केवली के असाता का उदय कैसे है?

मोक्षमार्ग प्रकाशक - तीसरा अधिकार, पृष्ठ 60 (टोडरमल स्मारक प्रकाशन प्रति)

केवलीके साता - असाताका उदय भी है और सुख - दुःखके कारण सामग्रीका संयोग भी है; परन्तु मोह के अभावसे किंचित् मात्र भी सुख- दुःख नहीं होता। इसलिये सुख - दुःख को मोहजनित ही मानना।

केवली के असाता का उदय कैसे है, कृपया स्पष्ट करें।

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सूक्ष्म साम्पराय ११वे,उपशांतमोह १२ वे औरवीतराग क्षीणकषाय गुणस्थानों में १४ परिषह ही होते है !इन गुणस्थानों में निम्न १४ परिषह होती है! क्षुधा,तृषा,शीत,उष्ण दंशमशक,चर्या,शय्या,वध,अलाभ,रोग,तृणस्पर्श,मल,प्रज्ञा और अज्ञान!

:open_book: शंका -११वे और १२वे गुणस्थान में तो मोहनीय कर्म का पूर्णतया क्षय होने के कारण ,उसके उदय में होने वाले ८ परिषह नही होते किन्तु दसवे गुणस्थान में तो मोहनीय कर्म के संज्वलन लोभ का उदय होता है फिर ये ८ परिषह क्यों नहीं होते ?

:open_book: समाधान-१० वे गुणस्थान में चूँकि संज्वलन लोभ कषाय का अत्यंक सूक्ष्म उदय रहता है इसलिए वह भी वीतराग छद्मस्थ के तुल्य है ,अत; मोहनीय कर्म के उदय में होने वाली ८ परिषह वहां नहीं होती !

:open_book: शंका -इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता नही होने से और मंद उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है इसलिए इनके कार्य रूप से 'परिषह सज्ञा युक्ति को प्राप्त नहीं होती !

:open_book: समाधान-ऐसा नहीं है क्योकि यहाँ शक्ति मात्र विवक्षित है ! जिस प्रकार सर्वार्थ सिद्धि के देव के सातवी पृथ्वी तक गमन के सामर्थ्य के निर्देश उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए !सयोगकेवली १३ वे गुणस्थान में परिषह -एकादशजिने!!११ !!

:scroll: सन्धिविच्छेद -एकादश+जिनेशब्दार्थ-एकादश-ग्यारह परिषह संभव है ,जिने-जिनेन्द्र के अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के ११ परिषह होती है

:scroll: भावार्थ -संयोग केवली ,१३वे गुणस्थान में जिनेन्द्र भगवान के उक्त १४ परीषहों में से अलाभ,प्रज्ञा और अज्ञान के अतिरिक्त शेष ११ परिषह होती हैविशेष -जिनेन्द्र भगवान ने यद्यपि चार घातिया कर्मों का क्षय कर लिया है किन्तु वेदनीय कर्म का सद्भाव होने के कारण उसके निमित्तक ११ परिषह होते है !

:scroll: शंका -केवली ११ परिषह में क्षुधा /प्यास भी है तो उन्हें भूख प्यास की बांधा होनी चाहिए ?

:scroll: समाधान-मोहनीय कर्म के क्षय के कारण,मोहनीय कर्म के उदय का अभाव होने पर वेदनीय कर्म में भूख-प्यास की वेदना उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रहती है!घतिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न चतुष्टाय से युक्त केवली भगवान के अंतराय कर्मों का अभाव हो जाता है और निरंतर शुभ नो कर्म वर्गणाओं का संचय होता है इन परिस्थितियों में निसहाय वेदनीय कर्म अपना कार्य नहीं कर पाता इसलिए केवली भगवान को भूख /प्यास की वेदना नही होती !केवली के वेदनीय कर्म का सद्भाव है इस अपेक्षा उपचार से उनके ११ परिषह कहे गए है वास्तव में उनके एक भी परिषह नहीं होता !युक्ति पूर्वक प्रमाण, केवली भगवन के क्षुधा,पिपासा आदि परिषह नहीं होते!

:scroll: १-केवली जिन के शरीर में निगोदिया और त्रस जीव का अभाव १२ वे,क्षीणमोह गुणस्थान में,में होकर वे परमौदारिक शरीर के धारक हो जाते है!अत:भूख,प्यास ,रोगादि के कारणों का अभाव होने के कारण से उन्हें इनकी बाधा/वेदना नहीं होती !देवों के शरीर में इन जीवों के अभाव में जी विशेषता होती है ,उससे अनंत गुणी इनके शरीर में होती है !

२-श्रेणी आरोहण पर प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा प्रति समय बढ़ता है और अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग प्रति समय अनंत गुणा घटता जाता है !इसलिए १३ वे गुणस्थान में असाता वेदनीय प्रकृति का उदय इतना प्रबल ही नहीं रहता की वह शुद्धि /पिपासा आदि परिषह से पीड़ित कर जिससे उसे क्षुधादि जैसे कार्य का सूचक माना जा सके!

३- असता वेदनीय की उदीरणा छट्ठे गुणस्थान तक ही होती है,आगे नही ,इसलिए उदीरणा के अभाव में वेदनीय कर्म क्षुधादि का वेदन करवाने में असमर्थ है !जब केवली जिन के शरीर को पाने/भोजन की आवश्यकता ही नहीं है ,तो इनके नहीं मिलने पर उन्हें शुधा /तृषा आदि कैसे हो सकती है !!वेदनीय कर्म का कार्य शरीर में पानी और भोजन तत्व का अभाव करना नहीं है उनका अभाव अन्य कारणों से होता है !हा इनके अभाव में जो वेदना होती है वह वेदनीय कर्म का कार्य है!अब केवली जिन के शरीर को उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती तब वेदनीय कर्म के निमित्त से तज्जनित वेदना कैसे हो सकती है !

४-केवली जिन के साता का आस्रव सदा काल होने से उसकी निर्जरा भी सदा काल होती है !इसलिए जिस काल में असाता का उदय होता है ,उस काल में सिर्फ उसी का उदय नहीं होता बल्कि उसके साथ अनन्तगुणी साता के साथ वह उदय में आता है ! यद्यपि उसका स्वमुख उदय होता है किन्तु वह प्रति समय बंधने वाले कर्म परमाणुओं की निर्जरा के साथ होता रहता है !इसलिए असाता उदय वहां शुद्धादि रूप वेदना का कारण नहीं होता !

५- सुखदुख का वेदन का कार्य वेदनीय कर्म का है किन्तु मोहनीय कर्म के अभाव में नहीं होता अर्थात मोहनीय कर्म की सहायता के बिना सुख दुःख का वेदन कराने में वेदनीय कर्म असहाय है !केवली जिन के मोहनीय कर्म का अभाव होता है अत:क्षुधा,पिपासा रूप वेदनाओं का सद्भाव होना युक्तिसंगत नहीं है !उक्त पांच प्रमाणों से प्रमाणित होता है कि केवली भगवंतों को शुद्धादि ११ परिषह नहीं होते !

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धन्यवाद। उपरोक्त कहाँ से लिया है?