देखो भाई ! आतम राम विराजै…
देखो भाई ! आतम राम विराजै… छहों द्रव्य नव तत्त्व ज्ञेय हैं, आप सुज्ञायक छाजै ।।
देखो भाई ! आतमराम विराजै ।। टेक ।।
अर्हत सिद्ध सूरि गुरु मुनिवर, पाँचों पद जिहिमांही।
दर्शन ज्ञान चरण तप जिहि में, पटतर कोऊ नाहीं ।।१।।
देखो भाई ! आतमराम विराजै…
ज्ञान चेतना कहिये जाकी, बाकी पुद्गल केरी।
केवलज्ञान विभूति जासु कै, आन विभो भ्रम केरी ॥२॥
देखो भाई ! आतमराम विराजै…
एकेन्द्री पंचेन्द्री पुद्गल, जीव, अतीन्द्रिय, ज्ञाता।
‘द्यानत’ ताही शुद्ध द्रव्य को, जानपनो सुखदाता ।।३।।
देखो भाई ! आतमराम विराजै…
हे जीव ! देखो आतमराम शोभायमान हो रहा है छह द्रव्य और नव तत्त्वं जानने योग्य हैं और तुम उनको जानने वाले ज्ञायक हो।। टेक ।।
अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि ये पाँचों पद जिसके स्वरूप में विराजमान हैं।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि सभी गुण इसी में समान रूप से विद्यमान हैं, सभी अतुलनीय है।।१।।
एक मात्र ज्ञान चेतना ही जीव की है बाकी सब पुदगल की पर्याय हैं। हे भव्य ! तेरे अंदर केवलज्ञान सदृश अनेकों निधियाँ विराजमान हैं जिन्हें भ्रम के कारण तू भूल गया है।।२।।
एकेन्द्रिय अथवा पंचेन्द्रिय, यह पुद्गल शरीर की अपेक्षा भेद कथन है, वास्तव में जीव में ऐसा कोई भेद नहीं है, वह तो इन्द्रियातीत, शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है। अतः कविवर द्यानतरायजी कहते हैं कि इसी शुद्ध आत्मद्रव्य को जानो, पहचानो, यह ही सुख की खान है।
नोट: १. नवतत्व सात तत्व पुण्य व पाप
(किसी अपेक्षा से नव पदार्थ को नव तत्व भी कहा जाता है।)