वात्सल्य - भावना
(तर्ज: जिनशासन की प्रभावना)
साधर्मी वात्सल्य हृदय में सदा बहे ।
स्वाभाविक समता भाव जीवन में सहज रहे ॥ टेक ॥
अन्तर्दृष्टि से सबको नित भगवान ही देखूँ।
पर्यायों के औदायिक भाव गौण कर देखूँ ॥
कर्मों के प्रेरे नाना जीवों को लखकर स्वामी ।
परिणामों में आवे नहीं किंचित् कभी ग्लानि ॥
धारा नित तत्त्वज्ञान की मम अंतर में बहे ॥ १ ॥
गुरुओं जैसी गम्भीर गुरुता सहज ही वर्ते ।
उत्तम क्षमा दोषों के प्रति भी सहज प्रवर्ते ॥
निस्पृह निरभिमानी निराकुल हो सरल जीवन ।
बढ़ता रहे प्रभुवर निरन्तर आत्म-आराधन ॥
निरपेक्ष निर्लोभी निर्द्वन्द्व परिणति रहे ॥ २ ॥
तत्त्वों का हो शुभ चिन्तवन हित-मित-मधुर वचन ।
जिनधर्म की प्रभावना के हेतु हो प्रवचन ॥
मद मत्सर भाव परिणति में आ नहीं पावे।
विषयों की कोई कल्पना भी छू नहीं पावे ॥
जल में जलज वत् भावना निर्लिप्त नित रहे ॥३॥
अनुकूलता में फूलकर भूलूँ नहीं धरम ।
प्रतिकूलता में खिन्न हो बांधूं नहीं करम ॥
कर्मोदय के फल ज्ञाता रहकर भिन्न ही जानूँ।
अपना स्वरूप ज्ञान अरु आनन्दमय मानूँ ॥
प्रीति-अप्रीति भाव पर के प्रति नहीं रहे ॥ ४ ॥
रागादिक से न्यारे होने की भावना भाऊँ ।
रागादिक से न्यारा अपना स्वरूप नित ध्याऊँ ॥
कुछ भी अपेक्षा हो नहीं जग से कभी मुझको।
निज भाव में ही तृप्तता वर्ते सहज मुझको ॥
जिनधर्म की प्रभावना की भावना रहे ॥ ५ ॥
संयम के मार्ग में सहज आनन्द से बढूँ।
संयम की प्रेरणा तथा अनुमोदना करूँ ॥
आवे नहीं दुर्भावना कुछ स्वप्न में कभी ।
होवे नहीं विराधना मुझसे किसी की भी ॥
धर्मायतन अरु धर्म प्रति अर्पण सभी रहे ॥ ६ ॥
परमार्थ ज्ञानाभ्यास ही है संयम का कारण ।
संयम से ही सम्भव है सर्व क्लेश निवारण ॥
सर्वस्व न्यौछावर करूँ मैं संयम के लिए ।
जीवन की है इक-इक घड़ी बस संयम के लिए |
संयम का मंगलमय प्रवाह बहता ही रहे ॥ ७ ॥
भोगों की प्रेरणा ही है दुर्मोह का प्रतीक।
संयम की प्रेरणा ही है वात्सल्य का प्रतीक ॥
संयम से ही होवें सुखी जग के सभी प्राणी।
है मुक्ति मार्ग का निमित्त संयमी वाणी ॥
जिनवाणी का अभ्यास अंतर में सदा रहे ॥ ८ ॥
नृप वज्रजंघ को मंत्री ने धर्म बताया।
फिर मुनि हो भोगभूमि में सम्यक्त्व कराया ॥
देखो सुर ने निज मित्रता कैसे निभाई थी।
चक्री सगर को युक्ति से दीक्षा दिलाई थी ॥
साँचे वात्सल्य से ही भव्य दृढ़ सहज रहे ॥ ९ ॥
वात्सल्य से मुनि ने अहो सुकुमाल जगाया।
वात्सल्य से तिर्यञ्चों को भी बोध सिखाया।
देखो कैसा वात्सल्य मुनि विष्णुकुमार का।
मुनि संघ की रक्षा होवे बस ये विचार था ॥
अपनी दीक्षा भी छेद कर अन्तर में दृढ़ रहे ॥ १० ॥
सीता ने पाला था जटायु को अति प्रीति से।
धर्मी तिर्यञ्च को भी दें आहार रीति से ॥
निजप्राण दे निकलंक ने अकलंक बचाये।
अकलंक की प्रभावना को कौन कवि गाये? ॥
आदर्श ये ही प्रभु सदा मम चित्त में रहें ॥ ११ ॥
पशुओं को नेमिनाथ का वात्सल्य छुड़ाता।
दुखियों को दुःख में धैर्य भी वात्सल्य बँधाता॥
डिगते हुए को धर्म में वात्सल्य लगाता।
गुरुओं का वात्सल्य ही शिवपथ में बढ़ाता ॥
रे ज्ञानमय वात्सल्य ज्ञानी के सदा रहे ॥ १२ ॥
साधर्मी वात्सल्य बिन हो धर्म का ही ह्रास।
साधर्मी वात्सल्य से हो धर्म का विकास ॥
धर्मात्मा की रक्षा निज शरीर-सम करूँ।
निजधर्म की रक्षा अहो निज नेत्र-सम करूँ ॥
संकोच या कुछ भी प्रमाद इसमें नहीं रहे ॥१३॥
दे सांत्वना सबको लगाऊँ धर्म मार्ग में।
दे प्रेरणा सबको बढ़ाऊँ धर्म मार्ग में ॥
अनुरूप होवें भावना के ही वचन सहज ।
संबोधन सेवा अरु सहाय योग्य हो सहज ॥
श्रद्धा निशंक नित्य मुक्तिमार्ग में रहे ॥१४॥
सच्चा सगापन साधर्मी में ही होता भाई।
अरहंत हम सबके पिता हैं जिनवाणी माई ॥
हो धर्मी से गौ-वत्स सम अति प्रीति अविकारी।
होवें सहायक हम परस्पर धर्म व्रत धारी ॥
बोधि-समाधि की सदा ही भावना रहे ॥ १५ ॥
स्वधर्मी से प्रीति परम परमार्थ वात्सल्य ।
साधर्मी से प्रीति हो यथायोग्य अरु निशल्य ॥
नहीं बाह्य जीवन में भी तो असहायपन भासे।
मैत्री हो प्राणी मात्र से वात्सल्य प्रकाशे ॥
हो शांतिमय जीवन सहज निश्चिन्तता रहे ॥१६ |
विस्मय से देखे लोक भी वात्सल्य हमारा।
जिनशासन हमको है अहो प्राणों से भी प्यारा ॥
जिनशासन की प्रभावना में तन-मन-धन अर्पण।
आराधन में हो सदा सर्वस्व समर्पण ॥
आराधनामय धर्म की प्रभावना रहे ॥ १७ ॥
रचयिता - आ० ब्र० रवींद्र जी ‘आत्मन्’