सफल जन्म मेरा हुआ, प्रभु दर्शन से आज।
भव समुद्र नहिं दीखता, पूर्ण हुए सब काज ॥(1)
दुर्नेिवार सब कर्म अरु, मोहादिक परिणाम।
स्वयं दूर मुझसे हुए, देखत तुम्हें ललाम ||(2)
संवर कर्मों का हुआ, शान्त हुए गृह जाल।
हुआ सुखी सम्पन्न मैं, नहिं आये मम काल ||(3)
भव कारण मिथ्यात्व का, नाशक ज्ञान सुभानु।
उदित हुआ मुझमें प्रभो, दीखे आप समान ||(4)
मेरा आत्मस्वरूप जो, ज्ञानादिक गुण खान।
आज हुआ प्रत्यक्ष सम, दर्शन से भगवान ||(5)
दीन भावना मिट गई, चिन्ता मिटी अशेष।
निज प्रभुता पाई प्रभो, रहा न दुख का लेश॥(6)
शरण रहा था खोजता, इस संसार मँझार।
निज आतम मुझको शरण, तुमसे सीखा आज ||(7)
निज स्वरूप में मगन हो, पाऊँ शिव अभिराम।
इसी हेतु मैं आपको, करता कोटि प्रणाम ||(8)
मैं वन्दों जिनराज को, धर उर समता भाव।
तन-धन-जन-जगजाल से, धरेि विरागता भाव ||(9)
यही भावना है प्रभो, मेरी परिणति माहिं।
राग-द्वेष की कल्पना, किंचित उपजे नाहिं ॥(10)