भगवती दास जी कृत वैराग्यपचीसिका । Vairagya Paccheesika

अथ वैराग्यपचीसिका लिख्यते ।

              दोहा

रागादिक दूषण तजे, वैरागी जिनदेव ॥
मन वच शीस नवायकैं, कीजे तिनकी सेव ॥ १ ॥

जगत मूल यह राग है, मुक्ति मूल वैराग ॥
मूल दुहुनको यह कह्यो, जाग सकै तो जाग ॥ २ ॥

क्रोधमान माया धरत, लोभ सहित परिणाम ॥
येही तेरे शत्रु हैं, समुझो आतमराम ॥ ३ ॥

इनही च्यारों शत्रुको, जो जीतै जगमाहिं ॥
सो पावहि पथ मोक्षको, यामें धोखो नाहिं ॥ ४ ॥

जा लच्छीके काज तू, खोवत है निजधर्म ॥
सो लच्छी संग ना चलै, काहे भूलत भर्म ॥ ५ ॥

जा कुटुंब के हेत तू, करत अनेक उपाय ॥
सो कुटंब अगनी लगा, तोकों देत जराय ॥ ६ ॥

पोषत है जा देहको, जोग त्रिविधिके लाय ॥
सो तोकों छिन एकमें, दगा देय खिर जाय ॥ ७ ॥

लच्छी साथ न अनुसरै, देह चलै नहिं संग ॥
काढ़ काढ़ सुजनहि करै, देख जगतके रंग ॥ ८ ॥

दुर्लभ दश दृष्टान्त सम, सो नरभव तुम पाय ॥
विषय सुखनके कारनें, सर्वस चले गमाय ॥ ९ ॥

जगहिं फिरत कइ युग भये, सो कछु कियो विचार ॥
चेतन अब किन चेतहू, नरभव लहिं अतिसार ॥ १० ॥

ऐसें मति विभ्रम भई, विषयनि लागत धाय ॥
कै दिन कै छिन कै घरी, यह सुख थिर ठहराय ॥ ११ ॥

पीतो सुधा स्वभावकी, जी ! तो कहूं सुनाय ॥
तू रीतो क्यों जातु है, वीतो नरभव जाय ॥ १२ ॥

मिथ्यादृष्टि निकृष्ट अति, लखै न इष्ट अनिष्ट ॥
भ्रष्ट करत है सिष्टको शुद्ध दृष्टि दै पिष्ट ॥ १३ ॥

चेतन कर्म उपाधि तज, राग द्वेषको संग ॥
ज्यों प्रगटै परमातमा, शिव सुख होय अभंग ॥ १४ ॥

ब्रह्म कहूं तो मैं नहीं, क्षत्री हू पुनि नाहिं ॥
वैश्य शूद्र दोऊ नहीं, चिदानंद हूं माहिं ॥ १५ ॥

जो देखै इहि नैनसों, सो सव विनस्यो जाय ।।
तासों जो अपनो कहै, सो मूरख शिरराय ॥ १६ ॥

पुद्गलको जो रूप है, उपजै विनसे सोय ॥
जो अविनाशी आतमा, सो कछु और न होय ॥ १७ ॥

देख अवस्था गर्भकी, कौन कौन दुख होंहि ॥
बहुर मगन संसारमें, सौ लानत है तोहि ॥ १८ ॥

अधो शीस ऊरध चरन, कौन अशुचि आहार ॥
थोरे दिनकी बात यह, भूलि जात संसार ॥ १९ ॥

अस्थि चर्म मलमूत्रमें, रैन दिनाको वास ॥
देखें दृष्टि घिनावनो, तऊ न होय उदास ॥ २० ॥

रोगादिक पीड़ित रहै, महाकष्ट जो होय ॥
तबहू मूरख जीव यह, धर्म न चिन्तै कोय ॥ २१ ॥

मरन समय विललात है, कोऊ लेहु बचाय ॥
जानै ज्यों त्यों जीजिये, जोर न कछू बसाय ॥ २२ ॥

फिर नरभव मिलिबो नहीं, किये हु कोट उपाय |
तातैं वेगहि चेत हू, अहो जगतके राय ॥ २३ ॥

भैयाकी यह वीनती, चेतन चितहि विचार ॥
ज्ञानदर्श चारित्रमें आपो लेहु निहार ॥ २४ ॥
एक सात पंचासके, संवत्सर सुखकार ॥
पक्ष शुक्ल तिथि धर्मकी, जै जै निशिपतिवार ॥ २५ ॥

इति वैराग्यपचीसी

रचयिता: पण्डित श्री भैया भगवतीदास जी
सोर्स: ब्रह्म विलास

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