कार्मिक सिद्धान्त इस विषय में क्या कहता है?

अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन के 50 वर्षों तक तो मोह राग यहां तक के किसी परस्त्री से मोह-प्यार। फिर जब थक जाता है सालों तक इस एक तरफा मोहजाल में भटकते भटकते दुख भोगते भोगते फिर एक टाइम ऐसा भी आता है उस के जीवन में जब वो धीरे धीरे अपने जैन धर्म जैन दर्शन में रुचि फिर जैसे जैसे रुचि व ज्ञान तो वो अपने को पूरी तरह मोह जाल से मुक्त कर लेना चाहता है। पिछले जन्म का हिसाब किताब चुकता समझ कर सब भूल जाना चाहता है।
क्या उस व्यक्ति के अब तक के 50 वर्षों के जो भी कर्म उसने किये अज्ञानतावश और मोहवश उन कर्मो की निर्जरा संभव इसी जन्म में?

निर्जरा का एकमात्र उपाय समयक्त्व है। बिना उसके (वास्तविक) निर्जरा नहीं होती है। अगर आत्मा के लक्ष्य का ज़ोर बहुत हो तो जी हाँ, उसी जन्म में बहुत करमों की निर्जरा हो जाती है – उदाहरण:

राजा श्रेणिक के सातवें नरक का बंध हुआ था, मृत्यु से पहले समयक्त्व हो गए तो सातवें से पहले नर्क का बंध हो गया।

गौतम गणधर तीव्र ग्रहित मिथ्यात्व और अज्ञान में थे लेकिन भगवान महावीर की अर्हंत, वीतरागी मुद्रा और मान-स्तम्भ देखकर परिणति ऐसी बदली की वे गणधर हो गए और उसी भव में मोक्ष चले गए।

इच्छाओं को रोकना ही तप कहा गया और तप से ही बुरे कर्मों की निर्जरा होती है ऐसा आगम में कहा गया है ना!
तो क्या कुछ अंतरंग और कुछ बहिरंग तप करने से उन कर्मो की निर्जरा हो सकेगी?

अंतरंग तप केवल सम्यग्दृष्टि के ही होता है। बहिरंग तप वही है जो अंतरंग तप के समय जीव की बाह्य दशा ज्ञान में आए। सम्यक्त्व के बिना किया हुआ बहिरंग तप वास्तव में तप है ही नहीं।

समयसार गाथा १९३ पर आचार्य जयसेन की टीका:

गाथा १९४ का भावार्थ:

कर्म में बुरा-अच्छा नहीं होता। सारे कर्म (चाहे शुभ कर्म/पुण्य हो या अशुभ कर्म / पाप हो, सभी) बुरे कर्म ही है। इसलिए सिद्ध भगवान के कुछ भी कर्म नहीं है। अगर कोई कर्म “अच्छा” होता, तो सिद्ध भगवान उन कर्मों से लबालब भरे हुए होते।