क्या है ये 'मकर-संक्रांति'? | What is Makar Sankranti?

Source: जैनपर्व चर्चा, डॉ. प्रवीणकुमार जी शास्त्री

हमारा भारत देश त्यौहारों की खान है। वर्ष में भले ही दिन 365 होते हों, किन्तु तीज-त्यौहार एवं पर्यों की सूची हजारों की संख्या पार कर चुकी है। उनमें कई तो स्वतंत्रता दिवस’ जैसे राष्ट्रीय पर्व हैं, ‘दीपावली’ जैसे धार्मिक तथा ‘जन्म-महोत्सव’ जैसे सामाजिक तथा व्यक्ति प्रधान भी हैं।

इस देश में विविध संस्कृति व अनेक जातियों के लोग रहते हैं। पर्व मनाने के उनके तरीके भी अलग-अलग तरह के होते हैं। पर्वो या त्यौहारों को मनाने में ये इतने मशगूल हो जाते हैं कि उनमें फिर किसी तरह का लाभ या हानि नजर नहीं आती।

वास्तव में पर्व या उत्सव तो उसका नाम है, जो अपने परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को हितकारी हो। उस त्यौहार से सबको खुशी हो तथा किसी का नुकसान नहीं हो। पर्व या उत्सव तो वे हैं, जो किसी भी तरह के अंधविश्वास से परे, पूर्णतः प्रायोगिक, सर्वहिताय, निजी स्वार्थों से दूर तथा सभी के लिए प्रेरणादायी हों।

उपर्युक्त नियम का ध्यान रखते हुए अब हम जनवरी माह में आने वाले उत्सव पर दृष्टिपात करते हैं, जिसका नाम है – ‘मकर संक्रान्ति’।

क्या है ये मकर संक्रान्ति ? सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना ‘संक्रान्ति’ कहलाता है तथा सूर्य के ‘मकर’ राशि (12 राशियों में से एक विशेष राशि) में प्रवेश करने को मकर-संक्रान्ति’ कहते हैं।

इसी ‘मकर-संक्रान्ति’ को देश में पर्व संज्ञा दी गई है। इसके संबंध में भी विस्तृत धारणा यह है कि पौष (दिसम्बर-जनवरी के मध्य) मास में सूर्य जब ‘धनु राशि’ को छोड़कर ‘मकर-राशि’ में प्रवेश करता है, तभी उसी दिन से सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारंभ मानी जाती है। इस कारण कहीं इसे ‘उत्तरायणी’ पर्व भी कहते हैं।

वर्तमान वैज्ञानिकों के अनुसार भारत देश उत्तरी गोलार्ध में स्थित माना गया है। मकर संक्रान्ति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात् भारत से अपेक्षाकृत दूर होता है। जिससे यहाँ भारत में रातें बड़ी तथा दिन छोटे होते हैं; किन्तु मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरी गोलार्ध की ओर आना शुरु होता है, जिससे दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक तथा रात छोटी होने से प्राणियों में चेतनता एवं कार्यशक्ति में वृद्धि होती है। __एक बात और विशेष है कि भारतीय पद्धति की सभी तिथियाँ चन्द्रमा को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किन्तु मकर संक्रान्ति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। इसी कारण यह पर्व प्रतिवर्ष लगभग 14 या 15 जनवरी को पड़ता है।

मकर-संक्रान्ति की मान्यता मुख्यतया भारत व नेपाल - इन दो देशों में है। भारत में भी सर्वत्र न होकर किसी खास प्रान्तों में अपनी विविध धारणाओं के अनुसार है। जैसे उत्तर भारत में इसे ‘लोहरी’, दक्षिण भारत में इसे ‘पोंगल’ तथा मध्य भारत में ‘संक्रान्ति’ नाम से मनाया जाता है।

यदि पृथक्-पृथक् प्रान्तों में देखें तो बिहार और उत्तरप्रदेश में इसे _ ‘खिचड़ी’, तमिलनाडु में ‘पोंगल’, असम में ‘माघ बिहू’, पंजाब में ‘लोहड़ी’, कर्नाटक, केरल व आंधप्रदेश में ‘संक्रान्ति’, गोवा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा व हिमाचल में ‘मगही’, कश्मीर में ‘शिशुर सेक्रांत’ तथा नेपाल में कहीं ‘माघे संक्रान्ति’ व कहीं ‘मगही’ नाम से मनाया जाता है। इस तरह ये सामान्य कथन हैं, विशेष और भी संभावनाएँ हैं, जो शोध योग्य हैं।

’मकर-संक्रान्ति’ मनाने की मान्यता और मनाने के कारणों के संदर्भ में विविध प्रान्तों में विविध तरह के लोगों की विविध अवधारणाएँ हैं। जैसे कोई तो सूर्य को देवता मानकर उसके उत्तरायण (पूर्व से उत्तर की ओर) में गमन करते हुए भारत देश की ओर गमन के कारण तथा उसकी किरणों से सेहत और शांति बढ़ाने वाली होने के कारण; इसी तरह कोई हिन्दु समुदाय इसे धार्मिक कथा से जुड़ी घटना से जोड़ते हैं। जैसे - गंगा नदी का भागीरथ के पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में मिलने से तथा उसी दिन महाभारत काल में भीष्म पितामह की देह-त्याग का दिवस आदि मान्यताओं से जोड़कर इसे मनाते हैं।

मकर-संक्रान्ति को मनाने के तरीके भी सर्वत्र अलग-अलग दिखाई देते हैं। जैसे - कोई इस पर्व को मनाने की सार्थकता गंगा-नदी में स्नान करने से मानते हैं तो कोई नये अनाज की खिचड़ी बनाकर खाने से; कोई तिल का शरीर में उबटन लगाने से तो कोई खीर खाना, दान देना तथा पतंग उड़ाना आदि कार्य करके इसे मनाते हैं। अधिकतम प्रसिद्ध मान्यताएँ नदी-स्नान, तिल-गुड़ के लड्डू खाना तथा पतंग उड़ाना आदि हैं।

इस त्यौहार की वास्तविकता और प्रायोगिक तथ्यों पर विचार किया जाये तो यह पर्व किसी धार्मिक घटना विशेष पर आधारित न होकर पूर्णतः खगोलीय घटना मात्र है अर्थात् सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश तथा दक्षिणायन (सूर्य का दक्षिण की ओर) से उत्तरायण ( उत्तर की ओर) में परिवर्तन मात्र है और कुछ नहीं।

इससे मात्र दिन-रात्रि की हीनाधिकता में अंतर पड़ता है। दक्षिणायन में दिन छोटे तथा रात्रि बड़ी, उसी तरह उत्तरायण में रात्रि छोटी तथा दिन बड़े होने लगते हैं और इसतरह का परिवर्तन सदा से होता चला आ रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा। इसमें नवीन क्या है?

ज्योतिषियों के आँकलन के अनुसार सूर्य की गति (रफ्तार) में भी घटना-बढ़ना रूप परिवर्तन होता रहता है, जिससे सूर्य का मकर राशि में प्रवेश सर्वथा 14 या 15 जनवरी को संभव नहीं है, कदाचित् उसमें भी परिवर्तन होता रहता है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार इतिहास गवाह है कि 1000 वर्ष पहले मकर संक्रान्ति 31 दिसम्बर को मनाई जाती थी। राजा हर्षवर्धन (600 ई.-647 ई.) के काल में यह पर्व 24 दिसम्बर को पड़ा था, जलालउद्दीन मुहम्मद (1542-1605) के काल में यह पर्व 10 जनवरी को पड़ा था, छत्रपति शिवाजी (1630-1680) के काल में यह पर्व 11 जनवरी को पड़ा था। इसी तरह सन् 2012 में 15 जनवरी को यह पर्व मनाया गया था। इसका कारण ज्योतिष संबंधी अनेक आँकड़े हैं, उनका विस्तार इस लेख में संभव नहीं।

उपर्युक्त इतनी विविधता के साथ वर्तमान में भी उत्तरायण के संबंध में मतभेद है। आज के ज्योतिष के अनुसार बड़े दिन अथवा जाड़े का दिन या फिर उत्तरायण का प्रारंभ 21 दिसम्बर से माना जाता है, किन्तु प्राचीन पद्धति के अनुसार रचे पंचांगों के अनुसार उत्तरायण का प्रारंभ 14 जनवरी (पौष मास) से तथा जैनदर्शन के ग्रन्थ ‘त्रिलोकसार’ गाथा 381 विशेषार्थ में माघ मास से उत्तरायण का प्रारंभ माना है।

इस तरह यह ‘मकर-संक्रान्ति’ मात्र खगोलीय घटना है, किन्तु उसमें भी मतभेद होने से इसमें क्या धरम और क्या करम ? अधिक क्या कहें एक आँकलन के अनुसार यह पर्व दिवस 5000 वर्ष बाद फरवरी माह के अंत में आयेगा। अत: सब कुछ विचारणीय!

इसी लेख में इसे मनाने के मुख्य तीन तरीके भी विचारणीय हैं, जिन पर सभी का ध्यान आकर्षित होना चाहिए। 1. गंगा स्नान, 2. तिल-गुड़ का सेवन तथा 3. पतंगोत्सव।

1. गंगा-स्नान - लोगों की मान्यता है, इस दिन गंगा-नदी में स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं। इस संबंध में खुले मन से विचार करें तो सच्चाई सबको ख्याल में आयेगी। यदि गंगा-स्नान से पाप धुलने लगे तो लोग सालभर पाप करेंगे; कत्ल करेंगे; चोरी करेंगे; परस्त्री सेवनादि करेंगे और गंगा-स्नान से सारे पाप भी धो लेंगे, फिर कानून और पुलिस प्रशासन की क्या आवश्यकता है? पाप करो और साल भर बाद गंगा नदी में डुबकी लगाओ और निष्पाप हो जाओ! पापियों के लिए इससे अच्छा क्या होगा?

2. तिल-गुड़ का सेवन - इस संबंध में भी अनेक लोगों की धार्मिक मान्यताएँ रूढ़ि से हैं। इस अवसर पर इनका भक्षण करना चाहिए, किन्तु इस मान्यता के साथ कि ये मात्र शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार तिल में कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम तथा फास्फोरस पाया जाता है। इसमें विटामिन ‘बी’ और ‘सी’ की भी काफी मात्रा होती है। यह पाचक, पौष्टिक, स्वादिष्ट और स्वास्थ्य रक्षक है।
इसी तरह गुड़ में भी अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ होते हैं। इसमें कैल्शियम, आयरन और अनेक विटामिन्स भरपूर मात्रा में होते हैं। गुड़, शरीर को मजबूत करता है। शारीरिक श्रम के बाद इसके सेवन से थकावट दूर होती है। गुड़ खाने से हृदय भी मजबूत बनता है और कोलेस्ट्रॉल घटता है। तिल व गुड़ मिलाकर खाने से शरीर पर सर्दी का असर कम होता है।
मात्र यही वजह है कि मकर-संक्रान्ति के समय कड़ाके की ठंड के वक्त हमारे शरीर को गर्म रखने के लिए तिल और गुड़ के सेवन पर जोर दिया जाता है।

3. पतंगोत्सव - इससे लाभ नहीं के बराबर, किन्तु नुकसान शतप्रतिशत प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। लाभ मात्र यही कहा है कि सुबह की सुनहरी धूप में पतंग उड़ाने से इस ठंड के मौसम में ताजा धूप के सेवन से सर्दी में होने वाले रोगों से मुक्ति मिलती है और हमारा शरीर स्वस्थ रहता है; किन्तु पतंग उड़ाये बिना भी सुबह की धूप का सेवन किया जा सकता है।
परन्तु ठीक इसके विरुद्ध पतंग उड़ाने से नुकसान इतने अधिक हैं, जिनकी सूची (List) बनाना कठिन है। नमूने के तौर पर कुछ उदाहरण निम्न हैं -

  1. माँझे के उपयोग से स्वयं की उंगलियाँ कट जाती हैं।
  2. अनेकों बेजुबान पक्षियों की मौतें भी होती हैं।
  3. सड़कों पर अनेकों दुर्घटनाएँ (Accident) होते हैं।
  4. अनेकों की तो गर्दन भी कट जाती है।
  5. कटी पतंग पकड़ने के चक्कर में दौड़ते समय दुर्घटना या छत से गिरकर मौत भी हो जाती है।
  6. माँझे के स्पर्श से अनेक रोग भी संभव हैं। इसप्रकार पतंगोत्सव के अनेक नुकसान देखकर तथा देश की करोड़ोंअरबों रुपयों की हानि देखकर भी लोग बिना सोचे-समझे ही इस त्यौहार को मनाते हैं, तब फिर विचार करें क्या होगा हमारे देश और समाज का?

अंत में यही कहा जा सकता है कि इस ‘मकर-संक्रान्ति’ को मात्र रूढ़िवश या धर्मान्धता से न देखकर, खुले मन से और निष्पक्ष प्रायोगिक विचार करके देखें तो स्वयं का, समाज का तथा राष्ट्र का हित हुए बिना न रहेगा।

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मतलब, पर्वों के भेदों में तात्कालिक पर्वों में घटना विशेष से होनेवाले पर्वों में मात्र कथात्मक ही नहीं भौगोलिक पर्व भी समाहित हैं। क्या जैनों में कोई भौगोलिक पर्व मनाया जाता है?

क्या अष्टमी चतुर्दशी को इनमें रखना उचित है? क्या अष्टाह्निका या दशलक्षण भी इसके अन्तर्गत आएंगे?

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सूर्य, चंद्रमादि व नक्षत्रों के गमन से सम्बद्ध रखते हुए तो कोई विशेष पर्व आदि(अष्टमी, चौदस, अष्ठानिका को छोड़ कर) का संस्मरण जैन साहित्य में तो कहीं सुनने– पढ़ने को मिला नहीं है,परंतु एक प्रयुक्त स्थान व भूगोल पर दृष्टि केंद्रित की जाए,तो वहा के भूगोल में हुई कुछ विशेष घटना से संबंधित पर्व तो हम मानते ही है, जैसे महावीर जयंती, श्रुत पंचमी, रक्षाबंधन पर्व, जो की जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विशेष घटनाएं हुई है,अब उनको ‘इसी भूगोल में हुए है’, इस अपेक्षा से माने तो भौगोलिक भी कहा जा सकता है, और मात्र तारे सूर्य चंद्रमा नक्षत्र आदि के चलन को ‘भौगोलिक पर्व’ की उपाधि के रूप में स्वीकार करें, तो यह ही कथात्मक पर्व के खाते में चले जायेंगे। अर्थात् यहां भी अनेकांत ही समझना।

अष्टमी, चतुर्दर्शी, अष्टानिका, व दशलक्षण पर्व आदि को चंद्रमा की चाल के अनुसार, निर्धारित किए जाने पर भी वे शाश्वत पर्व
कहलाए गए, कारण की मात्र हमारे भूगोल में ही नहीं, अष्टमी, चतुर्दर्शी, अष्टानिका तो सर्वत्र ही मनाए जाते हैं, और दशलक्षण पर्व भी पांचों भरत और पांचों ऐरावत क्षेत्रों में मनाया जाता है, इसीलिए उन्हें मात्र भौगोलिक पर्व का ही नाम नहीं दिया, शाश्वत पर्व का नाम दिया गया।
ऐसा मेरा स्वतंत्र मत है, बाकी इस पर और भी नई नई चर्चाएं और विचार–विमर्श आदरणीय है।

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नक्षत्रों के अनुसार जागतिक सभी पर्व भौगौलिक भी हैं।

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