प्रश्न 1 :अंतराय कर्म घातिया कर्म का भेद है, एवं घातिया कर्म वे होते हैं जो कि जीव के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त होते हैं,
सो अंतराय कर्म के भेद,क्रमशः(दान-,लाभ-, भोग-, उपभोग-, वीर्य-) - अंतराय, ये जीव के अंतरंग गुण(ज्ञान, दर्शनादि) के दान,लाभ,भोगादि में बाधक होना चाहिए, ज्ञानादि गुणों के दान, लाभ, भोगादि में ही क्षयोपशम रूप होना चाहिए, परन्तु सामान्यतः दान, लाभ, भोगादि को जीव की “इच्छानुसार (उत्साह से) वस्तुओं के दान, लाभ, भोगादि का होना, मिलना” अर्थात्
दृष्टांत :
(जीव के दानांतराय कर्म का उदय होने पर मनुष्य जीव दान देने में असक्षम) बताया जाता है
, तो यहाँ दान, लाभ, भोगादि परपदार्थो में होते हैं या फिर जीव के अनुजीवी गुणों में, स्पष्ट किजिये।
(अगर ऐसा कहैं कि, पर पदार्थों में, तो फिर चक्रवर्ती should have more क्षयोपशम than मुनिराज…)
प्रश्न 2 : जीव के अंतराय कर्म का क्षयोपशम 12 गुणस्थान तक होता है, परन्तु भावदीपिका जी में परिभाषा अनुसार “जीव के उत्साह कहिये या इच्छा होय, उस अनुसार वस्तुओं का दान, लाभ, भोगादि रूप क्षयोपशम होय”, जबकि इच्छा एवं उसका विकल्प तो 10 गुणस्थान तक होता है, तो अंतराय का क्षयोपशम 10वें गुणस्थान तक होना चाहिए।
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