राग सोरठ
वा पुरके वारणैं जाऊं ॥ टेक ॥
जम्बूद्वीप विदेहमें, पूरव दिशि सोहै हो ।
पुंडरीकिनी नाम है, नर सुर मन मोहै हो ॥ १ ॥ वा पुर. ॥
सीमंधर शिवके धनी, जहं आप विराजै हो ।
बारह गण बिच पीठपै, शोभानिधि छाजे हो ॥ २ ॥ वा पुर. ॥
तीन छत्र माथै दिपैं वर चामर वीजै हो ।
कोटिक रतिपति रूपै, न्यौछावर कीजै हो ॥ ३ ॥ वा पुर. ॥
निरखत विरख अशोकको, शोकावलि भाजै हो ।
वाणी वरसै अमृत सी, जलधर ज्यों गाजै हो ॥ ४ ॥ वा पुर. ॥
बरसैं सुमन सुहावने ,सुर दुन्दभि गाजै हो ।
प्रभु तन तेज समूहसौं, शशि सूरज लाजै हो ।। ५ ।। वा पुर. ।।
समोसरन विधि वरनतैं ,बुधि वरन न पावै हो ।
सब लोकोत्तर लच्छमी, देखैं बनि आवै हो ॥ ६ ॥ वा पुर. ॥
सुरनर मिलि आवैं सदा, सेवा अनुरागी हो ।
प्रकट निहारैं नाथकों, धनि वे बड़भागी हो ॥ ७ ॥ वा पुर. ॥
‘भूधर’ विधिसौं भावसौं, दीनी त्रय फेरी हो ।
जैवंती वरतो सदा, नगरी जिन केरी हो ॥ ८ ॥ वा पुर. ॥
अर्थ : (मेरी इच्छा है कि ) मैं उस नगरी के द्वार पर जाऊँ जो जंबू द्वीप के विदेह क्षेत्र में पूर्व दिशा की ओर, मनुष्य और देवों के मन को मोहनेवाली पुंडरीकनी नगरी के नाम से सुशोभित हो रही है। जहाँ बारह गणधरों के बीच उच्च आसन पर समस्त शोभासहित, मुक्तिवधू के कंत सीमंधर भगवान आसीन हैं। उनके मस्तक (शिर) पर तीन छत्र चमक रहे हैं, श्रेष्ठ चँवर ढुराए जा रहे हैं, उस सुन्दर छवि पर करोड़ों कामदेव न्यौछावर हैं (वहाँ स्थित ) अशोक वृक्ष को देखते ही सब शोक दूर हो जाते हैं, बादलों की गरज सी दिव्यध्वनि से अमृत वचन झर रहे हैं। जहाँ सुन्दर सुगन्धित फूलों की वृष्टि हो रही है, दुंदुभिनाद से गुंजित उस वातावरण में सूर्य को प्रखरता व चन्द्रकांत को लजानेवाला प्रभु का अत्यन्त तेजयुत दिव्य-गात (शरीर) सुशोभित है।
उस समवशरण को निराली छटा व व्यवस्था का वर्णन यह बुद्धि नहीं कर पाती क्योंकि सब ही दैविक (अलौकिक ) लक्षण हैं जो देखते ही बनते हैं। देव और मनुष्य सब मिलकर उनकी पूजा हेतु सदा आते हैं और उनको भक्तिपूर्वक निहारते हैं। वे लोग धन्य हैं, बड़े भाग्यशाली हैं। भूधरदास जी कहते हैं कि मैं उस नगरी को भाव प्रदक्षिणा देता हूँ। वह जिनेन्द्र की नगरी (समवसरण ) सदा जयवंत हो।
रचयिता: पंडित श्री भूधरदास जी
सोर्स: भूधर भजन सौरभ