तू जाग रे चेतन प्राणी | Tu Jaag Re Chetan Prani

हे वीर प्रभुजी हम पर, अनुपम उपकार तुम्हारा।
तुमने दिखलाया हमको, शुद्धातम तत्त्व हमारा।।
हम भूले निज वैभव को, जड़-वैभव अपना माना।
अब मोह हुआ क्षय मेरा, सुनकर उपदेश तुम्हारा।।

तू जाग रे चेतन प्राणी, कर आतम की अगवानी।
जो आतम को लखते हैं, उनकी है अमर कहानी ।।

है ज्ञान मात्र निज ज्ञायक, जिसमें हैं ज्ञेय झलकते,
यह झलकन भी ज्ञायक है, इसमें नहिं ज्ञेय महकते।
मैं दर्शन ज्ञान स्वरूपी, मेरी चैतन्य निशानी, जो आतम... ॥(1)

अब समकित सावन आया, चिन्मय आनन्द बरसता,
भीगा है कण-कण मेरा, हो गई अखण्ड सरसता।
समकित की मधु चितवन में, झलकी है मुक्ति निशानी॥(2)

ये शाश्वत भव्य जिनालय, है शान्ति बरसती इसमें,
मानों आया सिद्धालय, मेरी बस्ती हो उसमें ॥
मैं हूँ शिवपुर का वासी, भव-भव की खतम कहानी॥(3)

Artist - अज्ञात

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I like this Bhajan very much :slight_smile: I almost listen it daily… can someone tell me what is the meaning of these lines … है ज्ञान मात्र निज ज्ञायक, जिसमें हैं ज्ञेय झलकते, यह झलकन भी ज्ञायक है, इसमें नहिं ज्ञेय महकते। Mujhe pahli line ka arth samjh me a rha hai but I am unable to understand the second line.

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ये बहुत ही आध्यात्मिक पंक्तियाँ है, एक तरह से जैन दर्शन का सार ही है।

हे ज्ञान मात्र निज ज्ञायक
यहाँ पर दृष्टि की विषय की बात करी है, मैं तो त्रिकाल ज्ञायक हूँ। ज्ञान मात्र ही हूँ। ज्ञेय नहीं, पर्याय नहीं आदि।

जिसमें है ज्ञेय झलकते
मुझमें ज्ञेय झलकते है, अर्थात् ज्ञान का स्वरूप है स्वपर प्रकाश – स्व और पर को जानना। ज्ञान में वास्तव में ज्ञान जानने में आता है (स्वप्रकाशक) और ज्ञेय “झलकते” है (अर्थात् बिना घुसे वे ज्ञान की पर्याय में मात्र झलकते है) (व्यवहार से पर प्रकाशक)

यह झलकन भी ज्ञायक है
यहाँ से सूक्ष्मता शुरू होती है। झलकन क्या है? ज्ञान की पर्याय। ज्ञान की पर्याय अर्थात् जिसमें ज्ञेय झलक रहे है। यह झलकन ज्ञायक क्यों है? क्योंकि

  • झलकन में जो कुछ भी झलक रहा है (ज्ञेयों के आकार रूप) वह वास्तव में ज्ञान (ज्ञायक) ही है। विचार करें - दर्पण में आपका चेहरा झलक रहा हो, लेकिन वह झलकन आपका चेहरा है कि दर्पण है? वे झलकन के particles भी दर्पण के ही है। दर्पण ही है। वैसे ही ज्ञान में कुछ भी झलके, वह ज्ञान (ज्ञायक) की सत्ता में ही हो रहा है, ज्ञेय की सत्ता में नहीं। ज्ञान के ही प्रदेशों में हो रहा है, ज्ञेय के प्रदेशों में नहीं। इसलिए वह झलकन वास्तव में ज्ञायक ही है। ज्ञान की पर्याय निश्चय से ज्ञानाकार (ज्ञान का ही आकार) है, और व्यवहार से ज्ञेयाकार (ज्ञेयों का आकार) है।

इसलिए झलकन ज्ञायक ही है।

इसमें नहीं ज्ञेय महकते
ज्ञेय इसमें घुस नहीं जाते। ज्ञेय स्वतंत्र है, ज्ञान (ज्ञायक) स्वतंत्र है।

इस चार पंक्तियों में मुख्यतः दो चीजें बतायी है

  • ज्ञान पर पदार्थों को नहीं जानता, अपने आप को ही जानता है। पर पदार्थ बस ज्ञान के आकार में ही (व्यवहार से) ज्ञेय रूप से झलकते है।
  • ज्ञान का परिणमन ज्ञेयों से निरपेक्ष है, स्वतंत्र है। ज्ञेय है, इसलिए होता है ऐसा नहीं है। ज्ञान स्वयं से ही स्वतंत्र रूप से होता है।

आगे वजन जानने वाले पर है, जानने में आने वाले पर नहीं। मैं भी इतना सब कुछ जान रहा हूँ – इससे दृष्टि हटाकर मैं जान रहा हूँ और जो जान रहा हूँ वास्तव में वो मैं ही हूँ। जैसे दर्पण में विभिन्न पर पदार्थों (विशेष) कि दृष्टि को छोड़ते हुए धीरे धीरे पूरी दृष्टि केवल दर्पण मात्र (सामान्य) पर ही आ जाए, वैसे ही ज्ञान की उपयोग उस में झलक रहे विशेषों (विभिन्न पदार्थों) पर से हटकर ज्ञानमात्र (सामान्य) पर आ जाए – और बाद में यह ज्ञान सामान्य मैं ही हूँ ऐसा निर्णय हो जाए, तो आत्मानुभूति हो जाती है।

आ. लालचंदभाई मोदी की यह दो पंक्तियाँ भी यहाँ पर प्रयोजनभूत है –

मैं जाननहार हूँ, मैं करनार नहीं हूँ।
जाननहार ही जानने में आता है, वास्तव में पर जानने में आता नहीं है।

बाक़ी और विद्वतजन खुलासा करेंगे।

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