तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 1

तीन दोषों से रहित अव्याप्ति अतिव्याप्ति और असंभवि

और जो आत्मा का लक्षण

यानी दोष और लक्षण दोनों ही मुझे कुछ समझ नहीं आया। उदाहरण से समझायें :blush:

संक्षिप्त में

अतिव्याप्ति - अमूर्तिक आत्मा ही होता है ऐसा कहना यह लक्षण कहना यह अतिव्याप्तिमें आएगा क्योंकि अन्य धर्म,अधर्म,आकाश ,काल मे भी यह लक्षण है।

अव्याप्ति - आत्मा केवलज्ञान या सम्यक्त्व युक्त ही है।
लक्षणवाला कहना यह अव्याप्ति में आएगा क्योंकि यह लक्षण सभी आत्मद्रव्य मे नही पाया जाता।

असम्भव - आत्मा अचेतन है यह असंभव दोष में आएगा

इस तरह सभी मे लगाना

1 Like

इसका ‘लक्षण और लक्षणाभास’ पाठ पढ़ें :

1 Like

[लक्षण और लक्षणाभास]

प्रवचनकार:- किसी भी वस्तु को जानने के लिए उसका लक्षण (परिभाषा) जानना बहुत आवश्यक है, क्योंकि बिना लक्षण जाने उसे पहिचानना तथा सत्यासत्य का निर्णय करना सम्भव नहीं है। वस्तुस्वरूप के सही निर्णय बिना उसका विवेचन असम्भव है; यदि किया जायेगा तो जो कुछ भी कहा जायेगा, वह गलत होगा। अतः प्रत्येक वस्तु को गहराई से जानने के पहिले उसका लक्षण जानना बहुत जरूरी है।

जिज्ञासु:- लक्षण जानना आवश्यक है। यह तो ठीक है, पर लक्षण कहते किसे हैं? पहले यह तो बताइये।

प्रवचनकार:- तुम्हारा प्रश्न ठीक है। किसी भी वस्तु का लक्षण जानने से पहिले लक्षण की परिभाषा जानना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि हम लक्षण की परिभाषा ही न जानेंगे तो फिर विवक्षित वस्तु का जो लक्षण बनाया गया है, वह सही ही है इसका निश्चय कैसे किया जा सकेगा।

अनेक मिली हुई वस्तुओं ( पदार्थों में से किसी एक वस्तु (पदार्थ) को पृथक् करने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं।’ जैसा कि अकलंकदेव ने राजवार्तिक में कहा है : " परस्पर मिली हुई वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा अलग की जाती है, उसे लक्षण कहते हैं।

जिज्ञासु:- और लक्ष्य ?

प्रवचनकार:- जिसका लक्षण किया जाए, उसे लक्ष्य कहते हैं। जैसे- जीव का लक्षण चेतना है, इसमें ‘जीव’ लक्ष्य हुआ और ‘चेतना’ लक्षण । लक्षण से जिसे पहचाना जाता है, वही तो लक्ष्य है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं - आत्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण ।


१. “व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्"-न्यायदीपिका वीर सेवा मंदिर, सरसावा पृष्ठ ५ "

२.परस्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्। -
न्यायदीपिका वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, पृष्ठ ६


जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो, उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं । जैसे- अग्नि की उष्णता । उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई जलादि पदार्थों से उसे पृथक् करती है, अतः उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है।
‘जो लक्षण वस्तु से मिला हुआ न हो, उससे पृथक् हो, उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं।’ जैसे:- दण्ड वाले पुरुष (दंडी ) का दण्ड। यद्यपि दण्ड पुरुष से भिन्न है, फिर भी वह अन्य पुरुष से उसे पृथक् करता है, अतः वह अनात्मभूत लक्षण हुआ।

राजवार्तिक में भी इन भेदों का स्पष्टीकरण इसी प्रकार किया है 'अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है।

आत्मभूत लक्षण वस्तु का स्वरूप होने से वास्तविक लक्षण है; त्रिकाल वस्तु की पहिचान उससे ही की जा सकता है। अनात्मभूत लक्षण संयोग की अपेक्षा से बनाया जाता है, अतः वह संयोगवर्ती वस्तु की संयोगरहित अन्य वस्तुओं से भिन्न पहिचान कराने का मात्र तत्कालीन बाह्य प्रयोजन सिद्ध करता है। त्रिकाली असंयोगी वस्तु का ( वस्तुस्वरूप ) निर्णय करने के लिए आत्म भूत ( निश्चय ) लक्षण ही कार्यकारी है। प्रसंयोगी आत्मतत्त्व का ज्ञान उससे ही हो सकता है।

किसी भी वस्तु का लक्षण बनाते समय बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है, क्योकिं वही लक्षण आगे चलकर परीक्षा का आधार बनता है। यदि लक्षण सदोष हो तो वह परीक्षा की कसौटी को सहन नहीं कर सकेगा और गलत सिद्ध हो जावेगा।

शंकाकार:- तो लक्षण सदोष भी होते हैं ? -

प्रवचनकार:- लक्षण तो निर्दोष लक्षण को ही कहते हैं। जो लक्षण सदोष हों, उन्हें लक्षणाभास कहा जाता है। लक्षणाभासों में तीन प्रकार के दोष पाये जाते हैं।

(१) अव्याप्ति ( २ ) अतिव्याप्ति और (३) असम्भवदोष ।


३. 'तत्रात्मभूतमग्नेरौष्ण्यमनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः। ’

न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा, पृष्ठ ६


लक्षण के एकदेश में लक्षण के रहने को अव्याप्ति दोष कहते हैं । जैसे: गाय का लक्षण सांवलापन या पशु का लक्षण सींग कहना। सांवलापन सभी गायों में नहीं पाया जाता है, इसी प्रमाण सींग भी सभी पशुओं के नहीं पाये जाते हैं; अतः ये दोनों लक्षण अव्याप्ति दोष से युक्त हैं।

शंकाकार:- यदि गाय का लक्षण सींग मानें तो .?

प्रवचनकार:- तो फिर वह लक्षण अतिव्याप्ति दोष से युक्त हो जावेगा; क्योंकि जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में रहे, उसे अतिव्याप्ति दोष से युक्त कहते हैं।

जिज्ञासु:- यह अलक्ष्य क्या है ?

प्रवचनकार:- लक्ष्य के अतिरिक्त दूसरे पदार्थों को अलक्ष्य कहते हैं। यद्यपि सब गायों के सींग पाये जाते हैं, किन्तु सींग गायों के अतिरिक्त अन्य पशुओं के भी तो पाये हैं। यहाँ ‘गाय’ लक्ष्य है और ‘गाय को छोड़कर अन्य पशु’ अलक्ष्य है, तथा दिया गया लक्षण 'सींगों का होना ‘लक्ष्य’ गायों और ‘अलक्ष्य’ गायों के अतिरिक्त अन्य पशुओं में भी पाया जाता है। अतः यह लक्षण अतिव्याप्ति दोष से युक्त है।

लक्षण ऐसा होना चाहिये जो पूरे लक्ष्य में तो रहे, किन्तु अलक्ष्य में न रहे। पूरे लक्ष्य में व्याप्त न होने पर अव्याप्ति और लक्ष्य व अलक्ष्य में व्याप्त होने पर अतिव्याप्ति दोष आता है।

जिज्ञासु:- और असंभव ?

प्रवचनकार:- लक्ष्य में लक्षण की असम्भवता को असंभव दोष कहते हैं। जैसे- मनुष्य का लक्षण सींग। यहाँ मनुष्य लक्ष्य है और सींग का होना लक्षण कहा जाता है, अतः यह लक्षण असम्भव दोष से युक्त है।


१ “ लक्ष्यैकदेशवृत्यव्याप्तं यथा - गो: शावलेयत्वं । " -
न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा, पृष्ठ ७

२ ‘लक्ष्यालक्ष्यवृत्यतिव्याप्तं यथा - तस्यैव पशुत्वं।’-
न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा, पृष्ठ ७

३. ‘बाधितलक्ष्यवृत्यसम्भवि यथा नरस्य विषाणित्वम्।’ ३

न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा, पृष्ठ ७


मैं समझता हूँ अब तो लक्षण और लक्षणाभासों का स्वरूप तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ गया होगा।

श्रोता आ गया! अच्छी तरह आ गया !! -

प्रवचनकार: - आ गया तो बताओ जिसमें केवलज्ञान हो, उसे जीव कहते हैं’, क्या जीव का यह लक्षण सही है ?

श्रोता:- नहीं, क्योंकि यहाँ जीव ‘लक्ष्य’ है और केवलज्ञान ‘लक्षण’। लक्षण सम्पूर्ण लक्ष्य में रहना चाहिए, किन्तु केवलज्ञान सब जीवों में नहीं पाया जाता है, अतः यह लक्षण अव्याप्ति दोष से युक्त है । यदि इस लक्षण को सही मान ले तो मति श्रुतज्ञान वाले हम और आप सब अजीव ठहरेंगे।

प्रवचनकार:- तो मतिश्रुतज्ञान को जीव का लक्षण मान लो।

श्रोता:- नहीं ! क्योंकि ऐसा मानेंगे तो अरहंत और सिद्धों को अजीव मानना होगा, क्योंकि उनके मतिश्रुतज्ञान नहीं है। अत: इसमें भी अव्याप्ति दोष है ।

प्रवचनकार:- तुमने ठीक कहा। अब कोई दूसरा श्रोता उत्तर देगा। जो अमूर्तिक हो उसे जीव कहते हैं, क्या यह ठीक है ?

श्रोता:- हाँ, क्योंकि अमूर्तिक तो सभी जीव हैं, अतः इसमें अव्याप्ति दोष नहीं है।

प्रवचनकार:- यह लक्षण भी ठीक नहीं है। यद्यपि इसमें अव्याप्ति दोष नहीं है, किन्तु अतिव्याप्ति दोष है; क्योंकि जीवों के अतिरिक्त आकाशद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और कालद्रव्य भी तो अमूर्तिक हैं। उक्त लक्षण में ‘जीव’ है लक्ष्य और ‘जीव के अतिरिक्त अन्य द्रव्य यानी अजीव द्रव्य’ हुए अलक्ष्य। यद्यपि सब जीव अमूर्तिक हैं, किन्तु जीव के अतिरिक्त आकाशादि द्रव्य भी तो अमूर्त्तिक हैं; मूर्तिक तो एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही है, अतः उक्त लक्षण लक्ष्य के साथ अलक्ष्य में भी व्याप्त होने से अतिव्याप्ति दोष से युक्त है यदि ‘जो अमूर्तिक सो जीव’ ऐसा माना जायेगा तो फिर आकाशादि अन्य चार द्रव्यों को भी जीव मानना होगा।

शंकाकार:- यदि आत्मा का लक्षण वर्ण-गंध-रस स्पर्शवान माना जाय तो ?

प्रवचनकार:- यह बात तुमने खूब कही ! क्या सो रहे थे ? यह तो असम्भव बात है। आत्मा में वर्णादिक का होना सम्भव ही नहीं है। इसमें तो असम्भव नाम का दोष आता है, ऐसे ही दोष को तो असम्भव दोष कहा जाता है।

शंकाकार:- इन लक्षणों में तो अपने दोष बता दिये, तो फिर आप बताइये न कि जीव का सही लक्षण क्या होगा ?

प्रवचनकार:- जीव का सही लक्षण चेतना अर्थात् उपयोग है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा है– ‘उपयोगो लक्षणम्’। न इसमें अव्याप्ति दोष है क्योंकि चेतना (उपयोग ) सभी जीवों के पाया जाता है, और न अतिव्याप्ति दोष है, क्योंकि उपयोग जीव के अतिरिक्त किसी भी द्रव्य में नहीं पाया जाता है, और असंभव दोष तो हो ही नहीं सकता है, क्योंकि सब जीवों के उपयोग (चेतना) स्पष्ट देखने में आता है।
इसी प्रकार प्रत्येक लक्षण पर घटित कर लेना चाहिये और नवीन लक्षण बनाते समय इन बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए ।

श्रोता:- एक-दो उदाहरण देकर और समझाये न ?

प्रवचनकार:- नहीं, समय हो गया है। मैंने एक उदाहरण अंतरंग यानी- आत्मा का और एक उदाहरण बाह्य यानी- गाय पशु आदि का देकर समझा दिया है, अब तुम स्वयं अन्य पर घटित करना। यदि समझ में न आवे तो आपस में चर्चा करना। फिर भी समझ में न आवे तो कल फिर मैं विस्तार से अनेक उदाहरण देकर समझाऊँगा ।

ध्यान रखो समझ में समझने से आता है, समझाने से नहीं; अतः स्वयं समझने के लिए प्रयत्नशील व चिन्तनशील बनना चाहिए ।

~डॉ० हुकुमचंद भारिल्ल कृत तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग १ से


1 Like

दोष मतलब गलती - जो जैसा है, उसे वैसा न कहकर अन्यथा कहना। आप भावना जी हैं और कोई आपको नेहा जी कहे तो यह दोष होगा।

जिस से लक्ष्य की पहचान हो, उसे लक्षण कहते हैं। जैसे आपको भावना जी कहना।

अब, लक्षण

जैनदर्शन में लक्षण को समझाते हुए कहा है कि जो निश्चित तौर पर लक्ष्य तक ही ले जाए, उसे लक्षण कहते हैं। इसके 2 भेद हैं - आत्मभूत और अनात्मभूत।

जो पहचान वस्तु के आन्तरिक गुणों से सम्बन्ध हो जैसे जीव की पहचान ज्ञान से, उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं।

जो पहचान वस्तु के बाहरी साधन से हो जैसे ऑटो चलाने वाले की पहचान ऑटो से होती है, उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं।

अब, दोष

जब सही लक्षण नहीं बनता तब दोष होते हैं। इसके 3 भेद हैं - अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव।

जो पहचान सम्पूर्ण वस्तु को न बताए, जैसे सारी बिना गियर की गाड़ियों को एक्टिवा कहना, उसे अव्याप्ति दोष कहते हैं।

जो पहचान सम्पूर्ण वस्तु को बताने के साथ-साथ उससे अन्य वस्तु को भी सिद्ध कर दे, जैसे सारे तीर्थंकरों को भगवान कहना, उसे अतिव्याप्ति दोष कहते हैं।

जो पहचान सम्पूर्ण वस्तु के स्थान पर अन्य वस्तु को ही सिद्ध करे, जैसे घड़ी को बाल्टी कहना, उसे असम्भव दोष कहते हैं।

1 Like