यह मोह उदय दुख पावै । Yah Moh Uday Dukh Pave

यह मोह उदय दुख पावै

( राग दीपचन्दी)

यह मोह उदय दुख पावै, जगजीव अज्ञानी ॥ टेक ॥।

निज चेतनस्वरूप नहिं जानें, परपदार्थ अपनाये।
पर परिनमन नहीं निज आश्रित, यह तहँ अति अकुलावे ।। १ ।।
इष्ट जानि रागादिक सेवै, ते विधिबंध बढ़ावै ।
निजहितहेत भाव चित सम्यक् दर्शनादि नहिं ध्यावै ॥ २ ॥
इन्द्रियतृप्ति करन के काजै, विषय अनेक मिलावै ।
ते न मिलें तब खेद खिन्न है, समसुख हृदय न ल्यावै ३ ॥
सकल कर्मछय लक्षण, लक्षित, मोक्षदशा नहिं चावै। ’ भागचन्द’ ऐसे भ्रमसेती, काल अनंत गमावै ॥ ४ ॥

रचयिता: कविवर श्री भागचंद जी जैन

Source: आध्यात्मिक भजन संग्रह (प्रकाशक: PTST, जयपुर )