विनयांजलि | vinayanjali

             [ विनयांजलि ]

(तर्ज- जिया कब तक उलझेगा संकल्प विकल्पों में)

चहुँगति की गलियों में प्रभु कब से भटक रहा।
जग की रंग रलियों में, निज निधि को भूल रहा ।।

मैं काल अनंत अरे, पशु गति में रह आया।
वध-बंधन-छेदन के, बहु दुख मैं सह आया।
मैं भार वहन करते, अगणित दुःख पाये हैं।
सबलों ने मारा मुझे, बहु कष्ट उठाये हैं।
छल कर करके मैंने, बस अब तक कष्ट सहा। चहुँगति।।

आकुलता में मरकर, मैं नरक गति जन्मा।
भू के स्पर्शन से, मैं प्रभु बहुविध तड़फा।।
जहाँ भूख-प्यास भारी, शीतोष्ण भयंकर है।
देखूँ मैं चहुं दिशि में, नहीं कोई हितंकर है ।।
हर क्षण बस चिल्लाऊँ, दुख नाहीं जाये सहा।।चहुँगति।।

जब नरतन को धारा, गर्भादिक दुख सहे।
जन्में जब इस भू पर, तब अगणित कष्ट लहे ।।
धन-पद-यश की चाहत, बस आकुलता मय है।
कर्मोदय में भूला, निज निधि जो सुखमय है।
दुख पाये जीवन भर, मुझसे न जाये कहा।।चहुँगति ।।

सुर गति में भोगों की, मदिरा पी मस्त रहा।
विषयों की तृष्णा में, हे प्रभु मैं त्रस्त रहा।
निज-पर के ज्ञान बिना, सुर वैभव दुखमय है।
वह सुख न कभी पाता, जो तन में तन्मय है ।।
मैं मोह सहित रहकर, सुर गति में दुख लहा।।चहुँगति ।।

अब तक जीवन बीता, मिथ्यात्व अंधेरे में।
तन-धन को निज माना, संसार के फेरे में ।
जिनवर-जिनश्रुत-जिनगुरु, से अब तक दूर रहा।
मिथ्या पथ पर चलकर ही, अब तक कष्ट सहा ।।
नव देव मिले अब तो, दुःखों का अंत अहा। चहुँगति ।।

मंगलमय धर्म मिला, मंगल-शांति पाने ।
जिनवर के पंथ चलूँ, खुद जिनवर बन जाने ।।
त्रिभुवन में इक सुन्दर, परिपूर्ण रूप मेरा ।
जिनसम निज रूप लखो, मिटे गतियों का फेरा ।।
मैं परम पारिणामिक, स्वयमेव ही देव अहा।
मैं तो अनंत सुखमय, जिनदेव ने सदा कहा ।।

Artist - आ० पं० राजकुमार जी शास्त्री, उदयपुर।

2 Likes