बिखरे मोती | Vikhare Moti

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बिखरे मोती
डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल के विविध संदर्भों में लिखे गए लेखों का संग्रह

सम्पादक :

ब्र. यशपाल जैन एम. ए.

प्रकाशक :

पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट

ए-४, बापूनगर, जयपुर- ३०२ ०१५


प्रकाशकीय

डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल इस शताब्दी के जनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वानों अग्रगण्य हैं। उनकी प्रवचनशैली जहाँ समाज को मंत्रमुग्ध कर देती है, वहीं उनकी लेखनी से प्रसूत अध्यात्म का भण्डार जनमानस को ज्ञानसागर में गोते लगाने का प्रभावी साधन बन गया है। प्रस्तुत प्रकाशन उनके यत्र- तत्र प्रकाशित निबन्धों का संकलन है, जो ‘बिखरे मोती’ के रूप में आपके सम्मुख प्रस्तुत है ।

‘बिखरे मोती’ नामक इस कृति में प्रकाशित निबन्धों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। इसके प्रथम भाग में व्यक्ति विशेष को केन्द्रित कर लिखे गए लेख हैं। दूसरे भाग में सम-सामयिक विषयों पर आधारित लेख हैं। तीसरे भाग में सैद्धान्तिक विषयों पर लिखे गए लेख समाहित हैं। डॉ. भारिल्ल का सम्पूर्ण साहित्य विविध विधाओं पर केन्द्रित है। गद्य

और पद्य पर उनका समान अधिकार है। एक ओर वे सफल कहानीकार हैं तो दूसरी ओर वे पत्रकारिता के क्षेत्र में भी पूरा दखल रखते हैं। इस संग्रह में उनके कई लेख विवेकी के नाम से लिखे गए लेख हैं, जो कभी जैनपथ प्रदर्शक में ‘दूध का दूध पानी का पानी’ नामक स्तम्भ की

शोभा बढ़ाते थे। यत्र तत्र बिखरे इन मोतियों को चुन-चुनकर माला के रूप में पिरोने का श्रेय . यशपालजी को जाता है। उनके द्वारा गंधी गई यह मणिमाला आप सबको नई दिशा प्रदान करेगी ऐसी आशा है। इस महान कार्य के लिए ब्र. यशपालजी बधाई के पात्र हैं। इसके प्रकाशन का दायित्व विभाग के प्रभारी अखिल बंसल ने सम्हाला है, अतः ट्रस्ट उनका आभारी है। जिन महानुभावों ने पुस्तक की कीमत कम करने हेतु अपना आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, वे महानुभाव भी धन्यवाद के पात्र हैं। सभी आत्मार्थी इस बिखरे मोती कृति से लाभान्वित हों, इसी भावना के साथ।

नेमीचन्द पाटनी


महावीर वन्दना: डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल

जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर हैं।
जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यानधारण धीर हैं।।
जो तरणतारण भव-निवारण, भव-जलधि के तीर हैं।
वे वन्दनीय जिनेश, तीर्थंकर स्वयं महावीर हैं ॥

जो राग-द्वेष विकार वर्जित, लीन आतम ध्यान में ।
जिनके विराट् विशाल निर्मल, अचल केवलज्ञान में ॥
युगपत् विशद सकलार्थ झलकें, ध्वनित हों व्याख्यान में ।
वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ॥

जिनका परम पावन चरित, जलनिधि समान अपार है।
जिनके गुणों के कथन में, गणधर न पावैं पार है ॥
बस वीतराग-विज्ञान ही, जिनके कथन का सार है।
उन सर्वदर्शी सन्मती को, वन्दना शत बार है ॥

जिनके विमल उपदेश में, सब के उदय की बात है।
समभाव समताभाव जिनका जगत में विख्यात है।।
जिसने बताया जगत को, प्रत्येक कण स्वाधीन है।
कर्त्ता न धर्त्ता कोई है, अणु-अणु स्वयं में लीन है ।।

आतम बने परमात्मा हो शान्ति सारे देश में
है देशना सर्वोदयी, महावीर के सन्देश में ॥


सम्पादकीय

सर्वोदय स्वाध्याय समिति बेलगांव (कर्नाटक) ने जब डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल का अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित करने का निर्णय लिया, तब समयसारादि समग्र कुन्दकुन्द साहित्य का कन्नड भाषा में अनुवाद करने वाले पण्डित श्री एम. बी. पाटील (शेडबाल) बेलगांव ने मुझे अपना निम्न प्रकार विचार बताया था, जिसका मैंने तत्काल समर्थन भी किया था। डॉ. भारिल्ल के फुटकर रीति से लिखित साहित्य को भी अभिनंदन

समारोह के निमित्त से पुस्तकरूप से प्रकाशित करना चाहिए।

उपर्युक्त निर्णयानुसार मैंने डॉ. भारिल्ल के लेख खोजना प्रारम्भ किया। शोध-खोज के बाद यह बात स्पष्ट हुई कि बहुतांश लेख धर्म के दशलक्षण, बारह भावना इत्यादि तो पुस्तकरूप से प्रकाशित हो ही चुके हैं और विशेष | तलाश करने के बाद पता चला कि जब जैनपथ प्रदर्शक पाक्षिक विदिशा से निकलता था, तब दूध का दूध और पानी का पानी’ शीर्षक के अन्तर्गत विवेकी के नाम पर लिखे गये सर्व लेख भी डॉक्टर भारिल्ल के ही हैं। अतः इसमें उन लेखों का भी संग्रह किया।

आचार्य कुन्दकुन्द पण्डित बनारसीदास आदि विशेषांकों में लिखे गये उनके लेख हैं। सर्वश्री रामजीभाई, खेमचंदभाई, बाबूभाई, पूरणचंदजी

गोदीका आदि पर भी आपने कलम चलाई है।

आध्यात्मिक संत गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के स्वर्गारोहण के निमित से अनेक लेख लिखे गये हैं सोनगढ़ जयपुर से प्रकाशित साहित्य को मंदिर 1 में रखना या नहीं रखना इस विषय को लेकर भी आपने अनेक लेख लिखें हैं, जिनमें डॉक्टर भारिल्ल की विशिष्ट रीति-नीति स्पष्ट हुई है ।

इन सबका संग्रह करना प्रारंभ किया तो मुझे आश्चर्य हुआ कि कुल

मिलाकर ४१ लेख इकट्ठे हो गये। लगता है खोजबीन करने पर अभी और भी लेख प्राप्त हो सकते हैं। इन यत्र-तत्र बिखरे लेखों के संग्रह का नाम ही बिखरे मोती हैं।

‘बिखरे मोती’ पुस्तक के तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में आचार्य कुन्दकुन्दादि महानुभावों से संबंधित लेख हैं, जिसका नाम हमने ‘जिन्हें भूलना संभव नहीं’, यह दिया है।

द्वितीय खण्ड सामाजिक है। इसमें आपतकालीन प्रसंगों पर लेखक ने समाज को यथोचित मार्गदर्शन दिया है। मैं यह अपेक्षा रखता हूँ कोई - भी जैन या जैनेतर भाई सामाजिक खण्ड को मनोयोगपूर्वक पढ़ेगा तो उसका दिल व दिमाग अत्यन्त संतुलित हुए बिना नहीं रहेगा। इस खण्ड में व्यक्त रीति-नीति से प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन सुखी एवं समाधानी हुए बिना नहीं रहेगा।

जिसका जीवन आध्यात्मिक विचारों से सराबोर रहता है, उनका सामाजिक जीवन कितना सहज व शांतिमय बन जाता है इसका यह विभाग उदाहरण है। मैं तो साधर्मियों से यह अपील करना चाहता हूँ कि वे अपने साधर्मी मित्रों को प्रेम एवं सहजता अथवा हठपूर्वक भी इस सामाजिक विभाग को जरूर पढ़ने के लिए बाध्य करें, उसका फल मधुर ही मिलेगा।

तृतीय खण्ड सैद्धान्तिक है, यथानाम इसमें जो लेख हैं, वे अनेक वर्ष पूर्व लिखे गये हैं। वे लेख तो छह ही इसमें हैं; किन्तु उनमें व्यक्त विचारधारा एवं कथन पद्धति और लेखक की वर्तमान कालीन साहित्य सृजन में एकरूपता देखकर लेखक के तात्विक निर्णय की एकरूपता की झलक स्पष्ट हो जाती है।

पाठक इस लेख संग्रह बिखरे मोती का अपने जीवन में उपयोग - करेंगे ही, यह मुझे मात्र आशा ही नहीं, विश्वास है। पाठक अपना अभिप्राय मुझे लिखकर जानकारी देंगे तो उनकी जागरूकता का भी मुझे निर्णय होगा, आनन्द होगा। कुछ सुझाव हों तो वे भी लिखने का कष्ट करें।

ब्र. श्री यशपाल जैन


प्रथम खण्ड

जिन्हें भूलना संभव नहीं

१. आचार्य कुन्दकुन्द विदेह गये थे या नहीं? :

२. जिन-अध्यात्म के सशक्त प्रतिपादक : आचार्य अमृतचन्द्र :

३. कविवर पण्डित बनारसीदास :

४. आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी के प्रचार-प्रसार में कानजी स्वामी का योगदान :

५. श्री कान गुरु जाते रहे? :

६. हा गुरुदेव अब कौन ? :

७. सूरज डूब गया :

८. अब क्या होगा? :

९. निराश होने की आवश्यकता नहीं :

१०. आत्मधर्म के आद्य सम्पादक रामजीभाई :

११. श्री खीमचन्दभाई एक असाधारण व्यक्तित्व :

१२. अजातशत्रु : पण्डित बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता :

१३. सरस्वती के वरद पुत्र : सिद्धान्ताचार्य पंडित फूलचन्द शास्त्री :

१४. ब्र. पण्डित माणिकचन्दजी चवरें :

१५. श्री पूरणचन्दजी गोदीका एक अनोखा व्यक्तित्व :

१६. लौहपुरुष श्री नेमीचन्दजी पाटनी :

१७. एक इन्टरव्यू : खनियाँ तत्त्वचर्चा : श्री नेमीचन्दजी पाटनी से :

१८. एक इंटरव्यू डॉ० हुकमचंद भारिल्ल से :


द्वितीय खण्ड

सामाजिक

१९. महासमिति :

२०. निर्माण या विध्वंस :

२१. यदि जोड़ नहीं सकते तो… :

२२. और अब पूज्य समन्तभद्र महाराज भी…! :

२३. स्वयं बहिष्कृत :

२४. जागृत समाज :

२५. पण्डित परम्परा का भविष्य: एक सुझाव :

२६. एक अत्यन्त आवश्यक स्पष्टीकरण :

२७. एक युग, जो बीत गया :

२८. वीतराग - विज्ञान : एक वर्ष

२९. जरा मुड़कर देखें

३०. सागर प्रशिक्षण शिविर : एक विहंगावलोकन

३१. एक ही रास्ता

३२. जिनवाणी सुरक्षा एवं सामाजिक एकता आन्दोलन की

संक्षिप्त रूपरेखा

३३. गोली का जवाब गाली से भी नहीं

३४. आचार्य कुन्दकुन्द और दिगम्बर जैन समाज की एकता

३५. जोश एवं होश :


तृतीय खण्ड

सैद्धान्तिक

३६. समयसार का प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु भगवान आत्मा

३७. जैनदर्शन का तात्त्विक पक्ष वस्तुस्वातन्त्र्य

३८. दुःखनिवृत्ति और सुखप्राप्ति का सहज उपाय ४. सम्यकत्व और मिथ्यात्व

३९. विवेके हि न रौद्रता

४०. जरा गंभीरता से विचार करें

४१. अयोध्या समस्या पर वार्ता


प्रथम खण्ड

जिन्हें भूलना संभव नहीं

आचार्य कुन्दकुन्द विदेह गये थे या नहीं ?

जिन - अध्यात्म के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान दिगम्बर जिन- आचार्य परम्परा में सर्वोपरि है। दो हजार वर्ष से आजतक लगातार दिगम्बर साधु अपने आपको कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा का कहलाने में गौरव का अनुभव करते आ रहे हैं।

आचार्य देवसेन, आचार्य जयसेन, भट्टारक श्रुतसागर सूरि आदि दिग्गज आचार्यों एवं अनेकानेक मनीषियों के उल्लेखों, शिलालेखों तथा सहस्राधिक वर्षों से प्रचलित कथाओं के आधार पर यह कहा जाता रहा है कि आचार्य कुन्दकुन्द्र सदेह विदेह गये थे। उन्होंने तीर्थंकर सीमन्धर अरहंत परमात्मा के साक्षात् दर्शन किये थे, उन्हें सीमन्धर परमात्मा की दिव्यध्वनि साक्षात सुनने का अवसर प्राप्त हुआ था।

यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यदि आचार्य कुन्दकुन्द सदेह विदेह गये थे, उन्होंने सीमन्धर परमात्मा के साक्षात् दर्शन किए थे, उनकी दिव्यध्वनि का श्रवण किया था, तो उन्होंने इस घटना का स्वयं उल्लेख क्यों नहीं किया ? यह कोई साधारण बात तो थी नहीं, जिसकी यों ही उपेक्षा कर दी गई।

बात इतनी ही नहीं है, उन्होंने अपने मंगलाचरणों में भी उन्हें विशेषरूप से कहीं स्मरण नहीं किया है। क्या कारण है कि जिन तीर्थंकर अरहंतदेव के उन्होंने साक्षात् दर्शन किए हों, जिनकी दिव्यध्वनि श्रवण की हो, उन अरहंत

पद में विराजमान सीमन्धर परमेष्ठी को वे विशेषरूप से नामोल्लेखपूर्वक स्मरण भी न करें । इसके भी आगे एक बात और भी है कि उन्होंने स्वयं को भगवान महावीर और अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की परम्परा से बुद्धिपूर्वक जोड़ा है।

प्रमाणरूप में उनके निम्नांकित कथनों को देखा जा सकता है।

"वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं ।

श्रुतकेवलियों द्वारा कहा गया समयसार नामक प्राभृत कहूँगा ।
वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदिकेवलीभणिदं ।

केवली तथा श्रुतकेवली के द्वारा कथित नियमसार मैं कहूँगा ।

काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स ।
दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण ॥

ऋषभदेव आदि तीर्थंकर एवं वर्द्धमान अन्तिम तीर्थंकर को नमस्कार यथाक्रम संक्षेप में दर्शनमार्ग को कहूँगा ।

कर

वंदित्ता आयरिय कसायमलविज्जिदे सुद्धे । *

कषायमल से रहित आचार्यदेव को वंदना करके ।

वीरं विसालणयणं रत्तुप्पलकोमलस्समप्पावं ।
तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसामेह ॥

विशाल हैं नयन जिनके एवं रक्त कमल के समान कोमल हैं चरण जिनके, ऐसे वीर भगवान को मन-वचन-काय से नमस्कार करके शीलगुणों का वर्णन करूँगा।

पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं

धर्मतीर्थ के कर्त्ता भगवान वर्द्धमान को नमस्कार करता हूँ।"


१. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा - १

२. अष्टपाहु : बोधपाहुड, गाथा - १ ३. अष्टपाहुड : शीपाहुड, गाथा - १

४. प्रवचनसार, गाथा-१

५. प्रवचनसार गाथा-३