चंदनबाला कथा (पद्य)

चंदनबाला
[छन्द-मानव]

मैं अरहंतों को ध्याकर, सिद्धों को भी मैं ध्याऊँ।
आचार्यों के पद अर्चन, मैं उपाध्याय बन जाऊँ।।1।।
साधु के पथ पर चलकर, मैं मुक्ति वधु को ध्याऊँ।
जिनवाणी माँ को वन्दन, सिद्धत्व स्वयं प्रगटाऊँ।।2।।
तुम हो इस जग की बेटी, चंदन से ज्यादा शीतल।
तुम शीलवती हो न्यारी, चलो देखे बीता हुआ कल।।3।।
पलटो अतीत के पन्ने, रे कौन थी चन्दनबाला।
निज धर्म ध्यान कर छोड़ी, यह विषयों की मधुशाला।।4।।
चंदन है वीर की मौसी, अतिवीर के संग हुई चर्चा।
न बनूंगी मैं कभी दारा, ये निश्चय कर पद अर्चा।।5।।
कंचनवर्णी सी काया, थी सुंदर और मनोहर।
वैराग्यमयी था जीवन, मुक्ति निज में ही रमकर।।6।।
एक दिन नगर से बाहर, क्रीड़ा करने को जाती।
और साथ में उनकी सखियाँ, संग जाती हंसती गाती।।7।।
फिर ये क्या हुआ अचानक, रे काले बादल छाए।
उसके यौवन पर मोहित, हो विद्याधर है आए।।8।।
अपहरण किया स्त्री का, ले जाता है गगन में।
सखियाँ भी व्याकुल होकर, ढूंढें उस भीषण वन में।।9।।
परेशान चंदना सोचे, मैं कहाँ चली ये नभ में।
विद्याधर स्त्री डर से, छोड़े कौशांबी वन में।।10।।
कर्मों ने पैर उठाए, उसके जीवन में उतरे।
उसको विचलित करने को, दे गए उसे ये खतरे।।11।।
कुछ होगा अशुभ ये जाना, और फिर निज को ही ध्याना।
अरु परमेष्ठी को ध्याऊँ, और मुक्ति व्रण कर जाऊँ।।12।।
फिर वन का मुखिया आया, चन्दनबाला को पाया।
मोहित होकर मालिक ने, है उसे वहाँ से उठाया।।13।।
जाकर गरिमा को सौंपा, ये कैसी नियती क्रीड़ा।
वह डरी और घबरायी, देखो कर्मों की लीला।।14।।
देखा अद्भुत स्त्री को, वेश्या उठती खिल खिल कर।
ऐसी सुंदर न देखी, होगी कौशांबी रहकर।।15।।
मैं इसको बेचूंगी तो, होगी असीम धन प्राप्ति।
ऐसा विचार कर उठती, होगी अब धन की तृप्ति।।16।।
चंदनबाला को लेकर, वेश्या बाजार में जाती।
क्षणभंगुरता जग की ये, किसी को समझ न आती।।17।।
शुभ अशुभ खेल में उलझी, ये कैसी कर्म की माया।
वेश्या के हाथों बिकती, इक सती हो जैसे आया।।18।।
इस अशुभ वृत्ति को देखा, टप-टप दो आँसू टपके।
मन ही मन निज को ध्याया, रे परमेष्ठी को जप के।।19।।
मृगावती है राज्ञी, चन्दनबाला की भगिनी।
उस कौशांबी में देखो, महावीर की मौसी बिकती।।20।।
वेश्या भी आतुर होकर, है नजर टिकाए बैठी।
कोई नगर सेठ आऐंगे, ऐसा विचार कर लेटी।।21।।
फिर योग बना ऐसा कि, इक सेठ उधर से गुज़रे।
चन्दनबाला को देखा, वे सज्जन वही है रुकते।।22।।
आश्चर्यचकित हो उठते, उस कन्या को निरखकर।
लगती राजा की कन्या, अटकी कैसे यहाँ पर।।23।।
इतने आश्चर्यचकित थे, वो दासी रूप में बिकती।
उसकी मुद्रा को देखा, सोचा विपदा में अटकी।।24।।
कोई सुसज्जित कुल की, कन्या ये रूप में दिखती।
इसके मुख पर विषयों की, कोई इच्छा नहीं टिकती।।25।।
कैसा ये कठिन समय है, कैसी उसकी विपदाएँ।
इतिहास उठाकर देखो, कैसे उसको सुलझाए।।26।।
इस दुनिया की ये माया, इसमें कैसे ये उलझी।
जितना सुलझाए उसको, उतना ही उसमें फसती।।27।।
फिर वृषभ सेठ ने सोचा, मस्तिष्क अश्व दौड़ाए।
रे दुष्ट जीव के कर में, ये कभी नहीं फस जाए।।28।।
रे काल भी कितना दुखद है, वो कैसे मोक्ष को पाऐ।
है कितने संकट उनसे, कैसे वो बाहर आए।।29।।
फिर काल चक्र भी पलटा, उसके दुख है ये कैसै।
कर्मों से ली अंगड़ाई, सपनों से जागे जैसै।।30।।
उसका विचार है आया, चंदन के पास में जाते।
अरु उसके बारे में वो, सब कुछ ही पूछे जाते।।31।।
अब ऋषभ सेठ को देखा, वेश्या के पास खड़े है।
आश्चर्य का नहीं ठिकाना, उससे क्या पूछ रहे है।।32।।
जनता ये सोच रही है, क्यों भ्रष्टा धर्म को करते।
सुसज्जन सेठ नगर के, वेश्या के पास क्या करते।।33।।
इस सुंदर स्त्री की ये, है पूछताछ भी करते।
नगरसेवक हो मोहित, है धर्म मार्ग से भटके।।34।।
भूचाल मचा लोगों में, फिर सोचा शांत हृदय से।
न संभव ये सब बातें, ये सेठ तो सज्जन ठहरे।।35।।
नवकार को है यह ध्याती, आश्चर्य में सेठ भी पड़ते।
है जैन धर्म की कन्या, ये सोच के आगे बढ़ते।।36।।
नहीं है मेरी संताने, तो इसको आश्रय दूंगा।
इसको घर ले जाकर, बेटी सम ही पालूंगा।।37।।
ऐसा विचार कर उनने, वेश्या को मोहरे देदी।
है धन्य सभी धर्मात्मा, अरु धर्मात्मा की वाणी।।38।।
प्रतिकूल प्रसंग के मिलते, ज्ञानी की चेतना जागी।
इस दुनिया की ये लीला, प्रेक्षक समरूप है दिखती।।39।।
रे ज्ञानी की सोच को देखो, न पर से कुछ लेना है।
हो विषम परिस्थिति कैसी, न जीव को कुछ होना है।।40।।
घर में कदम को रखते, ही ऋषभ सती से कहते।
हो अच्छे कुल की कन्या, मत घबराओ इन दुख से।।41।।
ये निर्विकारी सी चेष्टा, ये वस्त्र तुम्हारे बताते।
ये लोचन भी कुछ कहते, है सेठ शीश झुकाते।।42।।
तेरे कुल की तू प्रसिद्धि, अपने वस्त्रों से करती।
मेरी दुहिता सम है तू, तो किसका भय है करती।।43।।
मैं जिन का अनुयायी हूँ, यू सेठ सती से कहते।
हो सुता स्वरूप तुम मेरी, रहो निर्भय मन से।।44।।
जब सेठ को उसने देखा, चंदन को ऐसा लगा की।
मानो ये पूर्व जनम के, हो मेरे धर्मपिता ही।।45।।
श्रावक के घर में आकर, ये मन संतुष्ट हुआ है।
उसके चरित्र की रक्षा, मानो ये कोई दुआ है।।46।।
अहो! जगत के स्वामी, की मौसी दासी बनती।
कर्मों का खेल ये देखो, देखो संसार की हस्ती।।47।।
एक सुन्दर राजकुमारी, दूजे के घर की दासी।
बनकर के सेवा करती, कर्मों ने जीती बाजी।।48।।
है खबर न वृषभ सेठ को, न सेठानी को पता है।
ये दासी कौन है बोलो, ये मुक्ति की लता है।।49।।
क्षणभंगुर है ये दुनिया, जाति कुल रूप भी यौवन।
मद करने जैसा नहीं है, मत व्यर्थ करो तुम जीवन।।50।।
कर्मों की ये क्रीड़ा, कैसी अद्भुत है होती।
राजा भी क्षण भर में ही, हो जाता रंक पति ही।।51।।
दारा को शक करने में, नहीं ज्यादा देर है लगती।
और इस शक को हरने की, कोई औषधी नहीं है मिलती।।52।।
भ्रम हुआ है सेठानी को, उन वृषभ सेठ के ऊपर।
और इस शक को हरने की, कोई औषधी नहीं है मिलती।।53।।
सौतन बनाने को मेरी, लायें हैं मेरे घर में।
वर्ना दासी क्या कम थी, तज देंगे मुझे क्षण में।।54।।
वह चंदन को जब देखे, मन में नफरत भर जाती।
वह बार-बार जब देखे, है हृदय से जल ही जाती।।55।।
वह नागिन के सम उसको, डसने की सोच है रखती।
उस धर्मी के घर में तो, जैसे नागिन हो पलती।।56।।
सेठानो अवसर ढूँढे, पर वह कुछ नहीं कर पाए।
उसके प्रति सेठ श्रद्धा, को देखके कुढ़ती जाए। ।57।।
एकबार वृषभ जी बाहर, से ज्यादा थककर आए।
सेठानी भी बाहर थी, नौकर न घर में पाए।।58।।
फिर चंदन रोज की भाँति, पिता के पग को धोती।
आज फिर वृषभ के मुख पर, फिर से मुस्कान चमकती।।59।।
पग धोते क्षण चंदन के, कुछ केश निकलकर बिखरे।
पृथ्वी पे गिरकर ये तो, मिट्टी में है लिपटे।।60।।
जब सेठ ने ये देखा तो, वो केश को ऊपर करते।
बस इस पल ही सेठानी, आ पहुंची है इकदम से।।61।।
यह देख के सेठानी के, दिल में इक आग है जलती।
अरु क्रोध से उसकी आँखे, रे देखो लाल है लगती।।62।।
सेठानी के अंतर में, शक तो यकीन में बदला।
अब आगे क्या करना है, क्या कदम है मेरा अगला।।63।।
सेठानी मन में सोचे, कि मेरे न होने पर।
ये सेठ भी पागल होते, चंदन पर मोहित होकर।।64।।
इस राग द्वेष की ज्वाला, ने लाँघी सारी सीमा।
अब काल चक्र भी पलटा, अरु कर्म भी करते क्रीड़ा।।65।।
देखो उसको इस घर से, कुछ भी करके है जाना।
नहीं जावेगी जब तक ये, नहीं चैन है मुझको आता।।66।।
हे भगवन् तेरे घर में, क्या-क्या भरके रक्खा है।
अपने कर्मों का फल तो, सबने ही प्राप्त किया है।।67।।
नहीं जीव ये पीछे हटते, इन कर्मों के बंधने से।
फिर कर्मोदय आने पर, वो बिलख-बिलख कर रोते।।68।।
इक बार सेठ को बाहर, कुछ काम से जाना पड़ता।
तब सेठानी भी खुश हो, सोचे यह अवसर अच्छा।।69।।
एकांत में सेठानी ने, चंदनबाला संग जाकर।
उसके बालों को सर से, हटवाया दासी कहकर।।70।।
ये क्या हुआ जीवन में, संसार है देखो कैसा।
उस रूपवती स्त्री को, विडरूप किया है ऐसा।।71।।
इतना कुछ करने पर भी, सेठानी चुप न होती।
अब उसके ऊपर देखो, यह नई चाल को चलती।।72।।
सेठानी ने चंदना के, उस देह में बेड़ी बांधी।
अरु भीषण कमरे में वो, दासियों के संग ले जाती।।73।।
उसको ले जाकर फेंका, और बंद किया बाहर से।
जब जाकर के सेठानी, को चैन पड़ी अन्तर में।।74।।
सेठानी बाहर से ही, है कठोर वचन है सुनाती।
अब तो भोजन और पानी, देने अंदर नहीं जाती।।75।।
अहो ऐसे कठिन समय में, चंदन का धर्म न छूटा।
संयोग से चित्त हटाकर, है निज स्वरूप में जोड़ा।।76।।
देखो शुद्धातम धुन में, वह भोजन पानी भूली।
वह आतम का मन ही में, है चिन्तन करती रहती।।77।।
अहो देह देह में बसता, बन्धन भी बन्धन में है।
अरु आतम भी आतम में, है रहते सब अपने में।।78।।
है धन्य वे ज्ञानी जन भी, है धन्य है उनका वैभव।
है धन्य है उनका अंतर, है धन्य रे उनका जीवन।।79।।
एक-एक करके फिर क्रम से, दिन बीते है पर फिर भी।
नहीं आए सेठ जी घर आए, न मिलता भोजन पानी।।80।।
पर चंदनबाला इसकी, कोई चिंता न करती।
सब तज के चंदन देखो, परमातम के संग रहती।।81।।
जब नगर सेठ घर आए, घर देख वे चकराए।
मौसम क्यों शांत इधर का, वे कुछ समझ न पाए।।82।।
फिर चंदन को वे पुकारे, चंदन सुनो बेटी चंदन।
पर चंदन कैसे आए, बेड़ी से बंधे है बंधन।।83।।
चंदन को कहीं न पाकर, वो चिंता करने लगते।
कर्म बेड़ी में जुड़ी, वो उसको कैसे समझे।।84।।
तब सेठानी से पूछा, बोलो कहाँ मम पुत्री।
है नहीं मुझे मालूम, सेठानी क्रोध में कहती।।85।।
तब सेठ जी पीछे पलटे, और बाकी सब से पूछा।
हो तुम सब चुप क्यों बोलो, है चंदन कहाँ ये सोचा।।86।।
पर कोई कुछ न बोला, सबकी आँखे भर आयी।
सेठानी मन ही मन में, है मन्द-मन्द मुस्काई।।87।।
अब अंतिम दासी बाकी, थी तो उससे भी पूछा।
उसने भी कुछ न बोला, लोचन में जल भर सोचा।।88।।
फिर लम्बी श्वासें लेकर, दासी ने किया इशारा।
कमरे की ओर दृष्टि कर, वृतांत दिया है सारा।।89।।
अब सेठ भी कुछ समझे ये, कि घटी है कोई घटना।
कमरे में जाकर देखा, आश्चर्य का नहीं ठिकाना।।90।।
नैनों में तम सा छाया, मानो दुःस्वप्न हो देखा।
मुड़ा हुआ ये सिर था, अरुदेह बेड़ी से जकड़ा।।91।।
अहो देह ये सूखा तो फिर, कैसा विषरूप है लगता।
ये देह तो मात्र पड़ोसी, केवल निज आत्म चमकता।।92।।
सहसा उनके इस मुख से, इक तेज चीख है निकली।
चंदन बेटी बेटी चंदन, क्यों नहीं हो तुम कुछ बोली।।93।।
किसने ये हाल किया है, है सेठ ने चाहा सुनना।
उसकी दयनीय दशा को, देख कर आया रोना।।94।।
चंदन कुछ बोले बिना ही, स्नेह से टक-टक देखे।
अश्रु से भरे नयनों से, अरु धर्मपिता को निरखे।।95।।
फिर सेठ ने दरवाजे को, खोला है झट इकदम।
जगजाल भेदने को फिर, चले लुहार के घर पे।।96।।
जाते जाते चंदन को, उपास का पारना करने।
उबले पानी के संग में, उबली हुई उड़द भी देते।।97।।
ये कैसी कर्म की क्रीड़ा, ये कैसी लोक में माया।
है सब उलझे है उसमें, क्यों कोई समझ न पाया।।98।।
अब मिले ज्ञान का समागम, हो जाऊँ मैं सिद्धों सम।
बस ध्यायो निज आतम को, वर लो रे मुक्ति वधु तुम।।99।।
इन कर्मों की बेड़ी को, कब होगी अंतर तृप्ति।
अरु आगे भी है कहानी, होगी शिवरमणी प्राप्ति।।100।।
हैं लोग ये कहते रहते, है भावना भव की नाशिनी।
अब आगे सुनो कहानी, मैं लब्धि तुम्हे सुनाती।।101।।
चंदन ये मन में सोचे, गर मुनि है पहले आते।
उनको आहार में देकर, ये तोड़ू रिश्ते नाते।।102।।
फिर चंदन मन में सोचे, मुझ जैसी न है अभागन।
न दर्शन होंगे मुनि के, ऐसा विचार करे उस दिन।।103।।
टप-टप दो आँसू टपके, चंदन है रोने लगती।
अनुप्रेक्षा है बलशाली, वह होनहार से फलती।।104।।
मुनि वीर आज कौशांबी, में फिर आहार को आते।
पर निश्चय आधा होने, से वे वापस चले जाते।।105।।
आज अंत में फिर से, पंच माह पंचदश दिन के।
मुनि वीर बाद पधारे, अब भाग्य खुले नगरी के।।106।।
मुनिराज सेठ के घर की, ओर ही बढ़कर आते।
भक्ति अचरज से पुलकित, चंदन संग जन हर्षाते।।107।।
प्रभु मेरे आँगन आओ, चंदन ने मुख है खोला।
सब दुःख भूली वह अपने, सत्कार करने मन बोला।।108।।
बन्धन स्वयमेव ही टूटे, सिर बालों से हो शोभित।
सौन्दर्य है जगमग करता, मन भक्ति से है हर्षित।।109।।
टकटकी लगाकर देखे, मुनिवर की ओर निहारे।
बेड़ी टूटी है उसकी, नहीं लक्ष है उस पर साधे।।110।।
हर्षित हो फिर चंदन ने, नवधा भक्तिपूर्वक ही।
पड़गाहन हेतु पहुंची, मन गदगद है पहले ही।।111।।
रे पधारो मेरे आँगन, हे नाथ अत्र मम तिष्ठो।
मुझको भी तारो भव से, हे नाथ अत्र मम तिष्ठो।।112।।
अब हुआ है निश्चय पूरा, निज आत्म स्वरूप में रमते।
आतम आतम को लखने, रे चले है मुक्ति करने।।113।।
वे निकट द्वार के आकर, समकक्ष खड़े चंदन के।
मन हर्षित है अब उसका, वह दुःख भूली है स्वयं के।।114।।
वह शीघ्र आहार हेतु से, उबली हुई उड़द है लाई।
अरु शीघ्र ही उन मुनिवर को, आहार कराने आई।।115।।
अहो पुण्य उदय है आया, कर्मों का पड़े न साया।
अरु सरस सुवासित भोजन, पुण्योदय फल में आया।।116।।
मंगल संयोग निरखकर, देवों ने की जयकारा।
चहुंओर से देखो लोगों, है खुशी का मौसम आया।।117।।
मुनि वीर के पड़गाहन का, संदेश सुना जब जन ने।
सब सेठ के घर को दौड़े, मौसम हर्षित जय-जय से।।118।।
यहाँ सेठ लुहार के संग में, जल्दी से घर को लाते।
आश्चर्यचकित वे होते, जब देखे जन को जाते।।119।।
फिर सेठ किसी से पूछे, अरे! आप कहाँ हो जाते।
इतनी सारी जनसंख्या, इकसाथ खुशी में गाते।।120।।
लोगों ने सेठ को देखा, आश्चर्य से उनको कहते।
अहो! भाग्य खुले है तुम्हरे, मुनि वीर आज है घर पे।।121।।
जब कान में बात ये पड़ती, न हर्ष का कोई ठिकाना।
यह सब कुछ हुआ है कैसे, नहीं ध्यान कहाँ है जाना।।122।।
फिर शांत करके वे मन को, मुनि वीर की ओर को बढ़ते।
जब घर पहुंचे तो देखा, यह हुआ है सबकुछ कैसे।।123।।
सब कुछ बदला है घर पर, सर्वत्र खुशी है छाई।
चंदन का मन भी हर्षित, यह खुशी है मन को भाई।।124।।
चंदन का रूप हो जगमग, लगे सूर्य किरण के जैसा।
तुम धन्य हो बेटी मेरी, उपकार किया ये कैसा।।125।।
तुमने मेरे इस घर को, मंदिर सम स्वच्छ किया है।
और आज तुम्हारे कारण, यह नगर कलंक धुला है।।126।।
अपराध क्षमा हो मेरा, अपराध क्षमा हो मेरा।
न मैंने तुम्हे पहचाना, अपराध क्षमा हो मेरा।।127।।
अब सेठ जी फिर से बोले, मैं जान तुझे न पाया।
न मैंने तुमको समझा, आँसू अरु दुक्ख दिलाया।।128।।
चंदन अब पितृ से बोली, न याद करो वो बातें।
जो बीत गये सो बीता, मत ध्यान करो वो बातें।।129।।
रे धन्य हो आप पिताजी, कितने उपकार है मुझपर।
न होते तुम उस दिन तो, न रहती आज कहाँ पर।।130।।
न कोई शरण था मुझको, बस आप शरण थे उस पल।
संकट से बचाया मुझको, रक्षा की मेरी हरपल।।131।।
इस अद्भुत दृश्य को देखा, सेठानी का मन बदला।
विमूढ़ हुई वो निरखकर, मन से वो भ्रम है निकला।।132।।
लोचन से बादल छटते, है मान त्वरित गल जाता।
अब शर्म आई है खुद पर, अभिमान चूर हो जाता।।133।।
अपने बाँधे कर्मों को, इक बार ध्यान वो करती।
चंदन चरणों में आकर, वो क्षमा याचना करती।।134।।
अब क्षमा करो हे बेटी, हूँ पापिन मैं बस तेरी।
बहु दुःख दिये है मैंने, अब अंतर छवि उकेरी।।135।।
कितना अपमान किया है, अरु बुरा सुलूक किया है।
न देह को बख़्शा मैंने, तेरे इस मुख को सिया है।।136।।
सेठानी बोली उसको, मेरा अपराध क्षमा कर।
तू शीलवती है न्यारी, उपकार करो तुम मुझपर।।137।।
चंदन ने कर को जोड़ा, वो बोली सेठानी को।
माता तुम भूलो सबकुछ, मत याद करो तुम उसको।।138।।
ये मेरा कर्मोदय है, नहीं इसमें कोई शंका।
मुनिवीर अहार हेतु से, है नियति ने रुख पलटा।।139।।
हो… धन्य हुए है हम सब, है हुआ धन्य ये जीवन।
प्रभु के मंगल चरणों से, न आवे कर्म का अंजन।।140।।
महारानी मृगावती ने, संदेश सुना ये जिस पल।
हर्षित होकर वो दौड़ी, आई है सेठ के घर पर।।141।।
आश्चर्यचकित हो उठती, जब चंदन को है देखें।
रे यहाँ कहाँ तू चंदन, वो उसको बस है निरखे।।142।।
ये कालचक्र था पलटा, अरुसुखद काल है बढ़ता।
अनुकूल संयोग है मिलते, है पुण्योदय की सत्ता।।143।।
ये खबर सुनी जब सब ने, है शोक हर्ष में बदला।
क्षण में बदला ये मौसम, हर्षित है हृदय सभी का।।144।।
चंदन ने मांगी आज्ञा, चल पड़ी मृगावती संग में।
वह राजमहल है पहुंचती, रथ रुका है कुछ ही क्षण में।।145।।
अनुपम है शील का वैभव, न आदि अन्त है इसका।
मंगलकारी दिन आया, चंदन लौटी है त्रिशला।।146।।
चंदन बोली रानी से, संसार है बहु दुःख सागर।
मैं मुक्ति वधु को ध्याऊँ, जाऊँगी आज्ञा पाकर।।147।।
है इच्छा ब्रह्मचर्य की, है शील ध्येय को ध्याना।
मुझे भव सागर से तरना, रे इसीलिए है जाना।।148।।
अब मृगावती ने बोला, नहीं रोकूँगी मैं चंदन।
बस ध्यान रखो तुम अपना, मैं करूँ तुम्हारा वंदन।।149।।
ये जीवन दर्शन उसका, है उसकी यही कहानी।
है भिन्न देह अरु चेतन, ज्यों रहता पंकज वारी।।150।।
अहो भेदज्ञान को लाओ, नहीं उस बिन कुछ भी संभव।
और मोक्ष लक्ष्मी को पाओ, है पाना नहीं असंभव।।151।।

Artist : शाश्वत लब्धि जैन, घुवारा।

2 Likes