सम्यक्त्व जयंती

जब मिथ्यात्व एवम अनन्तानुबन्धी का उदय नही तब सम्यक्त्व होता है।

ये कर्म प्रकृति का उदय कोनसे समय मे है और कोनसे समय मे नही है जैसे मुनिराज को कोनसे समय 6ठवा गुणस्थान और कोनसे समय सातवां गुणस्थान है यह सामान्य छद्मस्थ जीवो को ख्याल में नही आता यह तो विशेष अवधिज्ञानी या केवली के ही ज्ञान गोचर होता है।

तो फिर यदि कोई कहे कि मुजे सम्यकदर्शन हो गया या किसीने कहा कि इनको सम्यकदर्शन हो गया तो यहाँ पर हमें यह समझना की यह स्थूल कथन है जैसे सामान्य रूप से देव शास्त्र गुरु का श्रद्धान को सम्यकदर्शन कहते है।परंतु वह परमार्थ नही समझना परमार्थ तो मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी का उदय नही होना वही है।इसी तरह यहां स्थूल रूप में समझना जो आत्मानुभव का कहा जाता है उसमें भी मन्द कषाय होने पर भी आत्मानुभव का भृम हो सकता है परमार्थ तो कर्म प्रकृति वाला ही समझना परंतु कथन के रूप में स्थूल रूप में कह सकते है। अब दूसरे देवी देवता पर श्रद्धान नहीं है इसलिए स्थूल रूप में सम्यकदर्शन कह दिया।

यहाँ पर आत्मनुभव रूप सम्यक्त्व का दावा करने वाले उस जीव की मायाचारी नही है परंतु भृम भी हो सकता है,और सही भी हो सकता है।

ऐसे सम्यक्त्व को कोई परमार्थ कथन नहीं समझना क्योंकि कर्म प्रकुति उनके ज्ञान गोचर नही है।

कुल मिलाकर सम्यक्त्व की जयंती मनाना कोई उचित नही लग रहा क्योंकि अन्तरमुहरत में वापस मिथ्यात्व में भी आ सकता है और अर्धपुद्गल परावर्तन (अनंत काल) तक मिथ्यात्व में भी रह सकता है।और ऐसा विचार करेंगे तो कितने ही देव,नारकी,तिर्यंच, मनुष्य हर अन्तरमुहरत मैं सम्यकत्व होता रहता है कितनो का उत्सव मनाएंगे? असंखयात तिर्यच तो इससे भी ऊपर पंचम गुणस्थान वर्ति है उनकी उत्सव भी मनाएंगे ?वापस अंतरमूहरत में मिथ्यात्व में आ गए तो?

और प्रथमानुयोग से भी ख्याल में आता है कि एक भी जीव की क्षायिक सम्यकत्व होने पर भी उत्सव नही मनाते थे जब कि वहाँ पर भगवान की वाणी से पक्का निर्णय हुआ है इस जीव को क्षायिक सम्यक्त्व हुआ है।

विचारना…

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