भगवान कुन्दकुन्द वक्रग्रीव क्यों?

शंका- हमने कहते सुना है कि भगवान कुन्दकुन्द ने अकाल में स्वाध्याय किया, सो शासन देवी ने उनकी गर्दन टेढ़ी कर दी थी।

समाधान- यह बात इतिहास और शास्त्र से विरुद्ध है। यदि थोड़ा विवेक से विचार किया जावे तो यह बात निर्विवाद है कि स्वाध्याय आदि पुण्य क्रियाओं के अनुष्ठानों से कषायांश मन्द होकर परिणामों में विशुद्धि होती है और उससे पुण्यास्रव होता है भगवान सूत्रकार उमास्वामी आचार्य ने "शुभः पुण्यस्याशुभपापस्य " द्वारा स्पष्ट किया है।

यदि किसी स्थल पर ऐसी घटना हुई भी हो तो यह समझना चाहिए कि अमुक व्यक्ति के ऐसे तीव्र अशुभ कर्म का उदय था कि यदि वे यह शुभाचरण न करते तो यह समझना चाहिए कि व्यक्ति को न जाने कितना कष्ट उठाना और पड़ता। धर्म के प्रभाव से इतने में ही बच गये, वह सब स्वाध्याय रूप तप का ही प्रभाव था ।

श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने अकाल में स्वाध्याय किया, अतएव वे वक्रग्रीव टेढ़ी गर्दन वाले हो गये, यह बात कपोल कल्पित है। केवल किंवदन्तियों का इतिहास में कोई महत्त्व नहीं है। असल में कुन्दकुन्द का ही दूसरा नाम पद्मनंदी था और वे कौण्डकुण्ड वासी थे। पश्चात् नगरानुकूल उनका श्रुति मधुर नाम कुन्दकुन्द पड़ गया। उल्लिखित दोनों नाम श्रवणबेलगोल के ऊपर चन्द्रगिरि पर्वत की मल्लिषेण प्रशस्ति में खुदे शिलालेख नं. 9-10 में है। अन्य ग्रन्थों में भी ये दो नाम मिलते हैं। नन्दि संघ की पट्टावली में निम्नांकित 5 नाम आये हैं-

  1. कुन्दकुन्द, 2. वक्रग्रीव, 3. एलाचार्य, 4. गृद्धपिच्छ, 5. पद्मनंदी

परन्तु पट्टावल्लियों में परस्पर विरोध होने से पूर्ण सत्य नहीं मानते, क्योंकि एलाचार्य नाम के आचार्य बहुत बाद के भगवज्जिनसेनाचार्य के गुरु वीरसेन स्वामी के गुरु थे। गृद्धपिच्छ यह नाम उमास्वामी का है। वक्रग्रीव नाम के आचार्य बहुत बाद हुए हैं वे अत्यंत प्रसिद्ध थे, परन्तु पट्टावलियों के लेखकों को उसका भेदज्ञान न होने से तथा क्रम के अज्ञान से परस्पर संग्रह कर दिया है।

वक्रग्रीवमहामुनेर्दशशतग्रीवोऽयहीन्द्रो यथा,
जातं स्तोतुमलं वचोबलमसौ किं भग्नवाग्मिव्रजम् ।
योऽसौ शासनदेवता बहुमतो ही वक्रवादिग्रहः,
ग्रीवोऽस्मिन्नयशब्दवाच्यमवदन् मासान् समासेन षट् ॥

अर्थ- महामुनि वक्रग्रीव के बड़े-बड़े वक्ताओं को हटा देने वाले वचन बल की स्तुति हजार ग्रीव वाला धरणेन्द्र भी नहीं कर सकता। शासन देवी ने उन्हें बहुत माना था। उन्होंने लगातार छह महीने तक ‘अ’ शब्द का अर्थ किया था। उस समय बड़े-बड़े वादियों की गर्दनें लज्जा के मारे वक्र (टेढ़ी) हो गई थीं। अतएव वे वक्रग्रीव कहलाये।

अब यदि हम वक्रग्रीव नाम आचार्य प्रवर कुन्दकुन्द को ही मान लें तो वे उक्त कारण से वक्रग्रीव कहलाये, न कि अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से शासन देवी ने गर्दन टेढ़ी कर दी थी। यह कपोल कल्पित होने से अप्रमाणित है।

ज्ञान प्रबोध में जो आचार्य के जीवन चरित्र में ऐसा विषय आया है, वह कपोल कल्पित प्रतीत होता है।

- आचार्य श्री सूर्यसागर जी महाराज
ग्रंथ - संयम प्रकाश - उत्तरार्द्ध तृतीय किरण

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