वन्दों पंच परम परमेष्ठी | vando panch param parmesthi

वन्दों पंच परम परमेष्ठी, शिवसुख के आधार हैं।
सांचे तारणहार हैं। टेक।।

गृहस्थपना तज, साधु धर्म भज, निज स्वभाव साधन द्वारा।
नाशे घाति कर्म, प्रगटायो अनन्त चतुष्टय अविकारा।।
वन्दों भाव सहित अरहंत पद, धर्म तीर्थ करतार हैं ।।1।।

सकल कर्म मल रहित हुए हैं, अशरीरी प्रभु सिद्ध महन्त।
ध्रुव अविचल अनुपम गति पाई, पूर्ण व्यक्त हैं सुगुण अनन्त ।।
ध्याने योग्य स्वरूप आपना, प्रगट दिखावनहार हैं ।।2।।

अहो अधिकता रत्नत्रय की, सकल संघ के नायक हैं।
रहें मुख्यतः लीन स्वयं में, दीक्षा विधि विधायक हैं।।
पाले अरू पलवावें चारित्र, आचारज सुखकार हैं ।।3।।

ग्यारह अंग, पूर्व चौदह के, ज्ञाता श्री उवझाय हैं।
अधिकारी हो पढ़े पढावें, सबको ही सुखदाय हैं ।।
धन्य-धन्य गुरू परम निस्पृही, ज्ञान ज्योति दातार हैं।।4।।

इन पदवी बिन साधे निजपद, रहें परम निर्द्वन्द हैं।
विषयाशा आरंभ रहित जो, हुए सहज निर्ग्रन्थ हैं।।
ज्ञान ध्यान तप लीन मुनीश्वर, करें भवोदधि पार हैं ।।5।।

ये ही सांचे पंच परमगुरू, अरहन्त अरू सिद्ध देव हैं।
आचारज उवझाय साधुवर, मंगलमय गुरुदेव हैं ।।
श्रध्दू पूजूँ ध्याऊँ निशदिन, शरणभूत शिवकार हैं ।।6।।

Artist - ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’

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