क्या दोनों का अर्थ एक ही होगा ? इनमे से कौनसा पुण्य कब बंधता है? कोई उदहारण हो तो अच्छे से समझ आ जायेगा
दोनों अलग अलग है।
सातिशय पुण्य - तीर्थंकर प्रकृति के उदयं को ही सातिशय पुण्य कहते है, जिसका उदय मात्र 13वें गुणस्थान में ही आता है।
पुण्यानुबंधी पूण्य - वर्तमान में तो पुण्य का उदयं है और उस पुण्य के उदय आगामी पुण्य कर्म का ही बंध करना ही पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है।
पुण्यानुबंधी पाप - वर्तमान में तो पुण्य का उदयं है और उस पुण्य के उदय आगामी पाप कर्म का बंध करना ही पुण्यानुबंधी पाप है।
पापानुबंधी पुण्य - वर्तमान में तो पाप का उदयं है और उस पाप के उदय आगामी पुण्य कर्म का बंध करना पापानुबंधी पुण्य है।
पापानुबंधी पाप - वर्तमान में तो पाप का उदयं है और उस पाप के उदय आगामी पाप कर्म का बंध करना पापानुबंधी पुण्य है।
पर सम्यक्ज्ञान चन्द्रिका में तत्वचिंतन करने से सातिशय पुण्य बंधता है, ऐसा लिखा है
मूल में जो सातिशय पुण्य वह तीर्थंकर प्रकृति ही है। परंतु गौण रूप से अन्य विशेष पुण्य को भी सातिशय पुण्य कह दे देते है। फिर भी एक बार सम्यग्ज्ञान चंद्रिका के उस प्रकरण की photo भे दो।
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- ऊपर जो सातिशय लिखा है, वह उपचार से तीव्र पुण्य को कहा गया है।
दूसरी बात यह कि वहाँ सातिशय पुण्य के बांध की ही चर्चा है। उदय की नहीं । सातिशय पुण्य का उदय तो तीर्थंकर प्रकृति के रूप में 13वें गुणस्थान में ही आता है। और बंधन तो चौथें गुणस्थान से 8वें के छठवें भाग तक होता है। इन गुणस्थान में ज्ञानाभ्यास से सातिशय पुण्य बंध हो सकता है।