वीर-हिमाचल तें निकसी | Veer himachal te nikasi

वीर-हिमाचल तें निकसी, गुरु-गौतम के मुख-कुण्ड ढरी है।
मोह-महाचल भेद चली, जग की जड़ता-तप दूर करी है ।।१।।

ज्ञान-पयोनिधि माँहि रली, बहुभंग-तरंगनि सौं उछरी है।
ता शुचि-शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजलि करि शीश धरी है ।।२।।

या जग-मन्दिर में अनिवार, अज्ञान-अंधेर छ्यौ अति भारी।
श्रीजिन की धुनि दीपशिखा-सम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ।।३।।

तो किस भांति पदारथ-पाँति, कहाँ लहते? रहते अविचारी।
या विधि सन्त कहैं धनि हैं, धनि हैं, जिन-बैन बड़े उपकारी ।।४।।

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Ja vani ke gyan te…

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