जिस तत्त्वार्थसूत्र में श्रुत को मति पूर्वक माना है उसी में श्रुत ज्ञान के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ही भेद किए हैं।
तो मतिज्ञान पूर्वकता का क्या तात्पर्य लेना चाहिए? उसकी आगम-ज्ञान से क्या मैत्री है? क्या आगमज्ञान के अलावा भी श्रुतज्ञान होता है?
जिस तत्त्वार्थसूत्र में श्रुत को मति पूर्वक माना है उसी में श्रुत ज्ञान के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ही भेद किए हैं।
तो मतिज्ञान पूर्वकता का क्या तात्पर्य लेना चाहिए? उसकी आगम-ज्ञान से क्या मैत्री है? क्या आगमज्ञान के अलावा भी श्रुतज्ञान होता है?