विद्यमान बीस तीर्थंकर वंदना | Vidyman bis tirthankar vandana

स्वचतुष्टय की सीमा में, सीमित हैं सीमन्धर भगवान ।
किन्तु असीमित ज्ञानानन्द से, सदा सुशोभित हे गुणखान ।।

युगल धर्ममय वस्तु बताते, नय-प्रमाण भी उभय कहे ।
युगन्धर के चरण-युगल में, दर्श-ज्ञान मम सदा रमें ।।2।।

दर्शन-ज्ञान बाहुबल धरकर, महाबली हैं बाहु जिनेन्द्र ।
मोह शत्रु को किया पराजित, शीष झुकाते हैं शत इन्द्र ।।3।।

जो सामान्य-विशेष रूप, उपयोग सुबाहु सदा धरते ।
श्री सुबाहु के चरण कमल में, भविजन नित वन्दन करते ।।4।।

शुद्ध स्वच्छ चेतनता ही है, जिनकी सम्यक् जाति महान ।
अन्तर्मुख परिणति में लखते, वन्दन संजातक भगवान ।।5।।

निजस्वभाव से स्वयं प्रगट, होती है जिनकी प्रभा महान ।
लोकालोक प्रकाशित होता, धन्य स्वयंप्रभ प्रभु का ज्ञान ।।6।।।

चेतनरूप वृषभमय आनन, से जिनकी होती पहिचान ।
वृषभानन प्रभु के चरणों में, नमस्कार परिणति बने महान।।7।।

वीर्य अनन्त प्रगट कर प्रभुवर, भोगें निज आनन्द महान ।
ज्ञान लखें ज्ञेयोकारों में, धन्य अनन्तवीर्य भगवान ।।8।।

सूर्यप्रभा भी फीकी पड़ती, ऐसी चेतन प्रभा महान ।
धारण कर जिनराज सूर्यप्रभ, देते जग को सम्यग्ज्ञान ।।9।।

अहो विशाल कीर्ति धारण कर, शत इन्द्रों से वन्दित हैं ।
श्री विशालकीर्ति जिनवर नित, त्रिभुवन से अभिनन्दित हैं ।।10।।

स्वानुभूतिमय वज्र धार कर, मोह शत्रु पर किया प्रहार ।
वन्दन वज्रधार जिनवर को, भोगें नित आनन्द अपार ।।11।।

चारु-चन्द्र सम आनन जिनका, हरण करे जग का आताप ।
चन्द्रानन जिन चरण-कमल में, प्रक्षालित हों सारे पाप ।।12।।

दर्शन-ज्ञान सुबाहु भद्र लख, भद्र भव्य भूलें आताप ।
वन्दन भद्रबाहु जिनवर को, मोह नष्ट हों अपने आप ।।13।।

गुण अनन्त वैभव के धारी, सदा भुजंगम जिन परमेश ।
जिनकी विषय विरक्त वृत्ति लख, भोग भुजंग हुए निस्तेज ।।14।।

हे ईश्वर! जग को दिखलाते निज में ही निज का ऐश्वर्य ।
निज परिणति में प्रगट हुए हैं, दर्शन-ज्ञान-वीर्य-सुख कार्य ।।15।।

निज वैभव की परम प्रभा से, शोभित नेमप्रभ जिनराज ।
ध्रुव की धुनमय धर्मधुरा से, पाया गुण अनन्त साम्राज्य ।।16।।

परम अहिंसामय परिणति से, शोभित वीरसेन भगवान ।
गुण अनन्त की सेना में हो, व्याप्त द्रव्य तुम वीर महान ।।17 ।।

सहज सरल स्वाभाविक गुण से, भूषित महाभद्र भगवान ।
भद्रजनों द्वारा पूजित हैं, अतः श्रेष्ठ हैं भद्र महान ।।18।।

गुण अनन्त की सौरभ से है, जिनका यश त्रिभुवन में व्याप्त ।
धन्य-धन्य जिनराज यशोधर, एक मात्र शिवपथ में आप्त।।19 ।।

मोह शत्रु से अविजित रहकर, अजितवीर्य के धारी हैं।
वन्दन अजितवीर्य जिनवर, जो त्रिभुवन के उपकारी हैं ।।20।।

रचयिता:- पं. अभयकुमार जी

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