान रहा है , उपयोग तो उसी में लगा हुआ है ना…!
As per the given ref.
यहां आचार्य स्वयं कह रहे है, कि उस विचार से रहित है, तो जब जानेगा तो उस मे रत क्यों नही होगा…?
शायद इसलिए नही कहा कि इसी विचार से ज्ञानी होगा, वहाँ तर्क तो यही कहने में आएगा कि जिनेन्द्र देव की वाणी है , अतः उसे मिथ्या कैसे कहें…?
इस समय भी आतमा को स्व रूप अनुभव नही करता उसको भी पर रूप ही जान रहा है।
यह सभी पर के अवलंबन से हो रहा है आत्मानुभूति के लिए पूर्ण रूप से स्व अवलंबन से ही होना चाहिए।यहाँ तक कि इन्द्रीय और मन का अवलंबन भी छूट जाता है।इस ज्ञान को अनुभव प्रत्यक्ष कहते है।
बिल्कुल सही कहा इसी के माध्यम से तो आत्मनुभव होगा।
थोड़ी देर के लिए स्व-पर रूप अनुभवने की बात गौण करें, क्योंकि यह तो श्रद्धा गुण का कार्य है । ज्ञान की उस समय क्या अवस्था होगी…?
अथवा प्रश्न वही है , कि उपयोग अलग हो और जान कहीं और रहा है , ऐसा तो होगा नही…। अभी आत्म संबंधी विचार होवें, तो परिणाम तो उसमें तन्मय किसी न किसी प्रकार तो तन्मय होंगे ।
अथवा मैं तो यह भी कहना चाहता हूँ कि वास्तविकता में ज्ञान तन्मय होता ही नही, जहाँ तन्मय होने की बात होती है, वहाँ श्रद्धा गुण समझना चाहिए ।
बाकि विद्वज्जन समाधान करें।
बिल्कुल बराबर
यही तो मैने पहले कहा था।
मोक्षमार्ग में पूरी बात मुख्य रूपसे श्रद्धा और चारित्र मोह के ऊपर ही है ।
धन्यवाद आपका ।
मैं बस यही कहना चाहता था कि ज्ञान तो निर्दोष है ।
यहां पर एक बात ध्यान देने योग्य है मुजे अभी अभी पढ़ने में आयी
ज्ञान में ही सात तत्व का निर्णय होता है,उसी में ही हेय उपादेय त नक्की होती है,यहाँ तक कि आत्मा का अनुभव होता उसमे भी ज्ञान गुण का मुख्य होता है,
श्रद्धा तो मात्र अहम करती है,मिथ्या हो या सम्यक हो।
गुरुदेव के प्रवचन का tone भी इसी प्रकार का है
जी ।
परिक्षामुख ग्रन्थ में भी पाँचवे अध्याय का प्रथम सूत्र है ।-
" अज्ञाननिवृत्ति-हान-उपादान-उपेक्षाश्च फलम् । "
श्रद्धा अंधी होती है , ज्ञान जिसे जानेगा , श्रद्धा उसी को अनुभवती है ।
समाधान हो गया लगता है, इसलिए अब पुनः चर्चा को प्रारम्भ नहीं करता हूँ। कुछ व्यस्तता कर कारण उस समय यहां चर्चा में शामिल नहीं हो सका।
@Sanyam_Shastri यदि कुछ और बाकी हो तो अवगत कराएं।