तुम गुणमनि निधि हौ अरहन्त । । टेक ॥।
पार न पावत तुमरो गनपति, चार ज्ञान धरि सन्त ।
ज्ञानकोष सब दोष रहित, तुम अलख अमूर्ति अचिन्त || १ ||
हरिगन अरचत तुम पदवारिज, परमेष्ठी भगवन्त ।
‘भागचन्द’ के घट - मन्दिर मे बसहु सदा जयवन्त ||२||
रचयिता: कविवर श्री भागचंद जी जैन
Source: अध्यात्म भजन गंगा