अधिक दोष किसमें?

जिमीकंद खाने में ज्यादा दोष है या अमर्यादित भोजन में?

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यह वैसे ही पूछने के समान है कि जहर खा कर मरना अच्छा है या पहाड़ से कूद कर?
वास्तविकता में, जहाँ घात होने वाले जीवों की संख्या अनंत तक हो, वहाँ असंख्यात जीवों के घात की अपेक्षा अधिक दोष होगा।
अब, जमींकंद तो अनंत जीवों के निवास स्थान हैं ही; सूक्ष्मता से विचार करने पर अमर्यादित भोजन में अगर अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है, तो वह भी जमींकंद समान अभक्ष्य होगा।

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परंतु अभक्ष्य भक्षण में त्रस जीवों का घात है और जिमीकंद में स्थावर जीवों का घाट है। त्रस जीवों में प्राणों की अधिकता होने से ज्यादा दोष होना चाहिए। जब कि पहले जिमीकंद को छोड़ने की बात बताई जाती है।

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दोष गृद्धता और प्रमाद चर्या में अधिक है। यदि अधिक आसक्त होकर दोनो में से कम जीवों वाला भोजन भी किया जाए तो पाप अधिक लगेगा। क्योंकि फल अभिप्राय का लगता है।
कोई पूछ सकता है कि क्या क्रिया का कोई दोष नही है??? फिर तो हम अभिप्राय में यही सोचेंगे कि जीवों का घात न हो , ओर क्रिया के तौर पर खा लेंगे। फिर तो पाप नही लगेगा???
नही, ऐसा नही है। आचरण का भी यथायोग्य पाप लगता ही है। लेकिन यदि अभिप्राय में कोई विकार न हो और गलती से किसी जीव की हिंसा हो जाये तो उसका पाप इतना नही लगता जितना प्रमाद और गृद्धता में लगता है । और क्रिया भी प्रायः अभिप्राय और परिणामो के अनुसार ही होती है।
जैसे कि मुनिराज के द्वारा यदि देखकर चलने में भी किसी जीव की हिंसा हो जाये तो उन्हें उसका पाप नही लगता। उसी प्रकार यहाँ भी समझना।
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सिद्धांत के अनुसार जिसमे अधिक जीव है उसके भक्षण में अधिक पाप लगता है। अतः स्थावर के अपेक्षा त्रस भक्षण में दोष अधिक है।

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हाँ ये सब सही लगा पर last line समझ नही आयी क्योंकि हमें करणानुयोग के शिविर में प्रकाश भैया ने पढ़ाया था कि त्रस जीवों में अधिक प्राण होने के कारण वहां दोष अधिक है। जितने प्राण ज्यादा, उतना दोष बढ़ेगा।

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यही तो last line में लिखा है। कि स्थावर की अपेक्षा त्रस में दोष अधिक है।

Oh haan sorry, पर जीन संख्या के अनुसार जिमीकंद में ज्यादा है।
तोह त्रस जीव जहां हो वहां ज्यादा दोष मानना। ऐसे?

हाँ प्राणों के अपेक्षा दोष अधिक लगता है ।

तो पहले जिमीकंद छोड़ने पे इतना ज़ोर क्यों दिया जाता है? पहले तो अमर्यादित भोजन के त्याग का नियम दिलाना चाहिए, उसपे ज़ोर देना चाहिए।

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जमीकंद में आसक्ति अधिक होती है। उसे खाने का राग अधिक होता है इसलिए पहले उसके त्याग का उपदेश देते हैं। साथ ही साथ अनंत जीवों का पिंड होने से प्रथम तो वह त्यागने योग्य है ही।
लेकिन यदि किसी को इतना विवेक हो कि वह अपने हिताहित का विचार कर सकता हो तो उसे तो दोनों का त्याग एक साथ ही कर देना चाहिए।
दूसरी बात अमर्यादित भोजन अलग अलग काल की सीमा को लिए होता है। कुछ जल्दी ही अमर्यादित हो जाते हैं तो कुछ अधिक समय पाकर। लेकिन जमीकंद तो सदैव ही जीव सहित है , इसलिए भी उसके त्याग के उपदेश पर जोर दिया जाता है।

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Hmm okay. I think ye bhi reason ho sakta hai ki jaise pehle Tirthankar bhagwan ke samay ya keh lo chaturth kaal me amaryadit bhojan toh koi karta hi nahi tha, sab maryada purvak hi karte the aur roz muniraj aadi ki pratiksha karke phir hi bhojan karte the isliye wahan amaryadit ki baat aayi hi nahi. Ye bhi ho sakta hai.

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