निराकृताशेषकलङ्कपङ्को निश्शेषवित्सत्त्वहितोपदेष्टा।
सुरेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रवन्द्यः श्री वर्द्धमानो दिशतु श्रियं नः॥
अर्थ- १००८ श्रीवर्द्धमान भगवान् ने अपने आत्मा से समस्त कर्मरूपी कलंक अर्थात् द्रव्यकर्म ज्ञानावरण आदि तथा भावकर्म रागद्वेष आदि मैल कीचड़ को धो डाला है और जो समस्त मूर्त तथा अमूर्त पदार्थों के ज्ञाता सर्वज्ञ हैं और जो सर्व संसारी जीवों को कल्याणकारी उपदेश देते हैं तथा जो भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी और कल्पवासी देवों के स्वामी इन्द्रों से तथा मनुष्यों के स्वामी चक्रवर्ती और तिर्यन्चों के स्वामी सिंह इस प्रकार सौ इन्द्रों से वंदनीय हैं वे अनन्तचतुष्टय (अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य) तथा बहिरंग समवशरण रूप लक्ष्मी से सुशोभित चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान स्वामी हम लोगो के लिये अविनश्वर मोक्षलक्ष्मी को देवें।
इस प्रकार मंगलाचरण करके हे भव्यात्माओ मैंने इस संसार अवस्था में रहकर जो कुछ भी आत्मा का हित समझा है, उसे मैं तुम्हारे सामने कहता हूं। तुम ध्यान से सुनो, इससे तुम्हें भी आत्म कल्याण का मार्ग मिलेगा, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है।
प्रश्न- हे आत्मन् तू विचार, जो तेरी आत्मा है वह अनादि काल से
है या नवीन उत्पन्न हुई है?
उत्तर यह है। इस संसार में ऐसे बहुत महा पुरुष हुए हैं जो परिपूर्ण ज्ञानी (सर्वज्ञ) थे। उन महात्माओं ने अपने दिव्य ज्ञान नेत्रों से इस आत्मा का साक्षात्कार किया और सिद्धांततः प्रत्येक आत्मा अनादि और अनन्त है। न तो यह जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त करता है। इस तरह हे आत्मन्! तू अनादि तथा अनन्त है न तो तेरा आदि है और न अंत है, तू तो जैसा है वैसा ही है।
लेकिन अनादिकाल से तू कर्मजाल में फंसा हुआ है, अतः चतुर्गति (नरकगति तिर्यग्गति मनुष्यगति और देवगति) में यह आत्मा भ्रमण कर रहा है। इस चक्र में इस आत्मा के साथ किन-किन आत्माओं के कितने-कितने संबन्ध (नाते) हो गये हैं उन्हें यहां संक्षेप में बतलाया जा रहा है-
ऐसा क्षेत्र रहा नहीं यहाँ- तेरा जन्म हुआ नहीं जहाॅं।
ऐसा जीव कोई नहीं यहाॅं- तेरे नाते बिन कोई न यहाॅं॥
यहां- इस संसार में अर्थात् व्यवहार राशि में न तो ऐसा कोई क्षेत्र (स्थान- प्रदेश) रहा जहां पर तेरा जन्म न हुआ हो और न कोई ऐसा जीव भी रहा जिससे तेरा नाता सम्बन्ध अनंतबार न हुआ हो। इसलिये हे जीव, अब तू समझ, मेरी बात सुन।
इस संसार में कोई सार नहीं। यह माया-ममता ही इस जीव को नचाती फिरती है और यही इस जीव को समझाये रहती है कि यह तेरी माता है, यह तेरा पिता हैं और यह तेरा भाई है यह तेरी अर्द्धांगिनी स्त्री है। परन्तु देख शास्त्रों में तेरे वास्ते श्री गुरुओं ने क्या क्या उपदेश दिया है-
कोई न माता ना कोई पिता भाई न स्त्री न कोई सुता।
अहंकार ममकार रहाजता, सिद्धसमान तू पारहारषता।
आगे और कहते हैं-
मात पिता स्वजन बन्धु सुमित्र भाई
कोई न साथ जग में चलता कभी है।
संसार में भ्रम रहा चिरकाल से तू-
साथी न जग में कभी कोई हुआ है॥
हे जीव! माता पिता स्वजन बन्धु भी इस जीव के साथ कोई भी नहीं जाता। देख तेरी आत्मा ने कितने जन्म और मरण किये हैं उन्हीं को यहां पर दिखाते हैं-
संसार में भ्रमण को करते हुए ही,
हा मृत्यु के दुःख सहे जिसका न पार
सर्वज्ञ देव बिन तो उनकी कभी भी,
जानी न जाय गणना इस लोक के मॅंझार॥
हे जीव! इस संसार में तू कब से भ्रमण कर रहा है, कितने तेरे माता पिता हो गये और कितने दुःख तूने सहे इनकी गणना करने वाला सिवा सर्वज्ञ देव के दूसरा कोई भी नहीं हुआ और न होगा। हे जीव! तू ममता के सम्बन्ध से कुटुम्ब को अपना जानता है लेकिन श्री गुरु महाराज का इसके सम्बन्ध में क्या ही उत्तम उपदेश है सुन:-
अथिर सुपरिजन पुत्र कलत्र, सभी मिले है दुःख के सत्र।
चिन्तो चित में निश्चय भ्रात, जननी कौन कौन तव तात॥
हे जीव! पुत्र स्त्री कुटुम्बी जन आदि जितने भी हैं वे सब अनित्य हैं तथा सर्व ही मिलकर दुःख देने वाले हैं। हे भाई जरा विचार, इस संसार में कौन किसका भाई है, कौन किसकी माता और किसका कौन पिता, कौन किसका पुत्र, कौन किसकी स्त्री सब कोई संसार स्वार्थ के साथी हैं।
दोहा
स्वार्थ में सब कोई भये स्वारथ बिना नहीं कोय।
जब सध जाता स्वारथ तब, बात न पूछे कोय॥
हे भव्य जीवो! आप खुद अपनी आँखों से सदा सब को देखते हो संसार में जितने जीव हैं वे सब स्वार्थ के ही साथी हैं।
सज्जन चित्त वल्लभ नामा ग्रन्थ में भी ऐसा ही कहा है-
जो घर में धन हो न कदापि करै तिय सोच मरे बलमा की।
जो नहीं हो धन तो नित रोवत धारि हिए अभिलाख जिया की॥
दग्ध किये पर सर्व कुटुम्ब के स्वार्थ लगैं ममता तज ताकी।
केतिक वर्ष गये अबला जन भूलहि नाम न लें सुधि बाकी॥
[श्री मल्लिषेण आचार्य विरचित ‘सज्जन चित्त वल्लभ’, श्लोक 12 का पद्यानुवाद- कवि मेहरचन्द]
हे आत्मन! तू देख! इस संसार में स्त्री का जो कुछ भी सर्वस्व है वह पति ही है परन्तु पति के मर जाने पर वह उसका नाम तक नहीं लेती। अब विचार संसार में सभी जीव स्वार्थवश एक दूसरे से प्रेम करते हैं धन के वास्ते यह जीव धनवान से प्रेम करता है धर्म के लिये नहीं।
कल्पना कर! किसी समय किसी घर में चार बाल बच्चे हों और उस दिन उस घर में अनाज उतना ही हो जितने में उस दिन का भोजन हो जाय ऐसे समय पर वह पुरुष कहीं धर्म स्थान पर धर्म साधना में बैठ जाय तब फिर देख उसके घर वालों का उसके ऊपर कितना और कैसा प्रकोप होता है, जिसे सुनकर सुनने वाले का हृदय धड़कने लग जाय क्योंकि धन की चाह लालसा रखने वाले घर वालों का उस दिन उसके साथ सिंह जैसा व्यवहार होगा जैसे बकरी के बच्चों को भूखा सिंह खाने को दौड़ता। ऐसा व्यवहार देखकर हे जीव तू अपने विषय में भी ऐसा ही विचार कर।अगर तुझे विश्वास न हो तो तू अपने असली तू कुटुम्बियों के साथ एक दिन ऐसा व्यवहार कर देख, तब तुझे यह भली भांति ज्ञात हो जायगा कि कुटुम्बीजन कितने स्वार्थी (मतलबी) होते हैं जैसा कि किसी कवि ने कहा है।
(दोहा)
निजलक्ष्मी खाने को कुटुम्बी भये अनेक
याका फल भुगतत समय-साथी भया न एक
इसलिये हे आत्मन् इस संसार में कोई किसी का नहीं है। कुटुम्बी जन इस प्राणी के साथ कब तक और कैसा व्यवहार करते हैं। सुनिये
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जनाः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः॥
अर्थ- धन रुपया पैसा इस जमीन पर ही पड़ा रहता है। पशु गाय भैंस आदि गोष्ठ-अपने स्थान पर ही रह जाते हैं। स्त्री घर के दरवाजे पर ही रह जाती है। शेष कुटुम्बी जन बन्धु आदि स्मशान तक चले जाते हैं। शरीर अग्नि की चिता में ही भस्म हो जाता है सिर्फ एक जीव ही किये हुये कर्म के अनुसार परलोक के मार्ग .
पर चलता है।
अतः हे जीव! जरा तो विचार कर कि जब कुटुम्बियों का इस जीव के साथ इस प्रकार का व्यवहार है, तब यह मिथ्यादृष्टि- मोही जीव मोह के दल दल में फंसकर अपने हित के लिये थोड़ा सा भी विचार नहीं करता यह इसकी कितनी बड़ी भूल है।
इसलिये हे जीव अब तू विचार कि तेरा धन के बिना यहां कौन है यहा तो सिर्फ एक ही धन का ही दौर दौरा है। धन के बिना कोई किसी का साथी नहीं है। धनवानों का ही इस जग में आदर सम्मान और सत्कार होता है परंतु धन की शोभा पुण्य कार्य में दान किये बिना नहीं होती। धन पाने का फल उदारता पूर्वक दान करना है।
एक कहावत है कि “अगर के डिब्बे से दिमाग तर और ठंडा नहीं होता” यदि उस अगर को तुम डब्बे में से निकाल कर अग्नि में डालोगे तो उसकी सुगंधि-खुशबू से तुम्हारा दिमाग-मगज-मस्तक सुगंधित और तर हो जायगा। इसी तरह से ही यदि आप संसार में बड़प्पन चाहते हो तो अपने पुण्योपार्जित धन को पुण्य कार्यों में दो जिससे निर्धन दुःखी भुखी रोगी अज्ञानी जनता का कल्याण हो और तुम्हारा यश सारी दुनियाँ में फैले और परलोक में तुम अनुपम ऐश्वर्य शाली बनोगे।
यही बात नीचे दिये गये श्लोक से जाहिर होती है।
सुपात्रदानाच्च भवेद्धनाढ्यो धनप्रभावेण करोति पुण्यम्।
पुण्यप्रभावात्सुरलोकवासी, पुनर्धनाढयः पुनरेवभोगी॥
अर्थात् सुपात्र दान से यह जीव धनवान बनता है और धन के प्रभाव से पुण्य का उपार्जन करता है और पुण्य के प्रभाव से स्वर्गवासी देव होता है। तत्पश्चात् धनवान भोग तथा उपभोग की सामग्री का भोगने वाला होता है। इस तरह से हे जीव देख धनवान धन के दान से संसार में भी सांसारिक सुख का भोगने वाला होता है इसलिये हे भव्यात्माओ यदि तुम संसार में रहते हुए भी सुखी रहना चाहते हो तो तुम अपने आय के धन का व्यय करते समय दान का भी ध्यान रखो। प्रतिदिन की आय का कुछ न कुछ हिस्सा दान में जरूर ही खरचो, जिससे तुम्हारा इस भव में सम्मान हो और परभव में तुम संपत्तिशाली बन सको दान करते वक्त इस बात का ध्यान रखो कि मैं जो दान में द्रव्य दे रहा हूं वह उपयोग में आ रहा है या नही? यदि उपयोग में भी आता है तो अच्छे कार्यों में ही आता है बुरे कार्यों में तो नहीं।
मैंने जिस उत्तम कार्य के वास्ते द्रव्य दान किया है वह उस कार्य में खरचा जा रहा या नहीं वह सिर्फ किसी तिजोरी की शोभा तो नहीं बढ़ा रहा है। दान देते वक्त पात्र अपात्र का भी ध्यान रखना जरूरी है। ऐसा न करने से कभी कभी दान में दिये हुये द्रव्य से उपकार की बजाय महान् अपकार-अनर्थ के होजाने की आशंका हो जाती है, जैसा कि नीचे लिखी गई कथा से सर्वथा स्पष्ट है।
सौराष्ट्र देश में एक धीवर रहता था उसके पास की निजी सारी सम्पत्ति नष्ट भ्रष्ट हो गई, तब भीख मांग कर अपने उदर की पूर्ति करने लगा। लेकिन भीख मांगने मात्र से उसके सारे कुटुम्ब का निर्वाह होना अति कठिन था अतः उसने अपने कुटुम्बीजनों का पालन पोषण करने का विचार किया। परन्तु उस भेष में उसको आदर पूर्वक कौन दान दे सकता था तब उसने सोचा कि अगर मैं किसी भी प्रकार से साधु बन जाऊं तो मेरा सारा मनोरथ सफल हो जायगा, अतः वह एक अच्छे साधु का भेष बनाकर किसी गांव में पहुँचा। साधुजी को आया हुआ सुन कर दर्शकों की अपार भीड़ उनके दर्शनों के लिये उमड़ पड़ी अब क्या था बड़े सेठ साहूकार भी उनके दर्शनों को जाने आने लगे। साधु जी इस तरह से खूब पुजने लगे। एक दिन साधु जी ने विचार किया कि बड़े-बड़े लोग मेरे भक्त हो गये हैं इसलिये मुझे अब अपना उल्लू सीधा करना चाहिए अर्थात् अपना मतलब गांठना चाहिए।
एक दिन साधुजी ने अपने परम भक्त एक अच्छे धनी मानी सेठजी से कहा कि सेठजी मैं जहां का रहने वाला हूं वह एक अच्छा धर्मसाधन का स्थान नहीं बना हैं, जिसमें रहकर धर्मात्मा लोग विशेष धर्मसाधना कर सकें अतः यदि आप मुझे कुछ धन का दान करें तो मैं अपनी अभिलाषा को पूर्ण करूं। सेठ साहब ने बिना आगा पीछा सोचे ही उस झूठे कपट भेषी साधु को बहुत सा धन दान में दे डाला। उस विपुल धन राशि को लेकर छद्म भेषी साधु ने घर आकर अपना असली धीवर का रूप धारण कर मछलियों के मारने में ही उस धन का उपयोग किया।
इसलिये हे भव्यात्माओ जिस समय तुम जो कुछ भी दान करो खूब सोच समझ कर करो क्योंकि जिस सेठ ने उस कपट भेषी साधु को दान दिया था उसके दुरुपयोग के फल से सेठ उसी भव में अत्यन्त दयनीय दीन-हीन गरीब हो गया और महा दुःख का पात्र बना।
इसलिये ऐसी दान शीलता किस काम की जिसका फल दोनों को बुरा हो।
महापुरुषों की आज्ञा है कि दान देते वक्त पात्र की परीक्षा करो यदि वह परीक्षा करने पर सत्पात्र हो तो उसे दान दो ऐसा करने से दोनों (देने वाले और लेने वाले) का कल्याण होगा।
केवल भक्ति के प्रवाह में बहकर बिना परीक्षा किये जिस किसी को दान देना अच्छा नहीं है। क्योंकि धन का अर्जन बड़ी कठिनता से होता है जैसे किसान पहले खेत की जमीन को जोतकर ठीक करता है पीछे बीज बोता है कब जब पानी बरस चुकता है। जमीन बीज बोने के लायक हो जाती है तब भी वह यह भी देखता है और विचारता है कि यह जमीन इस समय कौन से बीज के योग्य है वही बीज उस में बोता है। यदि ऐसा विचार न करके वह बिना जोती बिना पानी पाई हुई विकारी जमीन में ही बीज को बो देगा तो उसे कुछ भी फल की प्राप्ति न होगी और ज्यादा तकलीफ भोगनी पड़ेगी। अपात्र को दान देने से दानी धन हीन और दरिद्र हो जाता है फिर वह निर्धन होने से कुछ भी नहीं कर सकता। इसी बात को नीचे के श्लोक से बताया जाता है।
पक्षविकलश्चपक्षी शुष्कश्चतरुः सरश्च जलहीनम्।
सर्पश्चोद्धृतदंष्ट्रस्तुल्यं लोके दरिद्रश्च ॥
अर्थात्- जैसे पक्षों-पंखों के बिना पक्षी कर्तव्य हीन हो जाता है सूखा हुआ वृक्ष निरुपयोगी हो जाता है, जल रहित तालाब किसी का उपकार नहीं कर सकता दन्त रहित सर्प अपनी रक्षा नहीं कर सकता। वैसे ही धन हीन मनुष्य इस लोक में किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है किसी भी छोटे बड़े कार्य को करने में समर्थ नहीं हो सकता।
बन्धुओ! संसार में धन सबसे प्रिय पदार्थ है क्योंकि धन के बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थसा हो जाता है धन से होने वाले कार्यों को वह बिना धन के नहीं कर सकता। नीतिकार कहते है:-
परोपकारशून्यस्य धिङ् मनुष्यस्य जीवितम्।
धन्यास्ते पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति॥
अर्थात- परोपकार रहित मनुष्य का जीवन धिक्कार है इससे तो वे पशु ही अच्छे हैं जिनका चमड़ा भी प्राणियों का उपकार करता है।
हे बन्धुओं! संसारी जीवों का बन्धुत्व उपकारी एक धर्म ही है और वह धर्म परोपकार रूप भी है इसी बात को हमारे नीतिकारों ने भी पुष्ट किया है वे कहते हैं-
परोपकारः कर्त्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि।
परोपकारजं पुण्यं न स्यात् क्रतुशतैरपि॥
अर्थ- प्रत्येक विवेकी मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने प्राणों से और धन से भी करने योग्य प्राणी का उपकार करे भूले नहीं क्योंकि परोपकार (दूसरे की भलाई) से उत्पन्न हुआ पुण्य सैकड़ों यज्ञों के करने पर भी नहीं प्राप्त हो सकता।
इस नश्वर शरीर का तथा धन का कोई ठिकाना नहीं है कि यह कब तक रहेगा अगरचे इस नशनशील शरीर से दूसरे की भलाई हो सकती है तो इससे बढ़कर उत्तम कार्य और क्या हो सकता है। बड़े बड़े चक्रवर्तियों का शरीर भी स्थिर नहीं रहा तो हमारी तुम्हारी बात ही क्या है यही बात धन सम्पत्ति के विषय में भी विचार लेना चाहिए कि यह भी समय पर नष्ट भ्रष्ट हो जानी वाली चीज है अतः इसको परोपकार में खर्च कर सफल करना ही किसी भी बुद्धिमान की बुद्धिमानी का कार्य है।
सच्चा धन वही है जो किसी भी उत्तमोत्तम कार्य में व्यय (खर्च) किया जाता है सच्चा दानी भी वही हो सकता है जो अपनी गाढी कमाई को अपने हाथों से अपनी समझ से किसी भी पारमार्थिक कार्य को सुचारु रूप से चलाये रखने के हेतु दे देता है इस तरह का दानी होना भी महान पुण्य के उदय का कार्य है जैसा कि .
निम्नलिखित श्लोक से प्रगट है-
शतेषु जायतेशूरः सहस्रेषुच पण्डितः।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवतिवा न वा॥
अर्थ- हे बन्धुओ, देखो सैकड़ों मनुष्यों में कोई एक मनुष्य शूर होता है, हजारों मनुष्यों में कोई एक पंडित होता है और दश हजार मनुष्यों में बड़ी ही कठिनता से कोई एक वक्ता मिलता है लेकिन दानी मनुष्य का मिलना तो बहुत ही दुर्लभ है अर्थात विशेष पुण्य के प्रभाव से ही धन की प्राप्ति होती है और उस धन का दान करना तो सबसे ज़बर्दस्त पुण्य से हो सकता है दानी पुरुष तो यही विचार करते हैं कि यह धन जिसे हमने विशिष्ट पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त किया है त्रिकाल में भी हमारे साथ नहीं जा सकता यह यहीं का यहीं रह जायगा यदि हम इसे अपने साथ ले जाना चाहें तो हमारा यह परम कर्तव्य है कि हम इसे परोपकार के कार्य में दे दें ऐसा करने से ही यह धन हमारे साथ जा सकता है। इसी में मनुष्य की मनुष्यता का परिचय प्राप्त होता है। बड़े बड़े नीतिकारों ने धन की दशाओं का वर्णन करते हुये लिखा है कि संसार में धन की तीन ही दशाएं होती हैं।
दानं भोगोनाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
योनददातिन भुङ्क्ते तस्य तृतीयागतिर्भवति॥
हे आत्मन् तू विचार, धन की तीन अवस्थाएं होती हैं (१) पहली दान (२) दूसरी भोग (३) तीसरी नाश। जो धनी अपने धन को सत्पात्र आदि में नहीं खरचते और न भोगोपभोग में ही लगाते हैं, उनका वह धन यों ही नाश को प्राप्त होता है। अतः हे विचारशील तू अपने सद्विचार से तू ही अपनी गाढ़ी कमाई का सदुपयोग कर इसी में तेरी भलाई है ऐसा करने से ही तू भविष्य में भी धनवान होगा। बिना धन के दुनियां में इस जीव की क्या-क्या दशा होती है देख-
पैसे बिन मात कहे पूत तो कपूत भयो,
पैसे बिन भाई कहे मेरो दुखदाई है।
पैसे बिन काका कहे कौन का भतीजा है,
पैसे बिन यार मित्र मन ना मिलात है।
पैसे बिन नारि कहे नकटा सो काम परयो,
पैसे बिन सास कहे कौन को जमाई है।
पैसे बिन संसार में मुर्दे को लकड़ी नहीं,
आज तो संसार में एक पैसे की बढ़ाई है॥
जिन लोगों के पास पैसा होता है, उन्हें अनायास ही अनेक गुण स्वयं आकर प्राप्त हो जाते हैं। यही बात नीतिकार बताते हैं-
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते॥
जिस के पास धन है वह मनुष्य कुलवान न होते हुए भी कुलीन कहा जाता है मुर्ख होते हुए भी पंड़ित कहा जाता है शास्त्र का जानकार कहा जाता है गुणवान कहा जाता है वक्ता कहा जाता है।देखने योग्य भी माना जाता है। भले ही पूर्वोक्त गुणों का अंश भी इसमें न पाया जाता हो तो भी धन के प्रभाव से संसार में इसे इस प्रकार की मान्यताएं प्राप्त होती हैं। क्योंकि सभी उत्तमोत्तम गुण स्वभाव से सुवर्ण को प्राप्त करते हैं। यही बात धनवान के विषय में जाननी चाहिए। आगे और सुनिये -
धनैर्निष्कुलीनाः कुलीना भवन्ति धनैरापदं मानवा निस्तरन्ति।
धनेभ्यः परो वन्धवोनास्ति लोके धनान्यर्जयध्वं धनानि रक्षितम्॥
हे जीव तू देख इस संसार में धन से क्या क्या नहीं होता धन से अकुलीन भी कुलीन हो जाते है। धन से बड़ी बड़ी आपत्तियों से भी मनुष्य छुटकारा पा लेते हैं। धन से बढ़कर बन्धु इस लोक में दूसरा नहीं है। इस कारण हरेक मनुष्य को धन का अर्जन करना जरूरी है वही सबसे बड़ा भारी रक्षक है। धन के समान दौर दौरा मचानेवाला राजा का मंत्री (दीवान) भी नहीं होता जिसके हाथ में सारी राज्य सत्ता रहती है। धनवान पुरुष के यहां बड़े से बड़े लोग आकर बैठते हैं उसकी बड़ी इज्जत करते हैं इससे बढ़कर और दुनियां में क्या कहा जा सकता है। यह सबका सब धन का ही प्रभाव है।
यहां पर शिष्य श्री गुरु से प्रश्न करता है कि हे गुरु संसार में जैसे दुख है वैसे सुख भी तो है। श्री गुरु कहते हैं हे भाई! संसार सम्बन्धी सुख और दुःख दोनों भ्रान्त हैं। निम्नलिखित श्लोक से यह बात अक्षरशः सत्य सिद्ध होती है-
वासना मात्रमेवैतत्सुखं दुःखं च देहिनां।
तथा ह्युद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि॥6॥
[श्रीमद् पूज्यपाद स्वामी विरचित ‘इष्टोपदेश’]
अर्थात हे भाई! इन देहधारियों को जो सुख और दुख होता है वह केवल कल्पना मात्र ही है। देखो जिन्हें लोक में सुख देने वाला माना जाता है ऐसी कमनीय कामिनी जन आदि के भोग भी आपत्ति (दुर्निवार शत्रु आदि के द्वारा किये गये उपद्रव) के समय में तथा ज्वर आदि व्याधियों के समय में प्राणियों को अति ही आकुलता पैदा करने वाले होते हैं यह आकुलता विषय वासना जन्य ही है। इंद्रिय जनित सुख और दुःख वासनामात्र ही हैं। अस्वाभाविक हैं अतएव पर हैं।
ये सुख और दुःख उन्हीं के होते हैं जो देह को अपना मान रहे हैं लेकिन वस्तुतः देह भी अपनी नहीं है, यदि अपनी होती तो इसका नाश कभी भी नहीं होता। परन्तु मृत्यु होने पर यह बात साफ तौर पर जाहिर हो जाती है कि शरीर अपना नहीं है, अगर अपना होता तो यहाॅं क्यों छूटता साथ ही में क्यों न रहता इससे यह ज्ञान प्राप्त करना कि शरीर से भिन्न आत्मा नामक एक स्वतन्त्र पदार्थ है जो अन्य द्रव्यों से अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व रखता है, इसी से मनुष्य की मनुष्यता सिद्ध होती है।
स्त्री और पुरुष की क्रिया विशेष को लोक में सुख कहा जाता है लेकिन मन के दुखी होने पर वह भी दुख रूप हो जाता है क्योंकि काम का नाम मनसिज या मनोज भी है जिसका अर्थ यह है मन में या मन से उत्पन्न होता है। अर्थात् जो मन में जो काम की वासनाएं अथवा क्रीडा करने की भावनायें उत्पन्न होती है उनके अनुसार ही यह कामी अपने शरीर से नाना प्रकार की क्रीड़ायें किया करता है लेकिन जिस समय इसके मन में किसी प्रकार की दुःख को पहुँचाने वाली चिन्ता आकर उपस्थित हो जाती है उस समय वह प्राणी उस चिन्ता के चक्र में पड़कर नाना तरह के उधेड़बुन किया करता है, तब फिर इसकी वे काम क्रीड़ाएँ नहीं मालूम कहां कपूर की तरह विलीन हो जाती हैं। और भी देखिये ग्रन्थकार क्या कहते हैं-
रम्यं हर्म्यं चन्दनं चन्द्रपादाः, वेणुर्वीणा यौवनस्था युवत्यः।
नैते रम्याः क्षुत्पिपासार्दितानां, सर्वारम्भास्तण्डुलप्रस्थमूलाः॥
[पं. आशाधर जी कृत ‘इष्टोपदेश’ श्लोक 6 की संस्कृत टीका में उद्धृत]
अर्थात् रमणीय महल, चन्दन, चन्द्रमा की किरणें, वीणा और यौवनवती स्त्रियां ये सब भूख प्यास से पीड़ित पुरुषों को अच्छे नहीं लगते। ठीक ही है क्योंकि सारे ठाठ बाट जब सेर भर चावल (अनाज) घर में उदर पूर्ति के लिए होता है तब अच्छे सुहावने मालूम होते है अन्यथा नहीं। यह सब भोगोपभोग की सामग्री की प्राप्ति पुण्य के द्वारा ही होती है अतः संसार में पुण्य का विशेष महत्व है देखिये नीतिकार क्या कहते हैं-
वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धाबहुश्रुताः।
सर्वे ते धनवृद्धानां द्वारे तिष्ठन्ति किंकराः॥
अर्थात्- हे जीव जरा विचार तो सही आज संसार में पुण्य के समान बड़ा दूसरा कोई पदार्थ नहीं है कारण यह कलिकाल है, इसमें कोई ऐसा जीव नहीं है जिसने इस इच्छारूपी डाकिनी को जीता हो। औरों की तो बात ही क्या है धनवानों के दरवाजे पर बड़े-बड़े वयोवृद्ध(बूढ़े आदमी) तपोवृद्ध-महान तपस्वी और बहुश्रुत बड़े-बड़े ज्ञानी भी मामूली नौकरों की तरह उपस्थित रहते हैं यह सब चाह रूपी दाह का फल है।
जो लोग घर-द्वार, स्त्री-पुत्र, माता-पिता और बन्धुजनों को ही नहीं किन्तु बड़े बड़े राज्य को भी छोड़कर साधु हो जाते हैं लेकिन अन्तरंग में इच्छाओं का त्याग नहीं करते क्या वे सच्चे साधु कहे जा सकते हैं? नहीं कभी नहीं। किसी समय का जिक्र है कि राजा शुभचन्द्र और भर्तृहरि सन्यासी हुए। दोनों भाई थे। शुभचन्द्र तो दिगम्बर साधु हुए और भर्तृहरि सन्यासी बने। दोनों ने राज्य वगैरह को सर्वथा छोड़ दिया था। एक दिन दोनों भाई चाँदनी रात में बैठे-बैठे ध्यान कर रहे थे इतने में ही एक रास्तागीर पान चबाता हुआ उधर से निकला। निकलते समय उसने मुॅंह से पान का उगाल वहां पर थूक दिया। कुछ- समय के पश्चात् चन्द्रमा की चाँदनी वहां पर पड़ी तो वह पान का उगाल ऐसा चमके जैसे कोई मणि ही चमक रहा हो! सन्यासी राजा भर्तृहरि की निगाह भी उस पान के उगाल पर जा गिरी। सन्यासी राज भर्तृहरि ने विचार किया मालूम होता है कि कोई धनवान मनुष्य यहां से निकला होगा उसी की यह मणि गिर गयी होगी। उनकी इच्छा हुई कि हम इस मणि को उठालें। सन्यासी जी ज्यों ही पास में जाकर उसे उठाने लगे तो वह तो पान का उगाल या रत्न तो था ही नही इस से उनका हाथ लाल सुरखीले थूॅंक से भर गया सहसा छूटाने पर भी नहीं छुटा। सन्यासी भर्तृहरि की यह दशा (हालत) मुनि शुभचन्द्र जी ने देखी। उसी समय यह दोहा पढ़ा-
रत्नजडित मन्दिर तज्यो तज्यो राणियां साथ।
धिक् धिक् मणि धोके गयो पड्यो पीप में हाथ॥
इसलिये हे संसारी जीवो विचारो ऐसे-ऐसे महा पुरुषों की भी आशा इच्छा से निवृत्ति नहीं हुई तब छोटे छोटे मनुष्यों की इच्छा निवृत्ति केसे हो सकती है। देखिये आजकल जितने भी साधु और सन्यासी हैं, वे सब कुछ न कुछ आडम्बर की आड़ लेकर मांगा ही करते हैं लेकिन क्या आप यह समझते हैं कि मांगकर खाने से और महात्मा कहलाने मात्र से किसी को कभी भी शान्ति मिली है या मिल सकती है, नहीं कभी नहीं। इच्छाओं पर विजय प्राप्त किये बिना कोई भी महात्मा नहीं कहा जा सकता। वह तो एक प्रकार का मंगता भिखारी व ठगिया ही है क्योंकि-
अयाचीक ही धर्म है धर्मी जाचें नाहिं।
धर्मी बन जाचन लगे सो ठगिया जगमाहिं॥
प्रश्न- आपने ऐसा कैसे कह दिया कि भीख मांगने वाला ठगिया है जो ठगिया होता है वह पापी है हम तो ऐसे-ऐसे महात्माओं को देखते और जानते हैं जो ग्रीष्म काल में भी पंचाग्नि तप तपते हैं और १०८ धूनि तप करके ही भोजन करते है तो क्या वे तपस्वी भी इच्छाओं को जीतने वाले नहीं हैं और उनका तप भी व्यर्थ है क्या?
उत्तर- हे भाई जो आपने यह कहा कि वे ५ धूनियां तथा १०८ धूनिया लगाकर कड़ाके की गर्मी में भी अविचल आसन मांड कर ध्यान लगाए रहते हैं अतः उन्हें परम तपस्वी और जितेन्द्रिय मानने में क्या हानि है इस सम्बन्ध में हमारा कहना यह है कि यह आत्मा अपने आपको जैसा बनाना चाहे बना सकता है। सबसे पहले हम आपको ५ धूनियों और १०८ धूनियों का स्वरूप समझाते हैं। ५ अंगीठियों को व १०८ अंगीठियों को लगाकर बैठ जाना, इसका नाम तप नहीं है। वह तो एक प्रकार का पुजने पुजाने का ढोंग है उसे तप कहना ही बड़ी भारी भूल है। अब आप उन धूनियों का सच्चा स्वरूप सुनिये हे भाई जो आपका शरीर है उस शरीर में ५ इंद्रियां है १ स्पर्शन इंद्रिय (शरीर) २ रसना इंद्रिय (जिह्वा) ३ घ्राण इंद्रिय (नासिका) ४ चक्षु इंद्रिय (आंख) ५ श्रोत्र इंद्रिय (कान) इन्हें ही ५ पाँच इंद्रियां कहते है। इस जीव को ये इंद्रियाँ अपनी-२ इच्छानुसार नचाती रहती हैं। चाहरूपी दाह से इस जीव को जलाते रहना ही इन इंद्रियों का हमेशा का काम है।
इन पाँचों इंद्रियों को (जो अपने अपने अपने विषयों में इस जीव को निरन्तर लगा लगाकर सन्तप्त और दुखी किया करती हैं) वश में करना ही ५ पांच प्रकार की धूनियां हैं, इन्हीं का नाम .
पंचाग्नि तप है।
हे बन्धुओं! ये इंद्रियां ही सदा इच्छानुसार दौड़ती रहती हैं। इनकी घुड़दौड़ से यह जीव बड़ा आकुल व्याकुल रहता है। इसीलिये बड़े बड़े आचार्य महात्माओं ने हम संसारी प्राणियों को उपदेश देते हुए कहा है-
“इच्छानिरोधस्तपः”
[धवला, पु० १३, खं० ५, भाग ४, सूत्र २६]
अर्थात् इंद्रियों को विषयों की ओर से रोकना उन्हें अपने वश (काबू) में करना ही सच्चा पंचाग्नि तप है। अग्नि जलाकर शरीर को तपाना तप नहीं है यह तो एक बहुरूपिया जैसा स्वांग ही है।
यह तो ५ धूनियों का असली स्वरूप कहा। अब हम १०८ धूनियों का सच्चा स्वरूप आपको बताते हैं प्रत्येक संसारी जीव को पूर्वोक्त इंद्रियों की विवशता से ही हरेक काम करना पड़ता है। सब से पहले किसी कार्य को करने की इच्छा होती है। फिर उसे वचन से कहता है पश्चात् शरीर (काय) से उसे करता है। इन तीनों का समरंभ (सामग्री एकत्रित करने का विचार) समारंभ (सामग्री का एकत्रित करना) आरम्भ (कार्य को प्रारम्भ करना) के साथ संबन्ध होने ९ भेद हो जाते है। इन ९ का भी कृत (स्वयं करना) कारित (दूसरों से कराना) या अनुमोदन(मन से सराहना करना) के साथ संबंध होने से २७ भेद हो जाते हैं। इन २७ भेदों को क्रोध मान माया और लोभ इन चारों कषायों के साथ पृथक्-पृथक् सम्बन्ध होने से यह आत्मा इंद्रियों के विषयों की तरफ निरन्तर लगा रहता है। या यों कहिए कि जिस तरह लुहार की धोकनी अग्नि को प्रज्वलित करती रहती है, वैसे ही वैषयिक इच्छा रूपी धोकनी उत्तरोत्तर इच्छा रूप अग्नि को आत्मा में प्रति समय प्रज्वलित करती रहती है जिससे यह आत्मा निरन्तर संतप्त होता रहता है। बस इन इच्छाओं का सर्वथा निरोध (रोक) होना ही १०८ एक सौ आठ प्रकार की धूनियों से किया जाने वाला तप है। और ऐसा तप ही आत्मा के कल्याण का एक मात्र साधन है।
अतः इंद्रियों के दमन किये बिना आत्मा का हित असंभव है। जो आत्महितेच्छु होंगे वे पूर्वोक्त प्रकार की धूनियों वाला तप कभी भी नहीं करेंगे। क्योंकि वह तप तो शरीर के साथ ही आत्मा को भी संसार ताप से संतप्त करता है। इसलिये हे भव्यजन! संसार में इस जीव को कितने बार मनुष्य पर्याय की प्राप्ति हुई इसकी गणना करना हम अल्पज्ञों के ज्ञान से परे है। सिवा सर्वज्ञ भगवान के दूसरा कोई भी जानने में समर्थ नहीं है। ऐसी उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके भी इस जीव ने इच्छाओं का निरोध नहीं किया। यदि किया होता तो आज यह संसार में भ्रमण करने का पात्र नहीं बना रहता। अस्तु साधु होकर भी यदि यह इच्छाओं पर विजय प्राप्त नहीं करता तो ऐसे साधुपन से क्या कल्याण हो सकता है, कुछ भी नहीं। साधु होकर भी जो अज्ञान पूर्वक आचरण करते हैं वे कभी भी सिद्ध नहीं हो सकते। इस सम्बन्ध में एक कवि का निम्न प्रकार से कहना है:-
कोई भया पय पान करे नित कोई इक ग्यावत अन्न अलोना
कोई इक वाद विवाद करें अति कोई इक धारत हैं मुख मौना।
कोई इक कष्ट सहे निशिवासर कोई इक बैठ रहे इक ठोना
सुन्दर एक अज्ञान गये बिन सिद्ध भये नहीं दीसत कोना॥
और भी सुनिये।
गेह तज्यो अरु नेह तज्यो, पुनि भस्मरमाय के देह बिगारी
मेघ सहे पुनि शीत सहे, तन धूप समय में सहे दुख भारी।
भूख सही अरु प्यास सही, पुनि रूख तले सब रात गुजारी
शिव भणे सब छोड़न, व्यर्थ- भया तपसी पर आश न मारी॥
इस तरह से आशा-इच्छा का नाश किये बिना क्या कभी अविनाशी सुख व शान्ति मिल सकती है? नहीं। अतः हमें सबसे पहले अपनी इच्छाओं पर रोक लगानी चाहिये तब ही हमारा कल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं।
इस कार्य को करने के लिये हमें किसी दूसरे की सहायता या मदद की जरूरत नहीं है, खुद ही करने में समर्थ हैं। देखिये इस विषय में कवि क्या कहते हैं।
जाय अकेला जीव नरक में, कभी पुण्य से जाय सुरग में।
राजा और धनेश अकेला, दास दरिद्री सभी अकेला॥
हे भाई यह जीव अकेला ही नरक में जाता है क्योंकि नरक पहुँचने वाले पाप कर्म इसी अकेले जीव ने किये। उनके फल इस नरक में जाकर भोगना पड़ते है। तथा अच्छे परिणामों के प्रभाव से यह पुण्य कर्म का उपार्जन करता है तो अकेला स्वर्ग में जाकर उनका उत्तम फल भोगता हैं। राजा भी यह अकेला ही होता है। धन कुबेर भी अकेला ही बनता है और अपने ही अज्ञान से किसी दूसरे का दास भी यह अकेला ही हो जाता है और यदि यह अपनी तमाम सांसारिक इच्छाओं को त्याग दे तो अकेला ही सिद्ध पद को पा लेता है। इस तरह से जीव अपने कार्य में पूर्णतया स्वतन्त्र है किसी दूसरे के अधीन नहीं है।
हे आत्मन! तेरे साथ इन तेरे कुटुम्बियों का जिन्हें तूने अपना मान रखा है, अनादि से ही कैसा व्यवहार है सुन!
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य सम्वसन्ति नगे नगे।
स्व स्व कार्यवशाद्यान्ति देशेदिक्षु प्रगे प्रगे॥9॥
[श्रीमद् पूज्यपाद स्वामी विरचित ‘इष्टोपदेश’]
जैसे नाना दिशाओं और देशों से आकर पक्षी भिन्न भिन्न वृक्षों पर रात्रि में निवास करते हैं। प्रातःकाल में अपनी-अपनी दिशाओं और अपने अपने देशों को चले जाते हैं। कोई किसी का साथ नहीं देता वैसे ही इस संसार में रहते हुए कुटुम्बीजन भी अपने अपने कर्म के उदय से यहां आकर जन्म लेते हैं और आयु के अन्त में अपने योग्य स्थान पर चले जाते हैं। कोई भी किसी के साथ नहीं जाता। सब अपने-अपने आयु कर्म रूपी रात्रि में कुल रूपी वृक्ष पर आकर निवास करते हैं। आयु कर्म रूपी रात्रि के बीत ने पर सब अपने अपने ठिकाने पर चले जाते हैं। जाते समय कोई भी कुटुम्बी माता पिता भाई बहिन स्त्री पुत्र पुत्री आदि साथ नहीं देते सब यहां के यहां ही रह जाते हैं। लेकिन फिर भी यह मोही प्राणी मोह के वश से क्या क्या समझता है सुनिये!
वपुर्गृहंधनंदाराः पुत्रमित्राणि शत्रवः।
सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानिप्रपद्यते॥8॥
[श्रीमद् पूज्यपाद स्वामी विरचित ‘इष्टोपदेश’]
अर्थात् यह मोही- अज्ञानी जीव शरीर को व घर को धन को व स्त्री को व पुत्र को व मित्र को व शत्रु को भी अपना मानता है जो प्रत्यक्ष रूप से भिन्न है भिन्न भिन्न स्वभाव रखते हैं जो त्रिकाल में भी अपने नहीं हो सकते। यह सब मोह की ही विडंबना है। यही बात नीचे के सवैया से भी स्पष्ट होती है-
रे नर मूढ बता जगते, पितु मातु सुता को तो संग जावे।
पूत सपूत विभूति अटूट, अटा सब साज यहीं रह जावे॥
जानत देखत सांज सुबह, षट खण्डपति चक्री नश जावें
तो फिर तेरी चलाई कहा शिव, चेत गया तो अमर पद पावे॥
हे आत्मन, तेरी तो इस प्रकार की अवस्था है यदि तू स्वयं कमर कस कर अपना कल्याण करने के वास्ते खड़ा नहीं होगा तो कैसे काम चलेगा फिर तेरी आत्मा कैसे सुख और शान्ति प्राप्त कर सकेगी? देख संसार में तो रंचमात्र भी सुख नहीं है लेकिन फिर भी लोग कहते हैं हम तो बड़े सुखी हैं। हमारा जीवन आनन्दमय है। हमारे सरीखा सुखी और आनंदित रहने वाला शायद ही दूसरा कोई होगा परंतु यह सब भूलभुलैयों में डालने वाली बातें है; क्योंकि अगर संसार में सुख होता, आनन्द पाया जाता तो रामचन्द्रजी अपने गुरु वशिष्ठजी से ऐसा क्यों कहते-
नाहं रामो न मे वाञ्छा भावेषु च न मे मनः।
शांतिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनोयथा॥
[योग वशिष्ठ]
अर्थात् हे वशिष्ठ, स्वामिन् मैं किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं रखता और न किसी भी पदार्थ में मेरा मन है, मैं तो सिर्फ वह शांति चाहता हूँ जिसे भगवान जिनेन्द्र ने प्राप्त किया है। शांति में रहना ही मेरा सच्चा स्वरूप है। वह जगजाल में फंसे हुए प्राणियों को कैसे प्राप्त हो सकता है यही एक विचारणीय बात है जिसे यह संसारी बिलकुल भूला हुआ है विचारने के लिए इसे फुरसत
ही नहीं है।
जिसे लोग अवतार मानकर पूजते हैं ध्याते हैं, जब वे महाराज रामचन्द्रजी ही खुद अपने मुख से यह कह रहे हैं कि मैं राम नहीं हूं अर्थात् ध्यान करने योग्य नहीं हूं, मैं तो स्वयं शांति का इच्छुक हूं, तब फिर अन्य जघन्य पुरुषों की बातों को सुनकर कैसे कहा जा सकता या माना जा सकता है कि वे सुखी हैं आनन्दमय हैं। इसलिए हे जीव तू तो चेत सावधान हो जा और शीघ्र से ही ऐसा कार्य कर जिससे तू अमर अविनाशी पद सिद्ध पद को प्राप्त कर सके। यही तेरा असली रूप है।
घर गृहस्थी की तरफ भी तू देख तो सही कि तेरे बाल बच्चे जिन्हें तूने अपना मान लिया है वे कितने स्वार्थी मतलबी हैं। जिस समय उनकी माता उन्हें गोद में से उतार कर जमीन पर बैठा देती हैं, उसी वक्त वे जमीन पर बैठते ही चिल्लाना शुरू कर देते हैं, फूट फूट कर रोने लगते हैं क्योंकि माता की गोद में उनका बड़ा आदर था गोद से नीचे उतरते ही उन्हें अपने अनादर का विचार मन में समा गया। इसलिए ही उन्होंने रोना और चिल्लाना प्रारम्भ कर दिया। अतः हे जीव तू सोच कि जब जरा से बच्चे अपनी इज्जत का ख्याल रखते हैं तो तुम तो समझदार होशियार हो तुम्हें भी अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान होना चाहिए। तुम जरा जरा सी जरूरत की पीछे इधर उधर भटकते फिरते हो, इसमें तुम्हारी क्या इज्जत है जरा सच्चे दिल और दिमाग से बिचारो। तुमने कभी भी अपने स्वरूप का और गौरव का ख्याल ही नहीं किया। तुम्हारा स्वरूप और गौरव भगवान जिनेन्द्र से कम नहीं है। इसी बात को अनेक महापुरुषों ने बड़े-बड़े ग्रन्थों में बताया है।
दरअसल में है भी वैसा ही। इसीलिये तो लोक में लोग कहा करते हैं कि
“जो आत्मा सो परमात्मा”
इसी बात को एक कवि ने नीचे मुआफिक कहा है-
आये एक ही देश तें उतरे एक ही घाट।
हवा लगी संसार की हो गये बाराबाट॥
जब तुम आये जगत में जगत हंसा तुम रोये।
अब ऐसी करनी करो फिर हांसी न होय॥
यह है हरेक संसारी जीव की दशा यहां पर जिन को अवतार कहते हैं, वे भी पर कर्मों से पीड़ित रहे और अब भी पीड़ित हो रहे हैं। देखो श्रीकृष्ण नारायण के साथ लोगों ने क्या किया? श्रीकृष्ण नवमें नारायण थे, तीन खंड पृथ्वी के स्वामी थे। कहते हैं कि उनका जन्म जेल में हुआ था। अतः जन्म के समय किये जाने वाले उत्सव बिलकुल ही नहीं हुए, वहां उत्सव मनाने वाले कोई भी नहीं थे और न कोई मृत्यु के समय कोई शोक करने वाला था। यही बात नीचे के छन्द की एक पंक्ति में कही गई है-
‘मरा पर न कोई रोया, न उत्पत्ति मंगला चारी’
जरासिन्धु राजा ने युद्ध में श्रीकृष्ण को १७ सत्तरावार पराजित किया। इससे ही इनका नाम ‘रणछोड़’ पड़ा। यह सब वैष्णव पुराणों में विस्तार से वर्णित है। महाभारत में भी इसका बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है।
इससे हे बन्धुओ! अब संसार के दुःखों से उन्मुक्त होने का प्रयत्न करो। प्रयास करने पर ही दुःखों से मुक्ति हो सकती है। सत्पुरुषों की संगति से सदाचारों से दुःखों की मुक्ति होती है जैसा कि लोक में प्रसिद्ध है।
“शठ सुधरे सत्संगति पाये - पारस परस कुधातु सुहाए”
देखो दुर्जन लोग सज्जनों के संसर्ग से सुधर जाते हैं, सज्जन हो जाते हैं। लोहा पारस पाषाण के संयोग से सुवर्ण हो जाता है। लोहे के तुल्य आपको भी पारस पाषाण के समान यह मनुष्य पर्याय प्राप्त हुई है, इस पर्याय में ऐसा प्रयत्न व उद्योग करो जिससे पूर्व के पाप नाश को प्राप्त हो जायं और भविष्य के लिए पुण्य की प्राप्ति हो जाय। जिससे आप संसार में रहकर भी सुख और शांति से रह सके और निरंतर मोक्ष के लिए उपाय करते रहें। मुक्ति के मार्ग पर चलते रहें। तो मुक्ति अवश्य ही प्राप्त हो जायगी। यही मनुष्य पर्याय पाने की सफलता है। सुनिए-
सारनर देह सब कारज को जोग येह,
यह तो विख्यात बात वेदन में गाई है।
तामें तरुणाई धर्म सेवन को समय भाई,
सेये तब विषय जैसे माखी मधु लाई है॥
[कविवर भूधरदास जी विरचित ‘जैनशतक’ छंद 30]
हे भाई यह युवावस्था तो धर्म सेवन के लिये ही है क्योंकि यही एक ऐसी अवस्था है जिसमें सब तरह से धर्माचरण किया जा सकता है लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि यह मनुष्य अपने सर्वश्रेष्ठ युवापन को सबसे निकृष्ट विषय सेवन में व्यतीत कर इस दुर्लभ मनुष्य पर्याय को व्यर्थ ही खो देता है और भी सुनिये-
वाय लगी कि वलाय लगी, मद मत्तभयो नर भूलत यों ही।
वृद्ध भये न भजे भगवान, विषय विष खात अघात न क्यों ही॥
शीस भयो बगुला सम सेत, रह्यो उर अन्तर श्याम अजों ही।
मानुष भव मुक्ताफल हार, गंवार तगा हित तोरत यों ही॥31॥
[कविवर भूधरदास जी विरचित ‘जैनशतक’]
अतः हे संसारी प्राणियों! ऐसे उत्तम मनुष्य भव को प्राप्त कर तुम किसी ऐसे उत्तम अनुपम कार्य को करो जिससे फिर इस भव वन में इस जीव को भटकना ही न पड़े इसी में मानवता की सफलता है। यदि इसे विषय सेवन में ही गमा दोगे तो फिर तुम्हारा इस मनुष्य तन को प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ है क्योंकि महान पुण्य कर्म के उदय से ही यह प्राप्त होता है।
महान् पुण्य के पुञ्ज से यह शुभ मानव शरीर की प्राप्ति हुई है। तो भी अरेरे इस का भवचक्र दूर नहीं हुआ। इस मनुष्य शरीर से ही संसार के दुखों का अन्त हो सकता है और चिरस्थायी मोक्ष सुख की प्राप्ति भी इसी मानव तन का अंतिम एवं अनुपम कार्य है। ऐसा जरा तो ध्यान में धारण करो। अहो क्षण क्षण में असीम दुःख को देने वाले इस भयंकर भव सागर में तुम क्यों लीन हो रहे हो।
यदि तुम्हारी लक्ष्मी और प्रतिष्ठा बढ़ भी गई तो क्या हुआ। क्या तुम संपत्ति की वृद्धि और कुटुम्ब परिवार की विशालता को ही अपनी वृद्धि व विशालता मानते हो, हरगिज ऐसा मत मानो। क्योंकि इनकी वृद्धि से मनुष्य का इस संसार में उलझना ही अधिकतर सम्भव है। इससे तो मनुष्य कभी भी संसार से सुलझ नहीं सकता। अतः निर्बाध सुख तथा अननुभूत आनन्द की प्राप्ति जैसे बने वैसे करो।
आत्मा की अनन्त दिव्य शक्ति जिन कर्म जंजीरों से जकड़ी हुई है उन अज्ञान जंजीरों को छिन्न भिन्न कर के ही इस मानव तन को सफल करो। पर वस्तु से आत्मा को सर्वथा पृथक मानो। आत्मा का पर पदार्थ से किसी प्रकार का नाता नहीं है और न हो सकता है, ऐसा ही निरंतर मन में ध्यान करो। पर के व्यामोह से ही यह जीव दुखी हो रहा है अन्य कोई भी कारण दुःख का नहीं हैं। मैं कौन हूँ। कहाँ से आया हूँ। यह संसार सम्बन्ध कैसे किस कारण से हुआ? यह बनाये रखने योग्य है या छोड़ने योग्य है, इत्यादि बातों का विवेक पूर्वक शांत भावों से विचार किया जाय तो आत्मज्ञान और सब तत्त्व सिद्धान्त अनुभव में आ जायेगा।
अगर ऐसा विचार नहीं करोगे तो तुम पीछे पछताओगे। जब तुम रोवोगे, तब तुम्हारी कौन सुध लेगा। अतः विषयों में मस्त मत रहो। जरा ख्याल तो करो। कवि क्या कहता है-
वे दिन क्यों न विचारत चेतन, मात की कूॅंख में आय बसे हो।
ऊरध पांव टंगे निशिवासर, रंचक स्वासनि को तरसे हो॥
आयु संयोग बचे कहुं जीवित, लोकन की तब दृष्टि परे हो।
आजहु ये धन के मद में तुम, भूल गये किततें निकसे हो॥
[भैया भगवतीदास जी कृत ‘शत अष्टोत्तरी’ छंद 32]
हे आत्मन! इस तरह से तुम अपने जन्म की व्यथा से पूर्णरूप से अनुभूत हो। परिचित हो। तो भी तुम इस नश्वर धन के मद में चूर हो रहे हो। यह धन क्या कभी भी किसी के स्थिर रहा है, जिसके पीछे तुम सब धर्म कर्म छोड़ स्वच्छंद बन रहे हो।जब तुम धर्म से ही विमुख रहोगे तो तुम्हारा यह सारा धन तुम्हारे पास कैसे रह सकता है जब तक पूर्व का पुण्य तुम्हारे पास है तब तक तुम भले ही मौज उड़ालो, पुण्य क्षीण होते ही तुम्हारी भी वही दशा होगी जो आज तुम दूसरे पुण्य हीनों की देख रहे हो। एक कवि कहता है-
"जब लो तेरे पुण्य का बीता नहीं करार,
तबलो तेरे माफ हैं औगुन करो हजार"
हे प्राणियों! जब तक इस प्राणी के पास पुण्य का पवित्र प्रवाह बहता रहता है, तब तक ही इस के हजारों अवगुण भी अवगुण के रूप में नहीं के बराबर माने जाते हैं। लेकिन जब पुण्य कपूर की तरह विलीन हो जाता है तब वे सारे अवगुण अवगुण के रूप में एक ही साथ फल देने लग जाते हैं। तब इसकी बेचैनी का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। उस समय तो यह बड़ा आकुल व्याकुल हो अपनी अमूल्य जीवन की घड़ियों को यों ही रोते रोते व्यतीत कर देता है। इस तरह से इसका भविष्य बहुत ही अंधकारमय हो जाता है। अतः प्रत्येक मानव प्राणी का यह परम कर्तव्य है की मद से उन्मत्त हो यद्वा तद्वा प्रवृति न करे। इसी में इस मानव प्राणी का हित निहित है।
प्रश्न- आपने ऊपर धर्माराधन का उपदेश तो खूब दिया, परन्तु यह तो बताया ही नहीं कि धर्म क्या चीज है? उसका पालन कैसे किया जाता है? कौन कौन उसे पालन कर सकते है आदि बातों के बताने और समझाने पर ही यह प्राणी यथा योग्य रीति से यथाशक्ति उसे पालन करने की ओर प्रवृत्त हो सकता है। बिना समझे बिना जाने कोई भी किसी भी उत्तम कार्य को करने में तत्पर और अग्रसर नहीं होता। अतः आप सबसे प्रथम धर्म का सच्चा स्वरूप समझाइये।
उत्तर- तुम्हारा कहना बिल्कुल ठीक है अब हम तुम्हें धर्म का स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद बताते और समझाते हैं। तुम ध्यान से सुनो और उसे चित्त में धारण करो।
जो इस जीव को संसार के दुःखों से उन्मुक्त (छुड़ाकर) कर मुक्ति के सुख का पात्र बना सकता है वही धर्म है। इसी बात को भगवान समंतभद्र स्वामी ने निम्न लिखित पदों से अभिव्यक्त (बिलकुल स्पष्ट) किया है।
“संसार दुःखतः सत्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे”
[श्री समन्तभद्राचार्य विरचित ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ श्लोक 2]
ऐसा धर्म रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) रूप ही है। सच्ची आत्मश्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है। सच्चे आत्मज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है। सच्चे आत्मस्वरूप का आचरण करना इसका नाम सम्यक्चारित्र है।
यह धर्म दो प्रकार का है (१) अन्तरंग (२) बहिरंग। जैसे हाथी के दांत दिखाने के और और खाने के और ही होते हैं। वैसे ही जो धर्म व्यवहार में जन साधारण की दृष्टि गोचर होता है उसे बहिरंग धर्म कहते हैं। और जो सिर्फ आत्म भावना पर ही अवलम्बित रहता है उसे अन्तरंग धर्म कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जो दूसरों की देखादेखी नासमझी से उत्तम कार्य किये जाते हैं वे सब व्यवहार धर्म में शुमार हैं। लेकिन उनसे आत्म साधना कुछ भी नहीं होती। आत्म साधना तो अंतरंग आत्म धर्म से ही होती है। उसी का यहां पर कथन किया जाता है। ऐसे धर्म के स्वरूप को समझने और समझाने के लिये सबसे पहले इस कलिकाल में धर्म ग्रन्थों का पढ़ना भी धर्म के असली स्वरूप को समझने का एक मात्र साधन है। धर्म ग्रन्थों के पढ़े बिना यह कैसे मालूम हो सकता है। कि धर्म क्या है, गृहस्थों का क्या धर्म है। और मुनियों का क्या धर्म है अतः धर्म ग्रन्थों का सबसे पहले पढ़ना जरूरी है। उनके पढ़ने से तुम्हें यह भी मालूम हो जायगा कि गृहस्थ धर्म के पालन करने का फल (नतीजा) क्या होता है और मुनि धर्म के आराधन करने का फल क्या है। जब तुम को यह सब भली भांति मालूम हो जायगा तब तुम स्वयं (खुद) ही उन्मार्ग को छोड़कर धर्म के सन्मार्ग पर बिना किसी के कहे ही धर्म समझ कर आरूढ़ हो जाओगे। साथ ही व्यव्हार धर्म के पालन करने में भी जो कुछ भी तुम्हारी कमी होगी वह भी तुम्हारी समझ में खुद ही आ जायगी, तब तुम्हे यह शीघ्रातिशीघ्र मालूम हो जायगा कि यह सब धर्म ग्रन्थों के पढ़ने एवं पढ़ाने का ही सुफल है।
मैं क्या चाहता हूँ। दूसरों से अपने प्रति कैसा व्यवहार मुझे रुचिकर है वैसा व्यवहार मुझे भी दूसरों के प्रति करना चाहिये। इस प्रकार की भावना का प्रादुर्भाव स्वाध्याय से ही संभव है। क्योंकि शास्त्रों में पदपद पर यह प्रतिपादन मिलता है कि जैसी तुम्हारी आत्मा है वैसी ही दूसरी आत्माएँ है जिस प्रकार तुम दुःख से डरते हो और सुख को चाहते हों। तुम नहीं चाहते कि कोई मुझे मारे पीटे गाली-गलौज करे। वैसे ही दूसरे लोग भी यही चाहते हैं कि कोई भी मुझे गाली न दे, मेरा अनादर अपमान न करे। बल्कि मुझे चाहे, मेरी इज्जत करे, मुझे ऊँचा समझे आदि यही बात शास्त्रकारों ने शास्त्र में लिखी है। सुनिए एक श्लोक मैं तुम्हें सुनाता हूँ-
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाॅं न समाचरेत्॥
अर्थात् धर्म के सार को सुनो! तथा सुन कर उसे धारण करो! उसका निश्चय करो कि जो बातें जो व्यवहार तुम्हें दूसरों के बुरे मालूम पड़ते हैं जिन्हें तुम बिल्कुल ही नहीं देखना चाहते हो। तुम्हें तुम भी दूसरों के साथ कभी भी नहीं करो। क्योंकि तुम्हारे ही समान सब संसारी जीवों की भी इच्छाएं बनी हुई हैं।
प्रश्न- तो फिर दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए इसका भी तो कुछ स्पष्टीकरण (खुलासा) होना चाहिए? किसी भी कार्य को करने के पूर्व उसकी व्यवहारिकता का जान लेना अत्यावश्यक है, नहीं तो वह कार्य जैसा किया जाना चाहिए वैसा नहीं किया जा सकता?
उत्तर- तुम्हारा प्रश्न बिलकुल ठीक है नीतिकारों ने निम्नलिखित चार कार्यों को व्यवहार सहित करने की दुर्लभता का प्रतिपादन कितने सुन्दर ढंग से किया है। सुनो-
दानं प्रियवाक्सहितं, ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम्।
वितं त्यागसमेतं, दुर्लभमेतच्चतुष्टयंभद्रम्॥
अर्थ- हे बन्धुओं संसार में बहुधा देखा जाता है कि जो लोग दान करते हैं वे दान करते समय दान के व्यवहार से या तो अपरिचित रहते हैं या फिर उस व्यवहार को उपयोग में नहीं लाते। नतीजा यह होता है कि वे जो कुछ भी दान देते हैं वह उन्हें यश का दाता न होकर प्रत्युत अपयश का कारण हो जाता है। अतः दान देते समय जिसको वह दिया जा रहा है उसके साथ प्रिय वचनों का प्रयोग (व्यवहार) होने से वह यश और प्रशंसा का कारण हो जाता है। यह दान करते समय सद्व्यवहार का सुफल है।
ज्ञान का गर्व नहीं करना अर्थात् जो ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुआ है, उसका व्यवहार अहंकार पूर्ण नहीं होना चाहिये। क्योंकि ज्ञान अभिमान पूर्वक किया जाने वाला व्यवहार लोक में अप्रतिष्ठा का कारण बन जाता है। लोग ऐसे ज्ञानी को अभिमानी अहंकारी घमंडी आदि शब्दों से पुकारते हैं इस तरह वह लोक में अनादर का पात्र बन जाता है। अतः ज्ञानी को कोमल नर्म प्रशान्त बनकर अपने ज्ञान का व्यवहार (उपयोग) करना चाहिये। ऐसा करने से उस ज्ञानी की इस लोक में बड़ी इज्जत होती है। लोग उसे बड़े आदर और अदब के साथ मानते और पूजते हैं। यह सब उत्तम व्यवहार का ही फल है।
शूरता का व्यवहार क्षमा-सहनशीलता सहित होना चाहिये। अर्थात् जो शूरवीर हैं। उनका यह परम कर्तव्य है कि वे अपनी शूरता का उपयोग अन्यायी अत्याचारी उद्दण्ड पर पीड़ाकारी दुष्ट पुरुषों के द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों के निराकरण (दूर) करने में ही किया करें। यदि कदाचित् किसी निर्बल अज्ञानी के द्वारा उनका अपमान या अनादर भी हो जाय। तो वे उसके साथ क्षमा सहिष्णुता (सहनशीलता) का ही व्यवहार करें। ऐसा करने से वे उन अपमान तथा अनादर करने वाले दुर्बल पुरुषों के द्वारा स्वयमेव देवता सरीखे पूजे जायॅंगे। यह निस्सन्देह है। क्योंकि समर्थ बलशाली शूरवीर का क्षमासहित व्यवहार ऐसी ही अनुपम प्रतिष्ठा का कारण होता है।
धन का व्यवहार त्याग (दान) सहित होना चाहिये। अर्थात् पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त हुए धन को यदि धर्म कार्यों में ही लगाया जायगा तो वह पुण्य का ही कारण होगा। नतीजा यह होगा वह धनवान अपने धन के सदव्यवहार से निरन्तर सुखी रहेगा। क्योंकि पुण्य की सन्तति-परम्परा निर्वाध-बाधारहित हो तो वह मनुष्य संसार में सांसारिक सुखों का अनुभोक्ता - अनुभव करने वाला होता है।
इस तरह दान, ज्ञान, शूरता तथा धन का व्यवहार करना भी धर्म है। क्योंकि इनका योग्यता के अनुसार उचित व्यवहार करने से स्वपर कल्याण अवश्यम्भावी है। जहाॅं पर निज का और दूसरों का हित-निहित निश्चित है वहां पर धर्म अवश्य ही है।
दान की महिमा का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं।
दानेनभूतानिवशीभवन्ति दानेन बैराण्यपियांतिनाशंम्।
परोपिबंधुत्वमुपैतिदानै र्दानंहि सर्वव्यसनानिहन्ति॥
अर्थात् दान से संसार में प्राणी अपने आप वश में हो जाते हैं और दान से ही जन्म जन्मांतर का बैर नष्ट हो जाता है। दान के प्रभाव से पर जन भी स्वजन-बन्धु हो जाते हैं। और तो हम क्या कहें, दान ही एक ऐसा धर्म है जिसके प्रभाव से सारे व्यसन अवगुण नाश को प्राप्त होते हैं।
दान देने वाले की कीर्ति को सुनकर हजारों लोग बिना बुलाये ही दानी के दरवाजे पर दान लेने के वास्ते पंक्तिबद्ध (लाइन लगाकर) खड़े रहते हैं। यही प्राणियों का वश होना है। जिस जीव से इस जीव का अनेक जन्मों का बैर चला आ रहा हो यदि दैव योग से इन दोनों में कोई एक विशेष पुण्य के प्रभाव से लक्ष्मी का अधिपति हो जाय और दूसरा अपने किये हुए पाप के उदय से निर्धन दुखी हो जाय और फिर इन दोनों में एक देने वाला दूसरा लेने वाला हो तो इनका वह जन्म जन्मांतर का बैर दान के द्वारा सहज में ही दूर हो जाय यही बैर का नाश है।
जिनकी आवश्यकताओं की पूर्ति धन आदि के दान से कर दी जाती है, वे अनायास ही इसके बन्धु हो जाते हैं। इसके सुख और दुःख सहयोग तथा सहानुभति का प्रदर्शन करते हैं। इसी का नाम है पर जनों का स्वजन बन्धु बन जाना। दान से बड़े बड़े प्रतिष्ठित सत्ताधारी प्रभावकारी लोगों के साथ सम्पर्क संसर्ग हो जाता है। ऐसा होने से यह उनके व्यवहारों आचरणों से प्रभावित होकर स्वयमेव ही अपने व्यसनों को छोड़ देता हैं। उन्हें जलाञ्जलि दे देता है। इसी का नाम दान से व्यसनों का नाश है। यह सब दान धर्म के फल का प्रभाव है। अतः धर्म है। क्योंकि व्यसनों के सेवन से यह जीव बड़ा दुखी हो जाता है। इसके दुखों का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। ऐसे महा दुःखदायी व्यसनों का नाश जिससे होता है वह धर्म नहीं है तो क्या है?
इस प्रकार विचार कर हे भाई! धर्म के प्रभाव से इस जीव को इसी पर्याय में कितना बड़ा भारी लाभ होता है। जरा से ही दान रूप धर्म के धारण करने से जब बड़े-२ महा कष्टदायी पाप नष्ट हो जाते हैं। जिन महा पुरुषों से मिलना बड़ा मुश्किल का काम है वे बड़े बड़े आदमी अपने आप ही मिलने और प्रेम करने लग जाते हैं, तो इससे बढ़कर और क्या लाभ हो सकता है यह है जरा से दान धर्म का सुफल।
आचार्यों ने इसी दान धर्म का साक्षात फल अनन्त सुख की प्राप्ति बताया है। अतः प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अनन्त सुख को देने वाले इस त्याग धर्म का परिपालन और अनुशीलन करें।
श्रीमान, वैष्णव सम्प्रदाय में ऐसा उल्लेख है कि-
“अहरहः सन्ध्यामुपासीत”
‘नित्यनैमित्तिके कुर्यात्प्रत्यवायजिहासया॥’
अर्थात सन्ध्यावंदन, प्राणायाम, तर्पण, प्रेक्षण, आचमन द्वादशांग स्पर्शन को पापों को दूर करने की इच्छा से प्रतिदिन करो। नहीं करोगे तो पाप अवश्य लगेगा। क्योंकि जहां कर्त्तव्य के परिपालन से यह च्युत हुआ कि पाप का भागी बना। इससे यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि कर्तव्य का पालन करने से मनुष्य पापों से बचा रहता है जब कि कर्तव्य कार्य को नहीं करने से पापों से लिप्त हुए बिना नहीं रह सकता। इसी बात को नीचे के श्लोकार्द्ध से पुष्ट किया जाता है-
“अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते”
अर्थात् कर्मकाण्ड विहित कर्तव्यकर्म को जो नहीं करता वह पापों से लिप्त होता है। लोक में प्रायः सर्वत्र देखा जाता है कि माता पिता अपने बालक बालिकाओं का पालन पोषण करते। उन्हें धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा से शिक्षित करते। व्यापार आदि में उन्हें निपुण बनाते गृहस्थी के कार्य भार को वहन करने योग्य बनाते। योग्य अवस्था होने पर उनका विवाह आदि करते यह सब कर्तव्य का पालन है। ऐसा करने से माता पिता पापों से बचे रहते हैं। अन्यथा अशिक्षित, अयोग्य ,कुलाचार से शून्य अविवाहित व्यापार और गृह कार्य में अकुशल सन्तान से घोर पाप होने की संभावना रहती है। जिसका फल माता पिता को भी भोगना पड़ता है।
अतः जो माता पिता सब तरह से अपने कर्तव्य में आरूढ़ रहते है, वे इस लोक में भी आदर सत्कार और यश को प्राप्त करते हैं। और परलोक में भी सुख के पात्र होते हैं। यहां पर राजकीय नियमों का पालन करना भी परम कर्तव्य है इनका पालन करने से बड़े बड़े सुयोग्य पुरुषों को राज्य में बड़ी बड़ी प्रतिष्ठा कारका पदवियां मिला करतीं हैं। जिनसे इनका यश भी दुनियाँ में फैलता और आदर भी खूब होता है।
गवर्नमेन्ट, म्युनिसिपालटी, और पुलिस के कायदे कानूनों का पालन करना बहुत ही जरूरी है। इन कानूनों के पालन करने से कभी कोई राजकीय उपद्रव का सामना नहीं होता। प्रत्युत किन्हीं-किन्हीं सज्जनों को, पंडितों को, श्रीमानों को तथा प्रजा वर्ग में भी किन्हीं-किन्हीं सुयोग्य पुरुषों को रायबहादुर, सी. आई. ई. , ओ. बी. ई. , सरनाईट, तर्क पञ्चानन, पूज्यपाद, महामहोपाध्याय, वादीभसिंह, रायसाहिब, आदि पदवियां भी दी जाती हैं जिनसे इनकी बड़ी इज्जत होती है। लोग इन्हें बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। यह है राजनीति के कर्तव्यों के पालन करने का सुफल।
जो लोग राजनियमों का पालन नहीं करते थे राजकीय दण्डों से दण्डित होते हैं। इसी तरह से जातीय नियमों का पालन करना भी कर्तव्य धर्म है। जो लोग जातीय पंचायती नियमों का पालन करते हैं वे लोग जातीय पंचायतों द्वारा जातिशिरोमणी, आदि विविध उपाधियों से विभूषित किये जाते हैं। समाज उनका अच्छा आदर सत्कार एवं मान करती है। इतना ही नहीं समाज ऐसे प्रतिष्ठित पुरुषों से अपना बड़ा गौरव समझती है और मानती है कि ऐसे प्रसिद्ध पुरुषों से समाज उत्तरोत्तर उन्नति को प्राप्त करती हुई इतर समाजों में अपना एक प्रधान स्थान पा लेती है। यह लौकिक धर्म का ही प्रभाव है अतः ऐसे लौकिक धर्म को धारण करना भी अत्यावश्यक है।
जो धर्म आत्मा को आस्रव और बन्ध तत्त्व से उन्मुक्त कर संवर और निर्जरा तत्त्व तक पहुँचाकर मोक्ष तत्त्व पर्यंत पहुँचा देता है, वस्तुतः वही धर्म अलौकिक धर्म कहा जाता है। ऐसे धर्म को धारण करना प्रत्येक मुमुक्षु प्राणी का आद्य कर्तव्य है। यही आत्मा का परम धन है। ऐसे धर्म को प्राप्त करने के लिये किसी धर्माभिलाषी को इधर उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह आत्मा की ही चीज है। आत्मा में ही आत्मा के द्वारा आत्मा के लिये मिलेगी। यह संसारदशा तो इस आत्मा का स्वांग है। निम्नलिखित छन्द से यह बात साफ तौर से जाहिर है।
पञ्चम काल तो काल सही,पर पंचम काल न जीव को सहारो।
अवसर पाय जगे जब ज्ञान तो, जीव अनादि अनन्त विचारो॥
पर मोह मिथ्यात्व उदय नहीं जानत आत्म स्वरूप निजानन्द भारो।
मैं चैतन्य सर्वज्ञ बराबर, होय रह्यो है का स्वांग हमारो॥
अतः हे भाई! यह संसारी आत्माओं का जीव शरीर में रहते हुए भी परमात्मा के समान है परन्तु आशा रूपी रस्सी से बँध रहा है। जैसे एक लड़का अपने सतखन्डे महल के ऊपर चढ़कर १०००० दस हजार हाथ की लम्बी रस्सी (डोरी) को बांधकर एक पतंग उड़ाता है तो वह पतंग हजारों हाथ ऊँची चढ़ती हुई पतंग को जरा हिला देने से वह गोते खाने लगती है इसी प्रकार शरीर में रहने वाला आशावान जीव परमात्मा के समान होता हुआ भी संसार में दर-दर का भिखारी बन रहा है। जगह-जगह मांगता फिरता है। आशा के कारण ही पतित हो रहा है इस आशा पिशाचिनी के जाल में फंसकर ही यह जीव नाना तरह की आपदाओं और विपदाओं को भोग रहा है।
इसी विषय में एक कवि का क्या कहना है सुनिए।
रामचन्द्र मृग लोभ हारे सिया, सिया लोभ हारे लंकेश
राज लोभ दुर्योधन हारे, धरा लोभ सुभूमि चक्रेश।
द्रव्य लोभ नृप नन्दराय अरु, वेश्या लोभ चारुदत्त सेठ
पाण्डव द्यूत देशाटन हारे, धातु लोभ हारे मातेस॥
देखो रामचन्द्रजी सरीखे बड़े बड़े महापुरुष भी आशा के वश हो कैसी-कैसी यातनाओं को सहते फिरे। अब तो विचारो कि तुम्हारी इनके सामने क्या गिनती है? तुम्हारी क्या दशा होगी अतः हे आत्म-हितैषियो यदि वस्तुतः तुम आत्म कल्याण के इच्छुक हो तो आत्म स्वरूप का विचार करो।
आत्म स्वरूप में लीन होने का प्रयत्न करो, जिससे सुख और शांति की प्राप्ति हो। जब संसार के दु:खों ने रामचन्द्र, रावण, दुर्योधन, युधिष्ठिर भीम और अर्जुन जैसे महापुरुषों का पीछा नहीं छोड़ा तब तुम्हें ये दुःख कैसे छोड़ सकते हैं और तुम तो वर्तमान में भी प्रत्यक्ष रूप से दुःख पा रहे हो फिर भी इनसे बचने का दूर होने का प्रयत्न नहीं करोगे तो मिट्टी में मिल जाओगे देखो यह तुम्हारा शरीर जिसके ऊपर तुम्हारा बड़ा अभिमान है, जिसके देखकर तुम आनन्द से फूले नहीं समाते जिसके रूप और बल पर तुम अचल विश्वास करते हो वह अपनी बाल्य अवस्था को छोड़ चुका और इस युवावस्था में आया है, जिसमें सौन्दर्य की चरम सीमा बल की पराकाष्ठा पाई जाती है यह युवावस्था भी छूट जायेगी और वृद्धावस्था अपना आधिपत्य जमा लेगी। इस वृद्धाअवस्था में तमाम इन्द्रियां शिथिल हो जायगी तब तेरी ऐसी दशा होगी जैसी एक अधमरे मनुष्य की हुआ करती है। तब तेरे दुखों का कोई ठिकाना ही नहीं रहेगा। जिन बन्धुजनों के पीछे तूने नाना तरह के पापों का अर्जन किया है यदि वे भी तेरा साथ नहीं देंगें तो तेरे दुखों का कोई पार ही नहीं रहेगा। और यदि कदाचिद् पाप कर्म के उदय से प्राप्त हुए दुखों को भोगते भोगते मरेगा तो नरक में जायगा जहां तेरे दुखों का एक जिव्हा से तो क्या करोड़ों जिव्हाओं से भी वर्णन नहीं हो सकता ऐसे दुख तुझे नरक में सागरों पर्यंत भोगना पड़ेंगे। अतः हे आत्मन् अब तो तुम शरीर आदि के चक्कर में न पड़ कर आत्म हित की ओर अग्रसर हो "शुभस्य शीघ्रम् (अच्छा कार्य जल्दी करो) का सिद्धान्त सामने रखो क्योंकि किसी कवि का कहना है कि
तू कुछ और विचारत है नर तेरो विचार धरयो ही रहेगो,
कोटि उपाय करे धन के हित दान दिये उतनो ही मिलेगो।
भोर के सांज घडी पलमांहि आय अचान यमराज गहेगो
राम भज्यो न कियो कुछ सुकृत फिर पीछे पछतावो करेगो॥
अतः हे जीव, जबतक वृद्धावस्था प्राप्त नहीं हुई उसके पहले जो तू दान, भगवान का भजन आदि पुण्य कार्य करना चाहे सो करले नहीं तो पीछे तुझे पछताना ही पड़ेगा। कारण कि जब इंद्रियां बिलकुल ढीली पड़जाती हैं तब वे बेकार हो जाती हैं। इधर संसार के प्रपंच की लालसाएं उत्तरोत्तर बढ़ने लगती है। नतीजा यह होता है कि यह स्वयं ही अपने आप अपने मुख से कहने लगता है अब तो मर जाता तो अच्छा होता।क्योंकि अब ये पीड़ाएं मुझसे बिलकुल भी नहीं भोगी जातीं। कहां तक इस शरीर को घसीटता फिरूं। परन्तु जब मरने का मौका आता है तब वहां से भागने का मौका ढूँढ़ने लगता है ऐसा वृद्धापन तुम्हारे भी आयेगा अगरचे उसके आने के पहले ही मृत्यु हो जाये तो
बात अलग है। यह तो निश्चित ठीक ही है। सुनिये-
देखहु जोर जराभट को, जमराज महीपति की अगवानी।
उज्ज्वल केश निशान धरें, बहु रोगन की सँग फौज पलानी॥
काय पुरी तज भाज चल्यो जिहि, आवत जोवन भूप गुमानी।
लूट लई नगरी सगरी, दिन दोय में खोय है नाम निशानी॥42॥
[कविवर भूधरदास जी विरचित ‘जैनशतक’]
इसलिये हे सुखेच्छु प्राणियों अब आज तक जो गलती हुई सो हुई किन्तु अब स्वार्थ के ऊपर ही पक्का मज़बूत ख्याल करो जिससे परमात्मा के तुल्य यह आत्मा अब कभी भी संसार में जन्म मरण के दुःख न उठावे। यही प्रत्येक आत्मा का कर्तव्य है कि वह सब से पहले स्वार्थ की सिद्धि करे पश्चात परार्थ का साधन, क्योंकि बिना स्वार्थ सिद्ध किये परार्थ की सिद्धि त्रिकाल में भी सम्भव नहीं हो सकती। जो लोग अपना असली मतलब बनाने और दूसरों के मतलब बनाने में ही सारी जिंदगी लगा देते हैं ऐसे लोगों के मरने के पश्चात परार्थ का बन्द हो जाना अवश्यम्भावी है। हां जो विवेकी पुरुष सर्वप्रथम अपनी ही आत्म साधना में संलग्न रहकर निर्बाध रूप से उसे सिद्ध कर लेते हैं ऐसे महात्मा संसार की सब प्रकार की बाधाओं से छुटकारा पाकर अनन्त काल तक अनन्त आत्माओं के असली प्रयोजन को सिद्ध करने कराने में परिपूर्ण रूप से समर्थ होते हैं। अतः प्रत्येक आत्म हितैषी का यह परम धर्म है कि वह स्वार्थ साधना की ओर शीघ्र से शीघ्र अग्रसर हो। यही बात नीचे के दोहा से सर्वथा स्पष्ट हो जाती है-
माया सगी न मन सगो सगो नहीं परिवार।
सद्गुरु कहे या जीव को सगो है धर्म विचार॥