नयो को समझे बिना जिनागम का मर्म नहीं समझा जा सकता |
जो व्यक्ति नय दृष्टि से विहीन हैं उन्हें सम्यक्त्व नहीं हो सकता | क्यूंकि उन्हें वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं होगा |
नयचक्र अत्यंत तीक्षण धार वाला है | उसको समझे बिना लाभ की जगह हानि भी हो सकती है |
आत्मा स्वभाव से नयपक्षातीत है | उदाहरण: खीर में एक एक चीज़ देखना जैसे चावल, दूध आदि ये विकल्पात्मकता होगयी | क्या चीज़ उसमे डाली जाएगी, क्या नहीं डाली जाएगी ये सब विकल्प हैं | जो चीज़ हैं वह सत कल्पना है और जो नहीं हैं वह असत कल्पना है |
जब हम खीर का स्वाद लेंगे तब हम एक एक चीज़ का स्वाद नहीं लेंगे | तो यहाँ निर्विकल्पात्मक खीर का स्वाद लिया | अगर एक-एक का स्वाद लेंगे तो खीर का स्वाद नहीं आएगा | वह विकल्पात्मक नयज्ञान है |
ऐसे ही जब आत्मा की अनुभूति होगी तो विकल्प नहीं होंगे |
नमक के समान जो समस्त शास्त्रों की शुद्धि करता है,वह नय है |
जब ज्ञानी वक्ता अपने अभिप्राय के अनुसार एक धर्म का कथन करता है, तब कथन में वह धर्म मुख्य और अन्य धर्म गौण हो जाते हैं | इस अपेक्षा से ज्ञानी वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं |
मुख्य धर्म को विवक्षित धर्म और गौण धर्म को अविवक्षित धर्म कहते हैं |
प्रतिपक्षी (अविवक्षित) धर्मों का निराकरण (निषेध) न करते हुए वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है |
प्रमाण द्वारा प्रकाशित पदार्थ का विशेष निरूपण करने वाला नय है |
प्रश्न: जब नय श्रुतज्ञान के भेद हैं तो वो वचनात्मक कैसे हो सकते हैं ?
जो वस्तु को सर्वांग ग्रहण करता है वो प्रमाण हैं और जो वस्तु के अंश को ग्रहण करते हैं वो नय हैं।
#वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं, वक्ता के होने के साथ वो ज्ञाता भी हैं अत: ज्ञाता के अभिप्राय को भी नय कहा।
#ज्ञानात्मक नय और वचानात्मक नय का उदाहरण - जैसे “पीला आम” कहा तो वह वचानात्मक नय और जहां पर हम आम खरीदने गए तो हमने वहां पर पीले पीले आम खरीद के लाए तो वहां पीलापना को ज्ञान में मुख्य करके आम को खरीदा तो वो ज्ञानात्मक नय कहा।
#ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा तो वहां पे ज्ञानात्मक नय को मुख्य किया और जहां वक्ता के अभिप्राय को नय कहा तो वहां पर वचानात्मक नय को मुख्य किया हैं।
#श्रुत ज्ञान के अंश को नय कहा, तो यहां पर द्रव्यश्रुत से वचानात्मक नय हैं और भाव श्रुत से ज्ञानात्मक नय लेना ।
निक्षेप : जिसके द्वारा अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का निरूपण हो |
जो ‘नहीं है’ और ‘है’ के मध्य जो रेखा खिंचे उसे निक्षेप कहते हैं |
प्र: सप्त भंगी (विशेष/भेद) खड़े किये इनका एक नाम(सामान्य) क्या है ? उ:
न्यायदीपिका में आता है:
१. उद्देश्य - नाम उल्लेख
२. लक्षण निर्देश - लक्षण बनाना
३. परीक्षा
प्र: मिली हुई अनेक वस्तुओ में से वस्तु विशेष को भिन्न करने वाले को लक्षण कहते हैं |
यहाँ मिली हुई का अर्थ क्या है?
प्र: विरुद्ध नाना युक्तियों की प्रबलता और निर्वलता का निर्णय करने के लिए प्रवृत हुए विचार को परीक्षा कहते हैं | यहाँ पर प्रबलता और निर्वलता का अर्थ क्या है ?
स्वयं के अज्ञान की खोज ही ज्ञान की वास्तविक खोज है |
१. सप्त भंगी (विशेष/भेद) खड़े किये इनका एक नाम(सामान्य) क्या है ?
हर भंग में एक बात का निराकरण दिखाया गया है | निराकरण करते हुए निरूपण करना ये निक्षेप का कार्य है | जिसके द्वारा अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का निरूपण, संशय का नाश और तत्वार्थ का निश्चय किया जा सके, वह निक्षेप है |
अनेक = दो (अनेकांत सामान्य)
अनेक = अनंत(अनेकांत विशेष)
प्रमाण-नय : मुख्य-गौण
निक्षेप : निराकरण-निरूपण
२. मिली हुई अनेक वस्तुओ में से वस्तु विशेष को भिन्न करने वाले को लक्षण कहते हैं | यहाँ मिली हुई का अर्थ क्या है?
मिली हुई यानि सदृशता(समानता) को लिए हुए |जैसे १० विद्यार्थी हैं पर एक विशेष विद्यार्थी है, उसका जो विशेष गुण है उसके आधार पर उसको अन्य छात्रों से भिन्न दिखाया |
३.विरुद्ध नाना युक्तियों की प्रबलता और निर्वलता का निर्णय करने के लिए प्रवृत हुए विचार को परीक्षा कहते हैं | यहाँ पर प्रबलता और निर्वलता का अर्थ क्या है ?
जो निर्दोष(अव्याप्ति, अतिव्याप्ति,असंभव दोष से रहित) युक्ति है, वह प्रबल युक्ति है |
अव्याप्ति दोष : जो लक्षण लक्ष्य के एकदेश में पाया जावे
उदहारण: पशु का लक्षण बताओ, जो सींग वाला वह पशु होगा तो इससे जिनके सींग नहीं है वह पशु नहीं होगा पर ऐसा नहीं है | अतिव्याप्ति दोष : जो लक्षण लक्ष्य के अतिरिक्त अलक्ष्य में भी पाया जावे |
उदाहरण: आत्मा का लक्षण अमूर्तिक पना है | ये लक्षण तो आकाश में भी है फिर ये सिर्फ आत्मा का लक्षण कैसे हुआ ? असम्भव दोष : जो लक्षण लक्ष्य में कभी नहीं पाया जावे |
उदाहरण: जैसे कोई आत्मा का लक्षण रूपी बतावे | जो उसमे पाया ही नहीं जाता इसलिए यह असंभव है |
सप्त भंग की जरूरत क्यों पड़ी ?
वस्तु के सम्बन्ध में ७ प्रकार की जिज्ञासा होती हैं |
हर एक धर्म के लिए सप्त भंगी होगी | आत्मा में अनंत धर्म हैं तो अनंत सप्त भंगी होती है |
निराकरण :
पुरुष अद्वैत वाद
तत्व उपल वाद
बौद्ध मत
वैशेषिक मत
बौद्ध
श्वेताम्बर मत
अर्पित से अनर्पित निकालना :
जीव चेतन है |(अनुजीवी)
अर्थात अजीव चेतन नहीं है | (प्रतिजीवी)
अजीव जड़ है |(अनुजीवी)
जीव जड़ नहीं है |(प्रतिजीवी)
अर्थात जीव चेतन है
सप्त भंग को धर्म युगलो पर क्यों लगाया ? गुणों पर नहीं लगा सकते क्या ?
स्यात्कार का प्रयोग धर्म युगलो में होगा गुणों में नहीं | धर्म युगल होते हैं उनमे एक को मुख्य और दूसरे को गौण किया जाता है | जो धर्म युगल है वह दीवारी है और जो गुण है वो उसमे भरे हुए हैं |
गुणों की चर्चा तो वादी-प्रतिवादी कर सकता है | पर धर्मों की बात स्याद्वादी ही करेगा |
मूल नय कितने ?
अध्यात्म शैली के मूल नय निश्चय व्यव्हार |
आगम शैली के मूल नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक |
आगम अध्यात्म का हेतु/कारण/साधन है |
द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक को निश्चय व्यव्हार का हेतु कह सकते हैं |
निश्चय व्यव्हार ही मूल नय हैं, द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक को निश्चय व्यव्हार का हेतु होने से मूल नय कहा गया है |