तुम्हारे दर्श बिन स्वामी, मुझे नहीं चैन पड़ती है।
छवि वैराग्यमय तेरी, मेरी नज़रों में पड़ती है ।।टेक।।
निराभूषण विगत दूषण, परम आसन मधुर भाषण।
नज़र नैनों की नासा की, अनी पर से गुजरती है ।।1।।
नहीं कर्मों का डर हमको, कि जब लग ध्यान चरणों में।
तेरे दर्शन से सुनते हैं, करम रेखा बदलती है ।।2।।
मिले गर स्वर्ग की संपत्ति, अचंभा कौन सा इसमें?
तुम्हें जो नैन भर देखे, गति दुर्गति की टलती है ।।3।।
हज़ारों मूर्तियाँ हमने, बहुत सी अन्य मत देखीं।
शांत मूरत तुम्हारी सी, नहीं नज़रों में चढ़ती है ।।4।।
जगत सिरताज हो जिनराज, सेवक को दरश दीजे।
तुम्हारा क्या बिगड़ता है, मेरी बिगड़ी सुधरती है ।।5।।
भावार्थ :-
हे प्रभु! आपके दर्शन के बिना मुझे संसार में सदा अशान्ति भासित होती है। आपकी वैराग्यमय मुद्रा सदा आंखो के सामने दिखाई देती हैं।।टेक॥
हे प्रभु ! आप समस्त आभुषण और दोषों से रहित हो, तथा आप समवशरण में सर्वोच्च आसन पर विराजमान होकर भव्य जीवों को दिव्य ध्वनि प्रदान करते हो । मेरी भावना है कि आप मुझे नजर भर देखें पर आप तो सदा आपनी नासाग्र द्रष्टि से विराजमान ही हैं॥1॥
हे प्रभु ! जब तक आपके चरणों में मेरा ध्यान रहता है तब तक मुझे कोई कर्मादि का भय नहीं रहता है क्योंकि ऐसा सुना जाता हैं कि आपके दर्शन करने से कर्म दशा बदल जाती हैं॥2॥
हे प्रभु ! आपके दर्शन करने के पुण्य के फ़ल मे स्वर्ग की सम्पत्ति भी मिले तो इसमें क्या आश्चर्य है क्योंकि जो आपकी सौम्य वीतरागी मुद्रा एक बार देखता है उसकी दुर्गति नही होती है॥3॥
हे प्रभु ! हमने अन्य मत की हजारों प्रतिमायें देखी है परन्तु आपकी शान्त और सौम्य मुद्रा के आतिरिक्त अन्य कोई भी मूरत हमें नही भाती है॥4॥
हे प्रभु ! आप जगत श्रेष्ट हो। मेरी भावना है कि आप मुझे दर्शन दें क्योकि इसमें आपको तो कोई हानि नही है, लेकिन मेरी दुर्गति का नाश होता है॥5॥
Meaning source: Vitragvani