पंचम काल में (भावलिंगी) मुनिराज continuously नहीं होते है। और जब होते भी है तो सामान्य लोगों की दृष्टि में नहीं आते है। जैसे अभी का काल है जब मुनिराज हैं भी तो हमें नहीं पता।
इस तरह से जब भावलिंगी मुनिराज होंगे, तो सर्वप्रथम दीक्षा कैसे होगी? अर्थात अगर कुछ वर्षों तक मुनियों का अभाव हो, फिर वापस से मुनि परंपरा शुरू हो, तो उनमें से पहले मुनि कैसे दीक्षा लेंगे? क्योंकि उस समय कोई आचार्य तो होंगे नहीं। क्या केवल तीर्थंकर भगवान ही बिना आचार्य के दीक्षा ले सकते है या सामान्य मुनि भी? कृपया समाधान करें।
परमार्थ कथन
जब जब कषायों की मन्दता होती है अर्थात अनन्तानुबन्धी,अप्रत्याख्यान,का अनुदय और प्रत्याख्यान कषाय का सबसे मन्द अवस्था जब जीव में हो उस समय मुनि दीक्षा के परिणाम हो जाते है और मात्र संज्वलन के उदय में दीक्षा हो ही जाती है इसमे बाहर संयोग कैसे भी हो यदि कार्य उपादान में हुआ है तब बाहर के संयोग पर निमित्तरूप आरोप हो जायेगा।
यहाँ बाहर के संयोग के ऊपर (निमित्त) से ही उपादान में कार्य होगा ऐसा समझना उचित नही है ऋषभदेव भगवान के दीक्षा अवस्था मे भी उन्हें देखकर भी अन्य राजा दीक्षा अवस्था मे शिथिलाचारी हो गये थे क्योंकि उनकी कषाये उतनी मन्द नही थी।
ऐसा ही यहाँ लगाना।
उपचार कथन
यदि आचार्य परम्परा नहीं भी चल रही हो परंतु भगवान की वाणी जिनवाणी तो उपलब्ध है ही उसे पढ़कर भी जीसी कषाय उतनी मन्द हो जाएगी तब वह जिन प्रतिमा या जिनवाणी समक्ष भी दीक्षा ग्रहण कर सकते है।
एवम भाव लिंगी द्रव्यलिंगी बन सकते है।
वास्तव में हम सब मे कषाये उतनी तीव्र पड़ी हुई है इसीलिए पंचमकाल,बाहर संयोग नही होना आदि पर आरोप देते है।ऐसा समझना
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