आहार दान की विधि

मुनिराज को आहार देने की सही विधि क्या होती है? इस विधि का उल्लेख किन ग्रंथो में आया है?
कृपया ज्ञात विधि पूरी बताएं।

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भरतेश वैभव (part 1, मुनिसंधि , page 31) में भरत जी ने सूर्यगुप्ति, चंद्रगुप्ति मुनिराज को आहार दिया ऐसा सुंदर वर्णन है ।
बाए हाथ में अक्षत पुष्प आदि मंगल द्रव्य और दाये हाथ में जल का कलश लिए पात्र दान को गए । कलश और पूजा सामिग्री निचे रख साधू की प्रतीक्षा उत्साह से करने लगे । मुनिराज को आता देख " अत्र तिष्ठ तिष्ठ " ऐसा बड़ी भक्ति से कहा तो मुनिराज वहा खड़े हो गए । तब अपने हाथ के पुष्पाक्षत आदि सामिग्री से दर्शनान्जलि देकर भावशुद्धि से जलधारा दी । फिर अत्यंत भक्ति से तीन प्रदिक्षणा देकर उनको सास्टांग नमस्कार किया । फिर मुनि को प्रार्थना करके अपने महल में ले गए । जब मुनियो को सीढ़ियों पर चढ़ना होता तो चक्रवर्ती अपने हाथ का सहारा देते । मुनिराज इस पूरी प्रक्रिया दौरान मौन रहे क्योंकि उनकी प्रतिज्ञा थी की भोजन से पहले किसीसे बोलेंगे नहीं । भरत की रानियां मुनि को महल में प्रवेश कराते हुए उनके दोनों तरफ चमर ढाल रही थी । फिर मुनियो के चरणों का प्रक्षालन कर उन्हें ग्रह में पदार्पण कराया । वहाँ कोई अन्धकार नहीं था । मुनियो को ऊंचा आसन दिया फिर रानियों ने उनकी पूजा करी फिर आहार दान प्रारम्भ किया । दान के समय बाहर घंटा आदि मंगल शब्द होने लगे । अनेक प्रकार के भक्ष्य, खीर, फल आदि को मुनि के हाथो में परोसा । मुनि ने किसी भी पदार्थ की ओर इशारा नहीं किया नीरस भोजन किया । अपने लिए बनाये गए आहार का भरत ने दान दिया । सप्त दाताओ के गुण और नव भक्ति से आहार दिया । फिर मुनियो ने मुख शुद्धि करी, हस्त प्रक्षालन कर आँख बंदकर सिद्ध भक्ति/ आत्म दरसन करे । कुछ देर के लिए ध्यान मुद्रा में चले गए तब घंटा आदि की ध्वनि रोक दी । फिर आँखे खोलकर भरत से बात करी आशीर्वाद दिया । फिर मुनियो को नमोस्तु किया और 4-8 गज मुनियो के साथ गए फिर मुनि विहार कर गए । फिर भरत ने स्वयं भोजन किया ।

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