जिस प्रकार विशुद्ध को शुद्ध का कारण कह दिया जाता है उसी प्रकार यहाँ पर भी कारण लब्धि सम्यक्त्व का कारण है। अतः वह सम्यक्त्व के उन्मुख है, इसलिए ऐसा कहा जाता है।
प्रथमोपश्म सम्यक्त्व के पूर्व जो पञ्च लब्धि होती है ,उसमें जो करण लब्धि होती है ,उसके तीन भेद होते है अधप्रवृत्त ,अपूर्वकरण ,अनिवृत्तिकरण। वहाँ अपूर्वकरण के चार आवश्यक में गुणश्रेणी निर्जरा होती है ।
फिर प्रश्न उठता है कि यह करण लब्धि मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है अतः निर्जरा भी वहीं होती है ,और वहाँ शुध्दभाव नहीं है, शुभभाव है तो निर्जरा शुभभाव से सिध्द हुई ?
उतर-हाँ ,शुभभाव से भी निर्जरा है परन्तु यह शुभभाव तत्वनिर्णय रूप है।यहां पर होने वाली निर्जरा मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का अनुभाग कम करती है ,ना कि अभाव
सही कहा, सत्ता में पड़े हुए कर्मों का उदय में आए बिना क्षय नहीं होता है, अब उदय स्व-मुख से भी आ सकता है या संक्रमण आदि होकर अन्य रूप से भी उदय आ सकता है। जिस रूप में बंधन हुआ था अर्थात जिस प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग रूप में कर्म का बंध हुआ था, जीव के परिणामों का निमित्त पाकर उनमें परिवर्तन होता है (सभी कर्म प्रकृति के भिन्न भिन्न परिवर्तन के नियम है जो गोम्मटसार आदि ग्रंथो में विस्तार से बताए गए है), और इस कारण बंध अवस्था वाले अनुपात में उदय नहीं आते है और उसी अपेक्षा से संक्रमण-अपकर्षण आदि भेद बन जाते है, और उन्ही में से किंही को यथायोग्य निर्जरा नाम दिया जाता है।(यहाँ बात द्रव्य निर्जरा की ही की है)। कर्मों की १० अवस्थाओं में भी निर्जरा नाम से कोई अलग से अवस्था नहीं कही है।