श्री प्रतिमा प्रक्षाल पाठ-2 । Shree Pratima Prakshal Paath-2

(दोहा)
परिणामों की स्वच्छता, के निमित्त जिनबिम्ब।
इसीलिए मैं निरखता, इनमें निज प्रतिबिम्ब।।
पंच प्रभु के चरण में, वंदन करूँँ त्रिकाल।
निर्मल जल से कर रहा, प्रतिमा का प्रक्षाल।।
अथ पौर्वाह्निक देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजास्तवनवन्दना समेतं श्री पंचमहागुरुभक्तिपूर्वककायोत्सर्ग करोम्यहम्।
(नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ें।)

(छप्पय)
तीन लोक के कृत्रिम और अकृत्रिम सारे।
जिनबिम्बों को नित प्रति अगणित नमन हमारे।।
श्री जिनवर की अन्तर्मुख छवि उर में धारूँ।
जिन में निज का, निज में जिन-प्रतिबिम्ब निहारूँ।।
मैं करूँ आज संकल्प शुभ, जिन प्रतिमा प्रक्षाल का।
यह भाव सुमन अर्पण करूँँ, फल चाहूँ गुणमाल का।।
ॐ हीं प्रक्षालप्रतिज्ञायै पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि।
(प्रक्षाल की प्रतिज्ञा हेतु पुष्प क्षेपण करें)

(रोला)
अन्तरंग बहिरंग सुलक्ष्मी से जो शोभित।
जिनकी मंगल वाणी पर है त्रिभुवन मोहित।।
श्री जिनवर सेवा से क्षय मोहादि विपत्ति।
हे जिन ! श्री लिख पाऊँगा निज-गुण सम्पत्ति।।
(थाली की चौकी पर केशर से ‘श्री’ लिखें)

(दोहा)
अन्तर्मुख मुद्रा सहित शोभित श्री जिनराज।
प्रतिमा प्रक्षालन करूँ, धरूँँ पीठ यह आज।।
ॐ ह्रीं श्री पीठस्थापनं करोमि।
(प्रक्षाल हेतु थाली स्थापित करें)

(रोला)
भक्ति रत्न से जड़ित आज मंगल सिंहासन।
भेद-ज्ञान जल से क्षालित भावों का आसन।।
स्वागत है जिनराज तुम्हारा सिंहासन पर।
हे जिनदेव! पधारो श्रद्धा के आसन पर।।
ॐ हीं श्री धर्मतीर्थाधिनाथभगवत इह सिंहासने तिष्ठ तिष्ठ।
(थाली में जिनबिम्ब विराजमान करें)

क्षीरोदधि के जल से भरे कलश ले आया।
दृग-सुख-वीरज-ज्ञान-स्वरूपी आत्मा पाया।।
मंगल कलश विराजित करता हूँ जिनराजा।
परिणामों के प्रक्षालन से सुधरें काजा।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हं कलश स्थापना करोमि।
(चारों कोनों में निर्मल जल से भरे कलश स्थापित करें)

जल-फल आठों द्रव्य मिलाकर अर्घ्य बनाया।
अष्ट अंग युत मानो सम्यग्दर्शन पाया।।
श्री जिनवर के चरणों में यह अर्घ्य समर्पित।
करूँ आज रागादि विकारी भाव विसर्जित।।
ॐ ह्रीं श्री स्नपनपीठस्थिताय जिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(पीठ स्थित जिन प्रतिमा को अर्घ्य चढ़ाएँ)

मैं रागादि विभावों से कलुषित हे जिनवर।
और आप परिपूर्ण वीतरागी हो प्रभुवर।।
कैसे हो प्रक्षाल, जगत के अघ-क्षालक का।
क्या दरिद्र होगा पालक? त्रिभुवन पालक का।।
भक्ति भाव के निर्मल जल से अघ-मल धोता।
है किसका अभिषेक भ्रान्त चित् खाता गोता।।
नाथ! भक्तिवश जिनबिम्बों का करूँ नह्वन मैं।
आज करूँ साक्षात् जिनेश्वर का पर्शन मैं।।
ॐ हीं श्री श्रीमन्तं भगवन्तं कृपालसन्तं वृषभादिमहावीरपर्यन्तं चतुर्विंशतितीर्थंकर परमदेवमाद्यानामाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे… नाम्निनगरे मासानामुत्तमे… मासे…पक्षे… दिने मुन्यार्यिकाश्रावकश्राविकाणां सकलकर्मक्षयार्थं पवित्रतरजलेन। जिनाभिषेचयामि ।
(चारों कलशों से अभिषेक करें तथा वादित्र नाद कराएं एवं जय-जय शब्दोच्चारण करें)

(दोहा)
क्षीरोदधि सम नीर से, करूँ बिम्ब प्रक्षाल।
श्री जिनवर की भक्ति से, जानूँ निज पर चाल।।
तीर्थंकर का नह्वन शुभ, सुरपति करें महान।
पंचमेरु भी हो गये, महातीर्थ सुखदान।।
करता हूँ शुभ भाव से, प्रतिमा का अभिषेक।
बचूँँ शुभाशुभ भाव से, यही कामना एक।।
जल फलादि वसु द्रव्य ले, मैं पूजूँँ जिनराज।
हुआ बिम्ब अभिषेक अब, पाऊँ निज पदराज।।
ॐ ह्रीं अभिषेकान्ते वृषभादिवीरान्तेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)
श्री जिनवर का धवल यश, त्रिभुवन में है व्याप्त ।
शान्ति करें मम चित्त में, हे परमेश्वर आप्त ।।
(पुष्पाञ्जलि क्षेपण करें)

(रोला)
जिन प्रतिमा पर अमृतसम जल-कण अति शोभित ।
आत्म-गगन में गुण अनन्त तारे भवि मोहित ।।
हो अभेद का लक्ष्य भेद का करता वर्जन ।
शुद्ध वस्त्र से जल-कण का करता परिमार्जन ।।
(प्रतिमा को शुद्ध वस्त्र से पोंछे)

(दोहा)
श्री जिनवर की भक्ति से, दूर होय भव-भार ।
उर-सिंहासन थापिये, प्रिय चैतन्य कुमार ।।
(जिनप्रतिमा को सिंहासन पर विराजमान करें तथा निम्न छन्द बोलकर अर्घ्य चढ़ायें।)

जल-गन्धादिक द्रव्य से, पूजू श्री जिनराज।
पूर्ण अर्घ्य अर्पित करूँ, पाऊँ चेतनराज ।।
ॐह्रीं श्री पीठस्थितजिनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)
जिन संस्पर्शित नीर यह, गंधोदक गुणखान।
मस्तक पर धारूँ सदा, बनूँ स्वयं भगवान।।
(मस्तक पर गन्धोदक चढ़ावें। अन्य किसी अंग से गन्धोदक का स्पर्श वर्जित है।)

Artist: पं. श्री अभयकुमार जी

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कृपया इसका अर्थ बताएं।

अघ अर्थात पाप और क्षालक अर्थात उनका नाश करने वाले। जिनेन्द्र देव अघ-क्षालक अर्थात पापों का नाश करने वाले हैं।

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