As per वृह्द द्रव्य संग्रह (गाथा ६ की टीका), कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि ज्ञान असदभूद व्यवहार नय का विषय बताया गया हैं परन्तु वह जीव की पर्याय होने के कारण सदभूद व्यवहार नय का विषय होना चाहिए। कृपया स्पष्ट कीजिये।
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ज्ञान आत्मा का है, तथापि परद्रव्य को जान रहा है इसीलिए असद्भूत । इसीप्रकार की कुछ विवक्षा पंचाध्यायी में भी पायी जाती है | देखें परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृ. 152-167
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उसमें भी अप्रयोजनभूत विषयों के जानने में लगा हुआ है, सो यह ज्ञान का दोष है, अतः कुमति और कुश्रुत, और इसीलिए उपचरित
क्षयोपशम ज्ञान जहाँ लगता है वहाँ एक ज्ञेय में लगता है, और इस मिथ्यादर्शन के निमित्त से वह ज्ञान अन्य ज्ञेयों में तो लगता है, परन्तु प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करने में नहीं लगता । सो यह ज्ञान में दोष हुआ; इसे मिथ्याज्ञान कहा । (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. 88)
- ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध को वैसे भी अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय का विषय कहा गया है । ¹
¹ “सोऽपि संबंधाविनाभावः, संश्लेषः संबंधः, परिणामपरिणामिसंबंधः, श्रद्धाश्रद्धेयसंबंधः, ज्ञानज्ञेयसंबंधः, चारित्रचर्यासंबंधश्चेत्यादिः ।” - आलाप पद्धति, पृ. 227 (as quoted in परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृ. 146)
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यहाँ 2 प्रकार का विभाजन किया है। 1- मति, श्रुत ज्ञान। 2- कुमति, कुश्रुत ज्ञान। पर्व की पंक्ति में ज्ञान , दर्शन को उपचरित सद्भूत व्यवहार का विषय कहा है। यहाँ मति(सम्यक) ज्ञान को लेना।ऐसा प्रयोग्य गाथा 3 में भी किया है।
परंतु गाथा 6 में कुमति को लिया है। कुमति ज्ञान का विषय पर ही बनता है।इसलिए यहाँ विषय को मुख्य करके उपचरित अशद्भूत व्यवहार नय कहा है।
प्रश्न:- कुमति का विषय तो देह भी बनता है, इसलिए अनुपचरित कहना था?
उत्तर:- अनुपचरित असद्भूत व्यवहार भी कह सकते हैं, क्योंकि आचार्य जयसेन स्वामी पंचास्तिकाय संग्रह की गाथा 58 में लिखते हैं-
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कुमति, कुश्रुत और कुअवधि क्षायोपशमिक भाव के भेद है, औदयिक भाव के नहीं ।
औदयिक अज्ञान केवलज्ञान के अभाव रूप अज्ञान है जो बारहवें गुणस्थान तक रहेगा ।
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अप्रतिम!!!
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