तुम तो प्रभु वीतरागी- कब हमें बनाओगे ?
तुमने पाया केवलज्ञान- कब हमें दिलाओगे ?
तुम तो प्रभु वीतरागी कब हमें बनाओगें । ।
रत्नत्रय से तुमने… पूर्ण सुख पाया है,
दिव्यध्वनि समवशरण में…कब हमें सुनाओगे । तुम ।।
चार गति में भटका… सुख नहीं पाया,
पंचम गति पाई आपने…, कब हमें दिलाओगे। तुम ।।
ज्ञानमयी ज्ञायक की…, दृष्टि हमको मिल जाये,
रागद्वेष भावों की…, सारी डोर कट जाये । । तुम ।।
रागद्वेष परिणतियाँ…, जब हमें सतायेंगी,
ज्ञायक के भूलने से…, फिर निगोद जाओगे । । तुम ।।
गद्य: भ्रम में पड़े रहते हो सोचो रागद्वेष किसका है ?
जरा हमें बताओ तो- निज स्वभाव कैसा है ?
ज्ञायक स्वभाव अपना है फिर भी क्यों भुलाया है?
अरे जरा बतलाओ तो प्रगट ज्ञान किसका है ?
आओ रे जिया यहाँ आओ…
ज्ञायक के अनुभव से…, बात ये बदल जाये ।। तुम ।।