उद्वोधन | Uadvodhan

समझता है कुछ रे नादान !

तरल स्वार्थ का यहाँ सभी जन करते हैं रसपान ॥टेक॥

हरित, फलित, कुसुमित उपवन में,
विहरित विहग मुदित हो मन में ।
बुलबुल, कोयल, कीर करट सब,
आ बसते द्रुम लता सदन में ।
लेकर सुमधुर तान ।
विविध गाते हैं कलकल गान ॥१॥

देखा उजड़ चला है उपवन,
हुआ उदास खगों का भी मन ।
कुछ-कुछ कम आते-जाते पर,
वहीं अन्त में सभी विहग जन ॥
तज बैठे उद्यान, परख लो, फिर करलो पहिचान ॥२॥

सुकृत कर्म-वश जब तक धन है,
तन पर श्री, विकसित यौवन है।
तब तक ही सब मित्र बन्धु सुत,
और लगा ललना का मन है ॥
जानत सकल जहान। समझ, सुन, मूर्ख ! लगाकर ध्यान ॥३॥

तरल स्वार्थ का रस पीते हैं,
जन जितने जग में जीते हैं।
जब तक जिससे स्वार्थ सध रहा,
तब तक ही सब मन मीते हैं ।
कहते वेद पुराण । अरे ! फिर क्यों बन रहा अजान ॥४॥

  • नाथूराम डोंगरीय ‘अवनीन्द्र’