विपतिमें धर धीर। Vipati Me Dhar Dheer

विपतिमें धर धीर, रे नर ! विपतिमें धर धीर ॥ टेक ॥

सम्पदा ज्यों आपदा रे!, विनश जै है वीर ॥
रे नर विपतिमें धर धीर ॥ १ ॥
धूप छाया घटत बढ़ै ज्यों, त्योंहि सुख दुख पीर ॥
रे नर विपतिमें धर धीर।। २।।
दोष ‘द्यानत’ देय किसको, तोरि करम-जँजीर ॥
रे नर विपतिमें धर धीर ॥ ३ ॥

अर्थ:
हे नर विपत्ति में तू धैर्य धारण कर ।

यह सम्पदा परिग्रह है, आपदा है, आपत्ति है जो इस सम्पदा को त्यागते हैं वे ही वीर होते हैं अर्थात् अपरिग्रही ही वीर होते हैं।

जिस प्रकार धूप के साथ-साथ वस्तु की छाया भी कभी छोटी, कभी बड़ी होती रहती है, छाया के समान कभी सुख होते हैं, कभी दुःख होते हैं, उसी प्रकार सुख-दुःख की पीड़ा भी कभी छोटी, कभी बड़ी, कभी कम या अधिक, कभी मन्द या तीव्र होती जाती है।

द्यानतराय जी कहते हैं कि इसमें दोष किसको दें? अरे कर्म की जंजीर को तोड़ दो, क्योंकि कर्म ही सुख-दुख का जन्म-मरण का कारण है।

रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ