भाव-बंध और भाव-निर्जरा सम्बंधित

सात तत्व में भाव-(आस्त्रव, संवर, मोक्ष) की परिभाषा देखें, तो उसे निरपेक्ष रूप से एक स्वतंत्र पर्याय पर लागू कर सकते है.

भाव-निर्जरा और भाव-बंध सम्बन्ध में प्रश्न है -

भाव-बंध की परिभाषा राग-द्वेष के परिणाम में “अटकना” उसे बंध कहा है. इसमें “अटकने” का अर्थ क्या है? उस परिणाम में एकत्व करना - एक ऐसा अर्थ निकलता है लेकिन वह तो मिथ्यात्व हो जायेगा, जबकि सम्यग्दृष्टि के भी मर्यादित भावबंध होता है.

भाव-निर्जरा में आनंद की वृद्धि, या शुद्धि की वृद्धि कहा जाता है. लेकिन “वृद्धि” कहते ही उसमें पूर्व पर्यायों की तुलना आ जाती है. अर्थात निर्जरा की परिभाषा पूर्व पर्यायों के सापेक्ष हो गयी? भाव-निर्जरा का केवल एक स्वंत्रत पर्याय की अपेक्षा निरपेक्ष वर्णन क्या है?

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आपका लिखना है कि

किन्तु बारस अणुवेक्खा/66 में आया है कि जिन परिणामों से संवर होता है, उनसे ही निर्जरा भी होती है।

यहाँ आचार्यने निरपेक्ष सापेक्ष नहीं किन्तु दोनों भावों को एक कह दिया।

जब आचार्य ने एक किया है तो अब सात तत्व निरपेक्ष रूप से एक स्वतंत्र पर्याय पर लागू करने का प्रयोजन क्या है? क्योंकि स्वानुभूति के प्रयोजन में तो अभेद ही होना है।

आप सात तत्व में एक एक तत्त्व को पर्यायरूप से सभी से निरपेक्ष देखना चाहते है किंतु वास्तव में मुख्य रूप से नव तत्व रूप कर्मो का परिणमन होता है। और जीव के उनसे संबंधित भाव को तो मात्र उसकी संज्ञा प्राप्त होती है।

जैसे कि कर्मो का कार्मण शरीर से छूट जाने की क्रिया तो होती है, वे निर्जरते है। किन्तु जीव के कोई भाव जीव से निर्जरते नहीं। निर्जरा शब्द तो कर्म के पक्ष से उससे संबंधित जीव के भाव को दिया है। इसतरह जीव के सात तत्व निरपेक्ष नहीं, किन्तु कर्मसापेक्ष दृष्टि से ही दिखते है। उन सात तत्व रूप भावों को यदि कर्म निरपेक्ष देखते है तो उनको संवर, निर्जरा आदि नाम प्राप्त ही नहीं होगा।

Secondly

यहाँ आकर विरोध आने से अर्थ समझने में आप रुक गए। इससे सिद्ध होता है कि या तो परिभाषा में गलती है या तो उस परिभाषा के शब्दार्थ समझने में आपकी गलती है।

तो प्रथम तो यह परिभाषा शास्त्रीय नहीं। किसी के द्वारा शास्त्रीय परिभाषा का सरल अर्थ करने का प्रयास है।

जब आप स्वाध्याय कर ही रहें है तो मूल ग्रंथों से क्यों नहीं करते? क्योंकि मेरा अनुभव है कि अधिकतर वर्तमानकालीन प्रसिद्ध विद्वान लेखकों के लेखन में भी आचार्य अपेक्षा सावधानी बहोत कम है। जिससे वाचक द्वारा ऐसे विरोध अर्थ करने की गलती हो ही जाती है। वह अर्थ समझने में उलझन उत्पन्न करती है। उससे भी बढ़कर कभी समझ में गलतियों को और दृढ़ कर देती है। आपकी यह उलझन उसीका स्पष्ट दृष्टांत है।

अब देखिए आपने “अटकना” शब्द का अर्थ करना चाहा। अब मूल परिभाषा में “अटकना” शब्द है ही नहीं। यह परिभाषा को सरल करने के प्रयास में लेखक द्वारा अधिक दिया गया शब्द है जो आपको उलझन करा रहा है। और गलती भी।

अटकना का अर्थ किया एकत्व, और अपनी ही (राग-द्वेष) पर्याय से एकत्व को माना मिथ्यात्व। और फिर यहाँ वाचक (आप) अटका क्योंकि मिथ्यात्व ज्ञानी को है नहीं और (भाव) बन्ध तो है।

तो प्रथम तो अपनी पर्याय से एकत्व को मिथ्यात्व नहीं कहते, चाहे वह मोह राग द्वेषरूप अशुद्ध ही क्यों न हो।

जो जिसका हो उसे उसका कहना-मानना मिथ्या नहीं। फिर उसे मिथ्यात्व कैसे कहाँ? वह वाचक की गलती हुई, एक अधिक शब्द का अर्थ करने के प्रयास में।

जब कि मूल परिभाषा निम्नलिखित है।

प्रवचनसार/175
जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है, वह जीव उनके द्वारा बंधरूप है।

यहाँ से स्पष्ट ही है कि मोह राग द्वेष के एकत्व द्वारा नहीं किन्तु मोह राग द्वेष के द्वारा जीव स्वयं बन्धरूप है।

अब कुछ और भी emphasis कर रही हूं।

आपने अटकना जो अधिक शब्द है परिभाषा में उसे समझने के लिए मोह राग द्वेष जो कि बन्ध पर्याय है उसमें अटकना अर्थात एकत्व करना मिथ्यात्व माना और उस एकत्व को भाव बन्ध माना। किन्तु आचार्य ने तो बन्ध पर्याय से इतना अभेदत्व/एकत्व किया है कि जीव को ही बन्धरूप कहा है।

जब आचार्य अभेदत्व कर रहे है तब पर्याय में एकत्व करने से मिथ्यात्व ऐसा कोई कैसे कह सकते है? बड़ा आश्चर्य है। क्या आचार्य में भी मिथ्यात्व दिखता होगा? या फिर अब आचार्य का अस्वीकार भी नहीं हो सकता और साथ में अपनी वात की सिद्धि रखने के लिए प्रमाण और द्रव्यार्थिक नय में जिस प्रकार का अंतर ही नहीं वैसा अंतर देखकर भ्रमित होना है?

क्योंकि प्रमाण मात्र पर्याय से अतरगर्भित द्रव्य ऐसे अभेदत्व मात्र को नहीं देखता।

वह पर्याय से अंतरगर्भित द्रव्य ऐसे अभेद एवं पर्याय ऐसे भेद, दोनों को देखता है। द्रव्यार्थिक नय ही मात्र पर्याय से अंतरगर्भित द्रव्य ऐसे अभेद को देखता है। पर्याय से भिन्न द्रव्य कोई नय नहीं।

और यहां प्रवचनसार में आचार्य ने जीव को बन्धरूप देख पर्याय से अन्तरगर्भित द्रव्य ऐसा अभेदत्व ही किया है जो द्रव्यार्थिक नय एवं निश्चय कथन है। प्रमाण नहीं।

यह समझने की बहोत जरूर है क्योंकि जब तक प्रमाण का द्रव्य, द्रव्य+पर्याय और द्रव्यार्थिक का द्रव्य, द्रव्य - minus पर्याय ऐसी व्याख्या मन में दृढ़ है, आपकी समझने की शक्ति अच्छी होने पर भी आप आचार्य को समझ नहीं पाएंगे। क्योंकि आचार्य ने ऐसा लिखा नहीं और आपकी नजर प्रमाण और द्रव्यार्थिक की ऐसी गलत परिभाषा से अंजन होकर आचार्य के कथन का वहीं अर्थ करने की कोशिश करती रहेगी। और उलझन होती रहेगी।

सोचकर गलती सुधारियेगा।

काल अपेक्षा…
(पर्याय पर्याय पर्याय…)= द्रव्य () का अर्थ सभी भेद अंतरगर्भित प्रवाह, एकत्व। यह हुआ द्रव्यार्थिक नय।

पर्याय पर्याय पर्याय… । यह हुआ पर्यायार्थिक नय।

(पर्याय पर्याय पर्याय…) =द्रव्य & पर्याय पर्याय पर्याय… दोनों साथ देखना, यह हुआ प्रमाण।

क्षमा चाहती हूँ कि आपको सीधा मूल उत्तर नही देते हुए विस्तार कर रही हूँ, किन्तु यह आवश्यक है, इसलिए विषयांतर नहीं।

आपको अत्यंत साधर्मी वात्सल्य से आग्रहपूर्वक अभ्यास मूल ग्रंथ से करने की सलाह दे रही हूं, क्योंकि आपके आ रहें अधिकतर प्रश्न में आपकी उलझन का कारण मूल ग्रंथ छोड़ अन्य का अभ्यास स्पष्ट दिखता है।

बहुमान तो मुजे भी सभी ज्ञानी-गुरु-विद्वानों का हैं। किंतु उनकी शाब्दिक असावधानी को जीवंत रखने के लिए आचार्य से विरोध करना उन ज्ञानी-विद्वानों का भी हार्द नहीं।

अपने व्यकितगत अनुभव से कह रही हूं कि ऐसी भाषाकिय असावधानी को छोड़ कर जब में दृढ़ता से मात्र आचार्य की बातों को स्वीकार करती हूँ तो ज्ञानी-गुरु मुजसे प्रसन्न ही है। कोई चाहे मुजे उन असावधानी भरे शब्दो को छोड़ते हुए देख, गलती से ऐसा समझ ले की मैं उनकी बात का विरोध करती हूं किन्तु वे ज्ञानी-गुरु मुजे उनका विरोधी नहीं समझते।

आचार्य द्वारा पूर्ण सावधानी से लिखी गई भावबन्ध की अन्य व्याख्याए इस प्रकार है।

राजवार्तिक/2/10/2/124/24 क्रोधादि परिणाम भावबंध है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/9 कर्म को परतंत्र करने वाले आत्मपरिणामों का नाम बंध-भावबंध है ।

द्रव्यसंग्रह 32 जिस चेतन परिणाम से कर्म बँधता है, वह भावबंध है ।32।

द्रव्यसंग्रह टीका/32/91/10 मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप अशुद्ध चेतन भावस्वरूप जिस परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं वह परिणाम भावबंध कहलाता है ।

प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/177 खोलकर पढियेगा। और उसमें ध्यान रखिएगा की वहां एकत्व परिणाम लिखा है एकत्व बुद्धि नहीं। और पुद्गल को भी एकत्व परिणाम लिखा है। जिससे अर्थ स्पष्ट है कि उस रूप होकर परिणमना। उसे एकत्व परिणाम लिखा है। मोह परिणाम तो मिथ्यात्व है किन्तु अपने मोह परिणाम से एकत्व बुद्धि मिथ्यात्व नहीं।

आपने आगे पूछा है कि

फिर से पूछ रही हूं कि पर्यायों को एक दूजे से निरपेक्ष देखने का प्रयोजन क्या है?

किसी व्यक्ति विशेष के वचन/प्रसिद्धि से प्रभावित होकर सात तत्व में एक एक पर्याय की निरपेक्षता तो नहीं ढूढ रहे ना? ध्यान दीजियेगा की आचार्य की परिभाषाएं तो कर्म सापेक्ष प्राप्त हो रही है। निरपेक्ष नहीं।

जैसा मैंने शुरू में लिखा कि मुख्य रूप से साततत्त्व वह कर्मों का परिणाम है। जीव के परिणाम को उनके सापेक्षता से वह वह नाम प्राप्त होता है। और बरसा अणुवेक्खा में तो संवर निर्जरा एक ही परिणाम से बताया है। निरपेक्षता तो दूर रहीं एक ही कह दिया।

शुद्धि और उसकी वृद्धि ऐसे दो भाव नहीं है। शुद्धि कभी वृद्धि रूप होती है कभी हानिरूप भी होती है। जैसे कि 4थे गुणस्थान में होते हुए भी शुद्धि में वृद्धि एवं हानि होती है। तब तो शुद्धोपयोग होता है और छूटता है। शुद्धि की हानि में शुद्धि होने से वह संवर भाव रूप तो है किंतु निर्जरा रूप नहीं। वृद्धि संवर निर्जरा दोनों रूप है। वृद्धि, हानि पर्याय के सापेक्ष दृष्टि से ही दिखती है। और वह वृद्धि, निर्जरारूप कर्म सापेक्षता से दिखती है। उसे निरपेक्ष देखेंगे तो न वह वृद्धि दिखेगी, ना उसको निर्जरा संज्ञा प्राप्त होगी।

द्रव्य संग्रह में भाव निर्जरा का स्वरूप लिखा है कि जीव के जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीव के परिणाम भाव निर्जरा हैं और जो कर्म झड़ते हैं वह द्रव्य निर्जरा है।

उसी तरह पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति में भी लिखा है कि कर्मशक्ति के निर्मूलन में समर्थ जीव का शुद्धोपयोग तो भाव निर्जरा है। उस शुद्धोपयोग की सामर्थ्य नीरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलों का संवरपूर्वकभाव से एकदेश क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है।

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उत्तर के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। काफ़ी स्पष्टता आयी है इस उत्तर है - विस्तार से उत्तर समय मिलने पर, और विचार करने पर लिखूँगा।

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